ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३७

[ऋषि - कण्व धौर। देवता - मरुद्‍गण , छन्द-गायत्री]
४४२.क्रीळं वः शर्धो मारुतमनर्वाणं रथेशुभम् ।
कण्वा अभि प्र गायत ॥१॥
हे कण्व गोत्रीय ऋषियो! क्रिड़ा युक्त, बल सम्पन्न, अहिंसक वृत्तियों वाले मरुद्‍गण रथ पर शोभायमान हैं। आप उनके निमित्त स्तुतिगान करें ॥१॥

४४३.ये पृषतीभिरृष्टिभिः साकं वाशीभिरञ्जिभिः ।
अजायन्त स्वभानवः ॥२॥
हे मरुद्‍गण स्वदीप्ति से युक्त धब्बो वाले मृगो (वाहनो)सहित और आभूषणो से अलंकृत होकर गर्जना करते हुए प्रकट हुए हैं॥२॥

४४४.इहेव शृण्व एषां कशा हस्तेषु यद्वदान् ।
नि यामञ्चित्रमृञ्जते ॥३॥
मरुद्‍गणो के हाथो मे स्थित चाबुको से होने वाली ध्वनियां हमे सुनाई देती हैं, जैसे वे यहीं हो रही हों। वे ध्वनियां संघर्ष के समय असामान्य शक्ति प्रदर्शित करती है॥३॥

४४५.प्र वः शर्धाय घृष्वये त्वेषद्युम्नाय शुष्मिणे ।
देवत्तं ब्रह्म गायत ॥४॥
(हे याजको! आप)बल बढ़ाने वाले, शत्रु नाशक, दीप्तिमान मरुद्‍गणों की सामर्थ्य और यश का मंत्रो से विशिष्ट गान करें॥४॥

४४६.प्र शंसा गोष्वघ्न्यं क्रीळं यच्छर्धो मारुतम् ।
जम्भे रसस्य वावृधे ॥५॥
(हे याजको! आप) किरणो द्वारा संचरित दिव्य रसो का पर्याप्त सेवन कर बलिष्ठ हुए उन मरुद्‍गणों के अविनाशी बल की प्रशंसा करें॥५॥

४४७.को वो वर्षिष्ठ आ नरो दिवश्च ग्मश्च धूतयः ।
यत्सीमन्तं न धूनुथ ॥६॥
द्युलोक और भूलोक को कम्पित करनेवाले हे मरुतो! आप मे वरिषठ कौन है? जो सदा वृक्ष के अग्रभाग को हिलाने के समान शत्रुओ को प्रकम्पित कर दे ॥६॥

४४८.नि वो यामाय मानुषो दध्र उग्राय मन्यवे ।
जिहीत पर्वतो गिरिः ॥७॥
हे मरुद्‍गणों! आपके प्रचण्ड संघर्षल आवेश से भयभीत मनुष्य सुदृढ़ सहारा ढुंढता है, क्योंकि आप बड़े पर्वतो और टीलो को भी कंपा देते हैं॥७॥

४४९.येषामज्मेषु पृथिवी जुजुर्वाँ इव विश्पतिः ।
भिया यामेषु रेजते ॥८॥
उन मरुद्‍गणों के आक्रमणकारी बलो से यह पृथ्वी जरा-जीर्ण नृपति की भांति भयभीत होकर प्रकम्पित हो उठती है॥८॥

४५०.स्थिरं हि जानमेषां वयो मातुर्निरेतवे ।
यत्सीमनु द्विता शवः ॥९॥
इन वीर मरुतो की मातृभूमि आकाश स्थिर है। ये मातृभूमि से पक्षी के वेग के समान निर्बाधित होकर चलते है। उनका बल दुगुना होकर व्याप्त होता है॥९॥

४५१.उदु त्ये सूनवो गिरः काष्ठा अज्मेष्वत्नत ।
वाश्रा अभिज्ञु यातवे ॥१०॥
शब्द नाद करने वाले मरुतो ने यज्ञार्थ जलो को निःसृत किया। प्रवाहित जल का पान करने के लिए रंभाति हुई गौएं घुटने तक पानी मे जाने के लिए बाध्य होती हैं॥१०॥

४५२.त्यं चिद्घा दीर्घं पृथुं मिहो नपातममृध्रम् ।
प्र च्यावयन्ति यामभिः ॥११॥
विशाल और व्यापक, न बिंध सकने वाले, जल वृष्टि न करने वाले मेघो को भी वीर मरुद्‍गण अपनी तेजगति से उड़ा ले जाते है॥११॥

४५३.मरुतो यद्ध वो बलं जनाँ अचुच्यवीतन ।
गिरीँरचुच्यवीतन ॥१२॥
हे मरुतो! आप अपने बल से लोगो को विचलित करते हैं, आप पर्वतो को भी विचलित करने मे समर्थ हैं॥१२॥

४५४.यद्ध यान्ति मरुतः सं ह ब्रुवतेऽध्वन्ना ।
शृणोति कश्चिदेषाम् ॥१३॥
जिस समय मरुद्‍गण गमन करते है, तब वे मध्य मार्ग मे ही परस्पर वार्ता करने लगते हैं। उनके शब्द को भला कौन नही सुन लेता है? (सभी सुन लेते है।)॥१३॥

४५५.प्र यात शीभमाशुभिः सन्ति कण्वेषु वो दुवः ।
तत्रो षु मादयाध्वै ॥१४॥
हे मरुतो! आप तीव्र वेग वाले वाहन से शीघ्र आएं, कण्ववंशी आपके सत्कार के लिए उपस्थित हैं। वहां आप उत्साह के साथ तृप्ति को प्राप्त हों॥१४॥

४५६.अस्ति हि ष्मा मदाय वः स्मसि ष्मा वयमेषाम् ।
विश्वं चिदायुर्जीवसे ॥१५॥
हे मरुतो! आपकी प्रसन्न्ता के लिए यह हवि-द्रव्य तैयार है। हम सम्पूर्ण आयु सुखद जीवन प्राप्त करने के लिए आपका स्मरण करते है॥१५॥

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