ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ७

[ऋषि-मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता - इन्द्र। छन्द- गायत्री।]
६१.इन्द्रमिद् गाथिनो बृहदिन्द्रमर्केभिरर्किण:। इन्द्रं वाणीरनूषत॥१॥
सामगान के साधको ने गाये जाने योग्य बृहत्साम की स्तुतियो (गाथा) से देवराज इन्द्र को प्रसन्न किया जाता है। इसी तरह याज्ञिको ने भी मन्त्रोच्चारण के द्वारा इन्द्रदेव की प्रार्थना की है ॥१॥
६२. इन्द्र इद्धर्यो: सचा सम्मिश्ल आ वचोयुजा। इन्द्रो वज्री हिरण्य:॥२॥
संयुक्त करने की क्षमता वाले वज्रधारी,स्वर्ण मण्डित इन्द्रदेव, वचन मात्र के इशारे से जुड़ जाने वाले अश्वो के साथी है ॥२॥
[वीर्य वा अश्व: के अनुसार पराक्रम ही अश्व है। जो पराक्रमी समय के संकेत मात्र से संगठित हो जायें, इन्द्र देवता उनके साथी है, जो अंहकारवश बिखरे रहते है, वे इन्द्रके प्रिय नही है।]
६३. इन्द्रो दीर्घाय चक्षस आ सूर्य रोहयद् दिवि। वि गोभिरद्रियमैरयत्॥३॥

देवशक्तियो के संगठक इन्द्रदेव ने विश्व को प्रकशित करने के महान उद्देश्य से सूर्यदेव को उच्चाकाश मे स्थापित किया, जिनने अपनी किरणो से पर्वत आदि समस्त विश्व को दर्शनार्थ प्रेरित किया॥३॥
६४. इन्द्र वाजेषु नो२व सहस्त्रप्रधेनेषु च । उग्र उग्राभिरूतिभि:॥४॥
हे वीर इन्द्रदेव। आप सहस्त्रो प्रकार के धन लाभ वाले छोटे बड़े संग्रामो मे वीरता पूर्वक हमारी रक्षा करें ॥४॥
६५. इन्द्र वयं महाधन इन्द्रमभें हवामहे। युंज वृत्रेषु वज्रिणम् ॥५॥

हम छोटे बड़े सभी जिवन संग्रामो मे वृत्रासुर के संहारक, वज्रपाणि इन्द्रदेव जो सहायतार्थ बुलाते है॥५॥
६६. स नो वृषन्नमुं चरुं सत्रापदावन्नापा वृधि। अस्मभ्यमप्रतिष्कुत:॥६॥

सतत दानशील,सदैव अपराजित हे इन्द्रदेव ! आप हमारे लिये मेघ से जल की वृष्टि करें ॥६॥
६७. तुञ्जेतुञ्जे य उत्तरे स्तोमा इन्द्रस्य वज्रिण: । न विन्धे अस्य सुष्टुतिम्॥७॥

प्रत्येक दान के समय, वज्रधारी इन्द्र के सदृश दान की (दानी की) उपमा कहीं अन्यंत्र नही मिलती। इन्द्रदेव की इससे अधिक उत्तम स्तुति करने मे हम समर्थ नही है ॥७॥
६८.वृषा यूथेव वंसग: कृष्टीरियर्त्योजसा । ईशानो अप्रतिष्कुत: ॥८॥
सबके स्वामी, हमारे विरूद्ध कार्य न करने वाले, शक्तिमान इन्द्रदेव अपनी सामर्थ्य के अनुसार, अनुदान बाँटने के लिये मनुष्यो के पास उसी प्रकार जाते है, जैसे वृषभ गायो के समूह मे जाता है॥८॥
६९. य एकश्चर्षणीनां वसूनामिरन्यति । इन्द्र: पञ्व क्षितिनाम् ॥९॥

इन्द्रदेव, पाँचो श्रेणीयो के मनुष्य (ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र और निषाद ) और सब ऐश्वर्य संपदाओ के अद्वितिय स्वामी है॥९॥
७०. इन्द्र वो विश्वतस्परि हवामहे जनेभ्य:। अस्माकमस्तु केवल:॥१०॥

हे ऋत्विजो! हे यजमानो ! सभी लोगो मे उत्तम, इन्द्रदेव को, आप सब के कल्याण के लिये हम आमंत्रित करते है, वे हमारे ऊपर विशेष कृपा करें ॥१०॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ६

[ऋषि-मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता- १-३,१० इन्द्र; ४,६,८,९ मरुद् गण;५-७ मरुद् गण और् इन्द्र;१० छन्द- गायत्री]

५१। युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुश्ष:। रोचन्ते रोचना दिवि ॥१॥

(वे इन्द्रदेव) द्युलोक मे आदित्य रूप मे, भूमि पर अहिंसक अग्नि रूप् मे, अंतरिक्ष मे सर्वत्र प्रसरणशील वायु रूप मे उपस्थित है। उन्हे उक्त तीनो लोको के प्राणी अपने कार्यो मे देवत्वरूप से संबद्ध मानते है। द्युलोक मे प्रकाशित होने वाले नक्षत्र-ग्रह उन्ही इन्द्र के स्वरूपांश है। अर्थात तीनो लोको की प्रकाशमयी-प्राणमयी शक्तीयो के वे ही एकमात्र संगठक है ॥१॥

५२.युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे।शोणा धृष्णू नृवाहसा॥२॥


इन्द्रदेव के रथ मे दोनो ओर रक्तवर्ण, संघर्षशील, मनुष्यो को गति देने वाले दो घोड़े नियोजित् रहते है ॥२॥

५३ केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे । समुषद्धिरजायथा:॥३॥


हे मनुष्यो! तुम रात्रि मे निद्राभिभूत होकर, संज्ञा शून्य निश्चेष्ट होकर,प्रात: पुन: सचेत और सचेष्ट होकर मानो प्रतिदिन नवजीवन प्राप्त करते हो। प्रति दिन् अजन्म लेते हो ॥३॥

५४. आदह स्वधामनु पुनर्गर्भत्वमेरिरे।दधाना नाम यज्ञियम् ॥४॥


यज्ञीय नाम वाले, धारण करने मे समर्थ मरुत् वास्तव मे अन्न की (वृद्धि की) कामना से बार बार (मेघ आदि) गर्भ को प्राप्त होते है॥४॥

५५. वीळु चिदारुजत्नुभिर्गुहा चिदिन्द्र वह्रिभि: । अविन्द उस्त्रिया अनु ॥५॥


हे इन्द्रदेव। सुदृढ़ किले मे बन्दी को ध्वस्त करने मे समर्थ, तेजस्वी मरुद् गणो के सहयोग से आपने गुफा मे अवरुद्ध गौओं (किरणो) को खोजकर प्राप्त किया ॥५॥

५६. देवयन्तो यथा मतिमिच्छा विदद्वसुं गिर:। महानूषत् श्रुतम् ॥६॥


देवत्व प्राप्ति की कामना वाले ज्ञानी ऋत्विज् ,महान यशस्वी, ऐश्वर्यवान वीर् मरुद्गणो की बुद्धिपूर्वक स्तुति करते है ॥६॥

५७.इन्द्रेण सं हि दृक्षसे सञ्जग्मानो अबिभ्युषा । मन्दू समानवर्चसा॥७॥


सदा प्रसन्न रहने वाले, समान् तेज वाले मरुद् गण निर्भय रहने वाले इन्द्रदेव के साथ संगठित अच्छे लगते है ॥७॥

५८. अनवद्यैरभिद्युभिर्मख: सहस्वदर्चति । गणैरिन्द्रस्य काम्यै: ॥८॥


इस यज्ञ मे निर्दोष, दीप्तिमान् , इष्ट प्रदायक, सामर्थ्यवान मरुद् गणो के साथी इन्द्रदेव के सामर्थ्य की पूजा की जाती है ॥८॥

५९. अत: परिज्मन्ना गहि दिवो वा रोचनादधि। समस्मिन्नृञ्जते गिर: ॥९॥


हे सर्वत्र गमनशील मरुद् गणो ! आप अंतरिक्ष से, आकाश से, अथवा प्रकाशमान द्युलोक से यहां पर आयें क्योंकि इस यज्ञ मे हमारी वाणियां आपकि स्तुति कर रही हैं ॥९॥

इतो वा सातिमीमहे दिवो वा पार्थिवादधि । इन्द्र महो वा रजस: ॥१०॥


इस पृथ्वी लोक, अन्तरिक्ष लोक अथवा द्युलोक से कहीं से भी प्रभूत धन प्राप्त कराने के लिये, हम इन्द्रदेव की प्रार्थना करते हैं ॥१०॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ५

[ऋषि - मधुच्छन्दा वैश्वामित्र। देवता- इन्द्र। छन्द- गायत्री]


४१. आ त्वेता नि षिदतेन्द्रमभि प्र गायत । सखाय: स्तोमवाहस: ॥१॥
हे याज्ञिक मित्रो! इन्द्रदेव को प्रसन्न करने ले लिये प्रार्थना करने हेतु शीघ्र आकर बैठो और् हर प्रकार् से उनकी स्तुति करो ॥१॥
४२. पुरूतमं पुरूणामीशानं वार्याणाम् । इन्द्रं सोमे सचा सुते ॥२॥
(हे याजक मित्रो! सोम् के अभिषुत होने पर) एकत्रित होकर् संयुक्तरूप से सोमयज्ञ मे शत्रुओ को पराजित् करने वाले ऐश्वर्य के स्वामी ओन्द्रदेव की अभ्यर्थना करो ॥२॥
४३. स घा नो योग आ भुवत् स राये स् पुरन्द्याम् । गमद् वाजेभिरा स न: ॥३॥
वे इन्द्रदेव हमारे पुरषार्थ को प्रखर बनाने मे सहायक हो, धन धान्य से हमे परिपूर्ण करें तथा ज्ञानप्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करते हुये पोषक अन्न सहित हमारे निकट आयें ॥३॥
४४. यस्यं स्ंस्थे न वृण्व्ते हरी समत्सु शत्रव:। तस्मा इन्द्राय गायत॥४॥
(हे याजको!) संग्राम मे जिनके अश्वो से युक्त रथो के सम्मुख शत्रु टिक नही सकते, उन इन्द्रदेव के गुणो का आप गान करे॥४॥
४५. सुतओआव्ने सुता इमे शुचयो यन्ति वीतये। सोमासो दध्याशिर:॥५॥
यह निचोड़ा और शुद्ध किया हुआ दही मिश्रित सोमरस, सोमपान की इच्छा करने वाले वाले इन्द्रदेव के निमित्त प्राप्त हो ॥५॥
४६. त्वं सुतस्य पीतवे सद्यो वृद्धो अजायथा:। इन्द्र ज्यैष्ठय्याय सुक्रतो॥६॥
हे उत्तम कर्म वाले इन्द्रदेव! आप सोमरस पीने के लिये देवताओ मे सर्वश्रेष्ठ होने के लीये तत्काल वृद्ध रूप हो जाते है॥६॥
४७. आ त्वा विशन्त्वाशव: सोमास इन्द्र गिर्वण:। शं ते सन्तु प्रचेतसे॥७॥
हे इन्द्रदेव! तीनो सवनो मे व्याप्त रहने वाला यह सोम, आपके सम्मुख उपस्थित रहे एवं आपके ज्ञान को सुखपूर्वक संमृद्ध करें॥७॥
४८. त्वा स्तोमा अवीवृधन् त्वामुक्था शतक्रतो। त्वां वर्धन्तु नो गिर:॥८॥
हे सैकड़ो यज्ञ करने वाले इन्द्रदेव! स्तोत्र आपकी वृद्धी करें। यह उक्थ(स्तोत्र) वचन और हमारी वाणी आपकी महत्ता बढाये॥८॥
४९. अक्षितोति: सनेदिमं वाजामिन्द्र: सहस्त्रिणम् । यस्मिन्ं विश्वानि पौंस्या॥९॥
रक्षणीय की सर्वथा रक्षा करने वाले इन्द्रदेव बल पराक्रम प्रदान करने वाले विविध रूपो मे विद्यमान सोम रूप अन्न का सेवन करे॥९॥
५०. मा नो मर्ता अभि द्रुहन् तनूमामिन्द्र गिर्वण:। ईशानो यवया वधम् ॥१०॥
हे स्तुत्य इन्द्रदेव! हमारे शरीर् को कोई भी शत्रु क्षति न पहुंचाये। हमे कोई भी हिंसित न करे, आप हमारे संरक्षक रहे॥१०॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ४

[ऋषि - मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता-इन्द्र ।छन्द - गायत्री]
३१. सुरूपकृलुमूतये सुदुघामिव गोदुहे। जुहूमसि द्यविद्यवि ॥१॥

(गो दोहन करने वाले के द्वारा) प्रतिदिन मधुर दूध प्रदान करने वाली गाय को जिस प्रकार बुलाया जाता है, उसी प्रकार हम अपने संरक्षण के लिये सौन्दर्यपूर्ण यज्ञकर्म सम्पन्न करने वाले इन्द्रदेव का आवाहन करते है ॥१॥
३२.उप न: सवना गहि सोमस्य सोमपा: पिब। गोदा इन्द्रेवतो मद: ॥२॥

सोमरस का पान करने वाले हे इन्द्रदेव! आप सोम ग्रहण करने हेतु हमारे सवन यज्ञो मे पधार कर,सोमरस पीने के बाद प्रसन्न होकर याजको को यश,वैभव और् गौंए प्रदान करें॥२॥
३३. अथ ते अन्तमानां विद्याम सुमतीनाम्। मा नो अति ख्य आ गहि॥३॥

सोमपान कर लेने के अनन्तर हे इंद्रदेव ! हम आपके अत्यन्त समीपवर्त्ती श्रेष्ठ प्रज्ञावान पुरूषो की उपस्थिति मे रहकर आपके विषय मे अधिक ज्ञान प्राप्त करें। आप भी हमारे अतिरिक्त अन्य किसी के समक्ष अपना स्वरूप प्रकट् न करे (अर्थात् अपने विषय मे न बताएं)॥३॥
३४.परेहि विग्नमस्तृतमिन्द्रं पृच्छा विपश्चितम् । यस्ते सखिभ्य् आ वरम्॥४॥

हे ज्ञानवानो! आप उन विशिष्ट बुद्धि वाले, अपराजेय इन्द्रदेव के पास जाकर मित्रो बन्धुओ के लिये धन ऐश्वर्य के निमित्त् प्रार्थना करें॥४॥
३५। उत ब्रुवन्तु नो निदो निरन्यतश्चिदारत। दधाना इन्द्र इद्दुव:॥५॥

इन्द्रदेव की उपासना करने वाले उपासक उन(इन्द्रदेव) के निन्दको को यहां से अन्यत्र निकल जाने हो कहें; ताकि वे यहां से दूर हो जायें ॥५॥
३६. उत न: सुभगाँ अरिर्वोचेयुर्दस्म कृष्टय:। स्यामेदिन्द्रस्य शर्मणि॥६॥

हे इन्द्रदेव ! हम आपके अनुग्रह से समस्त वैभव प्राप्त करें। जिससे देखनेवाले शभी शत्रु और् मित्र हमे सौभाग्यशाली समझे॥६॥
३७ एमाशुमाशवे भर यज्ञश्रियं नृमादनम्। पतयन्मन्दयत् सखम् ॥७॥

(हे याजको !) यज्ञ को श्रीसमपन्न बनाने वाले , प्रसन्न्ता प्रदान करने वाले, मित्रो को आनन्द देने वाले इस सोमरस को शीघ्रगामी इन्द्रदेव के लिये भरें (अर्पित करें) ॥७॥
३८. अस्य पीत्वा शतक्रतो घनो वृत्राणामभव:। प्रावो वाजेषु वाजिनम्
॥८॥

हे सैकड़ो यज्ञ सम्पन्न करने वाले इन्द्रदेव! इस सोमरस को पीकर आप वृत्र-प्रमुख शत्रुओ के संहारक सिद्ध हुये है,अत: आप संग्राम-भूमि मे वीर योद्दाओ की रक्षा करे॥८॥
३९.तं त्वा वाजेषु वाजिनं वाजयाम: शतक्रतो। धनानामिन्द्र सातये॥९॥

हे शतकर्मा इन्द्रदेव ! युद्धो मे बल प्रदान करने वाले आपको हम धनि की प्राप्ति के लिये श्रेष्ठ हविष्यान्न अर्पित करते हैं॥९॥
४०. यो रायो३वनिर्महान्त्सुपार: सुन्वत: सखा। तस्मा इन्द्राय गायत।।१०॥
हे याजको! आप उन इन्द्रदेव के लिये स्तोत्रो का गान करें , जो धनो के महान् रक्षक, दु:खो को दूर करने वाले और् याज्ञिको से मित्रवत् भाव रखने वाले है॥१०॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३

[ऋषि मधुच्छन्दा वैश्वामित्र। देवता १-३ अश्विनीकुमार, ४-६ इन्द्र,७-९ विश्वेदेवा,१०-१२ सरश्वती। छन्द गायत्री]


१९. अश्विना यज्वरीरिषो द्रवपाणी शुभस्पती। पुरुभुजा चनस्यतम् ॥१॥


हे विशालबाहो ! शुभ कर्मपालक,द्रुतगति से कार्य सम्पन्न करने वाले अश्विनी कुमारो ! हमारे द्वारा समर्पित् हविष्यान्नो से आप भली प्रकार सन्तुष्ट हों ॥१॥


२०. अश्विना पुरुदंससा नरा शवीरता धिया । धिष्ण्या वनतं गिर:॥२॥


असंख्य कर्मो को संपादित करनेवाले धैर्य धारण करने वाले बुद्धिमान हे अश्विनीकुमारो ! आप अपनी उत्तम बुद्धि से हमारी वाणियों (प्रार्थनाओ को स्वीकार् करे ॥२॥


२१. दस्ना युवाकव: सुता नासत्या वृक्तबर्हिष: । आ यातं रुद्रवर्तनी॥३॥


रोगो को विनष्ट करने वाले, सदा सत्य बोलने वाले रूद्रदेव के समान (शत्रु संहारक) प्रवृत्ति वाले, दर्शनीय हे अश्विनीकुमारो ! आप यहां आये और् बिछी हुई कुशाओ पर् विराजमान होकर प्रस्तुत संस्कारित सोमरस का पान करें॥३॥


२२. इन्द्रा याहि चित्रभानो सुता इमे त्वायव: । अण्वीभिस्तना पूतास:॥४॥


हे अद्भूत् दीप्तिमान् इन्द्रदेव ! अंगुलियों द्वारा स्रवित्, श्रेष्ठ पवित्ररायुक्त यह सोमरस आपके निमित्त् है। आप आये और सोमरस का पान करें ॥४॥


२३. इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजूतः सुतावत: । उपब्रम्हाणि वाघत:॥५॥


हे इन्द्रदेव ! श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा जानने योग्य आप,सोमरस प्रस्तुत करते हुये ऋत्विजो के द्वारा बुलाये गये है। उनकी स्तुति के आधार पर् आप यज्ञशाला मे पधारें ॥५॥


२४. इन्द्रा याहि तूतुजान उप ब्रम्हाणि हरिव: । सुते दधिष्व नश्चन:॥६॥


हे अश्वयुक्त इन्द्रदेव ! आप स्तवनो के श्रवणार्थ एवं इस यज्ञ मे हमारे द्वारा प्रदत्त हवियो का सेवन करने के लिये यज्ञशाला मे शीघ्र ही पधारें ॥६॥

२५ . ओमासश्चर्षणीधृतो विश्वे देवास् आ गत। दाश्वांसो दाशुष: सुतम्॥७॥

हे विश्वदेवो ! आप सबकी रक्षा करने वाले, सभी प्राणीयो के आधारभूत और् सभी को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले है। अत आप इस सोमयुक्त हवि देने वाले यजमान के यज्ञमे पधारे ॥७॥


२६. विश्वे देवासो अप्तुर: सुत्मा गन्त तूर्णय: । उस्ना इव स्वसराणि॥८॥


समय समय पर् वर्षा करने वाले हे विश्वदेवो ! आप कर्म कुशल और् द्रुतगति से कार्य करने वाले है। आप सूर्य-रश्मियो के सदृश गतिशील होकर हमे प्राप्त हो ॥८॥


२७. विश्वे देवासो अस्निध एहिमायासो अद्रुह: मेधं जुषण्त वह्रय:॥९॥


हे विश्वदेवो ! आप किसी के द्वारा वध ब किये जाने वाले, कर्म कुशल, द्रोह रहित और् सुखप्रद है। आप हमारे यज्ञ मे उपस्थित होकर हवि का सेवन करें ॥९॥


२८. पावका न: सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती। यज्ञं वष्टु धियावसु:॥१०॥


पवित्र बनाने वाकी, पोषण देने वाली, बुद्धीमत्तापूर्वक ऐश्वर्य प्रदान करने वाकी सरश्वती ज्ञान और कर्म से हमारे यज्ञ को सफल बनायें ॥१०॥


२९. चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम् यज्ञं दधे सरस्वती॥११॥


सत्यप्रिय (वचन) बोलने की प्रेरणा देने वाली, मेधावी जनो को यज्ञानुष्ठान की प्रेरणा (मति) प्रदान करने वाली देवी सरस्वती हमारे इस यज्ञ को स्वीकार करके हमे अभीष्ट वैभव प्रदान करे ॥११॥


३०. महो अर्ण: सरस्वती प्र चेतयति केतुना॥ धियो विश्वां वि राजति॥१२॥


जो देवी सरस्वती नदी रूप् मे प्रभूत जल को प्रवाहित करती है। वे सुमति को जगाने वाली देवी सरस्वती सभी याजको की प्रज्ञा को प्रखर बनाती है ॥१२॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २

[ऋषि - मधुच्छन्दा वैश्वामित्र। देवता १-३ वायु, ४-६ इन्द्र-वायु,७-९ मित्रावरुण। छन्द गायत्री]

१०. वायवा याहि दर्शतेमे सोमा अरंकृता:। तेषां पाहि श्रुधी हवम् ॥१॥

हे प्रियदर्शी वायुदेव। हमारी प्रार्थना को सुनकर यज्ञस्थल पर आयें। आपके निमित्त सोमरस प्रस्तुत है, इसका पान करें ॥१॥
११. वाय उक्वेथेभिर्जरन्ते त्वामच्छा जरितार: । सुतसोमा अहर्विद: ॥२॥

हे वायुदेव ! सोमरस तैयार करके रखनेवाले, उसके गुणो को जानने वाले स्तोतागण स्तोत्रो से आपकी उत्तम प्रकार से स्तुति करते हैं ॥२॥
१२. वायो तव प्रपृञ्चती धेना जिगाति दाशुषे। उरूची सोमपीतये ॥३॥

हे वायुदेव ! आपकी प्रभावोत्पादक वाणी, सोमयाग करने वाले सभी यजमानो की प्रशंसा करती हुई एवं सोमरस का विशेष गुणगान करती हुई, सोमरस पान करने की अभिलाषा से दाता (यजमान) के पास पहुंचती है ॥३॥
१३. इन्द्रवायू उमे सुता उप प्रयोभिरा गतम् । इन्दवो वामुशान्ति हि ॥४॥

हे इन्द्रदेव! हे वायुदेव! यह सोमरस आपके लिये अभिषुत किया (निचोड़ा) गया है। आप अन्नादि पदार्थो से साथ यहां पधारे, क्योंकि यह सोमरस आप दोनो की कामना करता हौ ।४॥
१४. वायविन्द्रश्च चेतथ: सुतानां वाजिनीवसू। तावा यातमुप द्रवत् ॥५॥

हे वायुदेव! हे इन्द्रदेव! आप दोनो अन्नादि पदार्थो और धन से परिपुर्ण है एवं अभिषुत सोमरस की विशेषता को जानते है। अत: आप दोनो शिघ्र ही इस यज्ञ मे पदार्पण करें।
१५. वायविन्द्रश्च सुन्वत आ यातमुप निष्कृतम् । मक्ष्वि१त्था धिया नरा ।६॥

हे वायुदेव! हे इन्द्रदेव ! आप दोनो बड़े सामर्थ्यशाली है। आप यजमान द्वारा बुद्धिपूर्वक निष्पादित सोम के पास अति शीघ्र पधारें ॥६॥
१६. मित्रं हुवे पूतदक्षं वरुणं च रिशादसम् । धियं घृताचीं साधन्ता ॥७॥

घृत के समान प्राणप्रद वृष्टि सम्पन्न कराने वाले मित्र और वरुण देवो का हम आवाहन करते है। मित्र हमे बलशाली बनायें तथा वरुणदेव हमारे हिंसक शत्रुओ का नाश करें ।७॥
१७. ऋतेन मित्रावरुणावृतावृधारुतस्पृशा । क्रतुं बृहन्तमाशाथे ॥८॥

सत्य को फलितार्थ करने वाले सत्ययज्ञ के पुष्टिकारज देव मित्रावरुणो ! आप दोनो हमारे पुण्यदायी कार्यो (प्रवर्तमान सोमयाग) को सत्य से परिपूर्ण करें ॥८॥
१८. कवी नो मित्रावरुणा तुविजाता उरुक्षया । दक्षं दधाते अपसम् ॥९॥

अनेक कर्मो को सम्पन्न कराने वाले विवेकशील तथा अनेक स्थलो मे निवास करने वाले मित्रावरुण् हमारी क्षमताओ और कार्यो को पुष्ट बनाते हैं ॥९॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १

[ऋषि मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता अग्नि । छंद गायत्री।]

१. ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम होतारं रत्नधातमम ॥१॥

हम अग्निदेव की स्तुती करते है (कैसे अग्निदेव?) जो यज्ञ (श्रेष्ठतम पारमार्थिक कर्म) के पुरोहित (आगे बढाने वाले ), देवता (अनुदान देनेवाले), ऋत्विज( समयानुकूल यज्ञ का सम्पादन करनेवाले ),होता (देवो का आवाहन करनेवाले) और याचको को रत्नों से (यज्ञ के लाभों से ) विभूषित करने वाले है ॥१॥

२. अग्नि पूर्वेभिॠषिभिरिड्यो नूतनैरुत । स देवाँ एह वक्षति ॥२॥


जो अग्निदेव पूर्वकालिन ऋषियो (भृगु, अंगिरादि ) द्वारा प्रशंसित है। जो आधुनिक काल मे भी ऋषि कल्प वेदज्ञ विद्वानो द्वारा स्तुत्य है , वे अग्निदेव इस यज्ञ मे देवो का आवाहन करे ॥२॥

३. अग्निना रयिमश्न्वत् पोषमेव दिवेदिवे। यशसं वीरवत्तमम् ॥३॥


(स्तोता द्वारा स्तुति किये जाने पर) ये बढा़ने वाले अग्निदेव मनुष्यो (यजमानो) को प्रतिदिन विवर्धमान (बढ़ने वाला) धन, यश एवं पुत्र-पौत्रादि वीर् पुरूष प्रदान करनेवाले हैं ॥३॥

४. अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परिभूरसि। स इद्देवेषु गच्छति ॥४॥


हे अग्निदेव। आप सबका रक्षण करने मे समर्थ है। आप जिस अध्वर (हिंसारहित यज्ञ) को सभी ओर से आवृत किये रहते है, वही यज्ञ देवताओं तक पहुंचता है ॥४॥

५. अग्निहोर्ता कविक्रतु: सत्यश्चित्रश्रवस्तम: । देवि देवेभिरा गमत् ॥५॥


हे अग्निदेव। आप हवि प्रदाता, ज्ञान और कर्म की संयुक्त शक्ति के प्रेरक, सत्यरूप एवं विलक्षण रूप् युक्त है। आप देवो के साथ इस यज्ञ मे पधारें ॥५॥

६. यदग्ङ दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि । तवेत्तत् सत्यमग्ङिर: ॥६॥


हे अग्निदेव। आप यज्ञकरने वाले यजमान का धन, आवास, संतान एवं पशुओ की समृद्धि करके जो भी कल्याण करते है, वह भविष्य के किये जाने वाले यज्ञो के माध्यम से आपको ही प्राप्त होता है॥६॥

७. उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम् । नमो भरन्त एमसि॥७॥


हे जाज्वलयमान अग्निदेव । हम आपके सच्चे उपासक है। श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा आपकी स्तुति करते है और दिन् रात, आपका सतत गुणगान करते हैं। हे देव। हमे आपका सान्निध्य प्राप्त हो ॥७॥

८.राजन्तमध्वराणां गोपांमृतस्य दीदिविम् । वर्धमानं स्वे दमे ॥८॥


हम गृहस्थ लोग दिप्तिमान, यज्ञो के रक्षक, सत्यवचनरूप व्रत को आलोकित करने वाले, यज्ञस्थल मे वृद्धि को प्राप्त करने वाले अग्निदेव के निकट स्तुतिपूर्वक आते हैं ॥८॥

९. स न: पितेव सूनवेग्ने सूपायनो भव । सचस्वा न: स्वस्तये ॥९॥

हे गाहर्पत्य अग्ने ! जिस प्रकार पुत्र को पिता (बिना बाधा के) सहज की प्राप्त होता है, उसी प्रकार् आप भी (हम यजमानो के लिये) बाधारहित होकर सुखपूर्वक प्राप्त हों। आप हमारे कल्याण के लिये हमारे निकट रहे ॥९॥