tag:blogger.com,1999:blog-23723002954195109672023-11-15T09:59:24.443-08:00वेदवेद अर्थात ज्ञान ! वेद हिन्दू धर्म के प्राचीन पवित्र ग्रंथों का नाम है । वेदों को श्रुति भी कहा जाता है। वेद प्राचीन भारत के वैदिक कालकी वाचिक परम्परा की अनुपम कृति है जो पीढी दर पीढी पिछले चार-पाँच हजार वर्षों से चली आ रही है ।Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.comBlogger50125tag:blogger.com,1999:blog-2372300295419510967.post-49118617885896472652011-07-07T18:57:00.000-07:002011-07-07T18:57:25.692-07:00ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ५०<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="text-align: center;"><b>[ऋषि- प्रस्कण्व काण्व । देवता - सूर्य (११-१३ रोगघ्न उपनिषद)। छन्द - गायत्री, १०-१३ अनुष्टुप् ]</b></div><br />
<b>५८७.उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः ।</b><br />
<b>दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥१॥</b><br />
ये ज्योतिर्मयी रश्मियाँ सम्पूर्ण प्राणियो के ज्ञाता सूर्यदेव को एवं समस्त विश्व को दृष्टि प्रदान करने के लिए विशेष रूप से प्रकाशित होती हैं॥१॥<br />
<br />
<b>५८८.अप त्ये तायवो यथा नक्षत्रा यन्त्यक्तुभिः ।</b><br />
<b>सूराय विश्वचक्षसे ॥२॥</b><br />
सबको प्रकाश देने वाले सूर्यदेव के उदित होते ही रात्रि के साथ तारा मण्डल वैसे ही छिप जाते है, जैसे चोर छिप जाते है॥२॥<br />
<br />
<b>५८९.अदृश्रमस्य केतवो वि रश्मयो जनाँ अनु ।</b><br />
<b>भ्राजन्तो अग्नयो यथा ॥३॥</b><br />
प्रज्वलित हुई अग्नि की किरणों के समान सूर्यदेव की प्रकाश रश्मियाँ सम्पूर्ण जीव-जगत को प्रकाशित करती हैं॥३॥<br />
<br />
<b>५९०.तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य ।</b><br />
<b>विश्वमा भासि रोचनम् ॥४॥</b><br />
हे सूर्यदेव ! आप साधको का उद्धार करने वाले हैं, समस्त संसार मे एक मात्र दर्शनीय प्रकाशक है तथा आप ही विस्तृत अंतरिक्ष को सभी ओर से प्रकाशित करते हैं॥४॥<br />
<br />
<b>५९१.प्रत्यङ्देवानां विशः प्रत्यङ्ङुदेषि मानुषान् ।</b><br />
<b>प्रत्यङ्विश्वं स्वर्दृशे ॥५॥</b><br />
हे सूर्यदेव ! मरुद्गणो, देवगणो, मनुष्यो और स्वर्गलोक वासियों के सामने आप नियमित रूप से उदित होते हैं, ताकि तीन लोको के निवासी आपका दर्शन कर सकें॥५॥<br />
<br />
<b>५९२.येना पावक चक्षसा भुरण्यन्तं जनाँ अनु ।</b><br />
<b>त्वं वरुण पश्यसि ॥६॥</b><br />
जिस दृष्टि अर्थात प्रकाश से आप प्राणियों को धारण-पोषण करने वाले इस लोक को प्रकाशित करते हैं, हम उस प्रकाश की स्तुति करतें हैं॥६॥<br />
<br />
<b>५९३.वि द्यामेषि रजस्पृथ्वहा मिमानो अक्तुभिः ।</b><br />
<b>पश्यञ्जन्मानि सूर्य ॥७॥</b><br />
हे सूर्यदेव ! आप दिन एवं रात मे समय को विभाजित करते हुए अन्तरिक्ष एवं द्युलोक मे भ्रमण करते है, जिसमे सभी प्राणियों को लाभ प्राप्त होता है॥७॥<br />
<br />
<b>५९४.सप्त त्वा हरितो रथे वहन्ति देव सूर्य ।</b><br />
<b>शोचिष्केशं विचक्षण ॥८॥</b><br />
हे सर्वद्रष्टा सूर्यदेव! आप तेजस्वी ज्वालाओ से युक्त दिव्यता को धारण करते हुए सप्तवर्णी किरणो रूपी अश्वो के रथ मे सुशोभित होते हैं॥८॥<br />
<br />
<b>५९५.अयुक्त सप्त शुन्ध्युवः सूरो रथस्य नप्त्यः ।</b><br />
<b>ताभिर्याति स्वयुक्तिभिः ॥९॥</b><br />
पवित्रता प्रदान करने वाले ज्ञान सम्पन्न ऊधर्वगामी सूर्यदेव अपने सप्तवर्णी अश्वो से(किरणो से) सुशोभित रथ मे शोभायमान होते हैं॥९॥<br />
<br />
<b>५९६.उद्वयं तमसस्परि ज्योतिष्पश्यन्त उत्तरम् ।</b><br />
<b>देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम् ॥१०॥</b><br />
तमिस्त्रा से दूर श्रेष्ठतम ज्योति को देखते हुए हम ज्योति स्वरूप और देवो मे उत्कृष्ठतम ज्योति(सूर्य) को प्राप्त हों॥१०॥<br />
<br />
<b>५९७.उद्यन्नद्य मित्रमह आरोहन्नुत्तरां दिवम् ।</b><br />
<b>हृद्रोगं मम सूर्य हरिमाणं च नाशय ॥११॥</b><br />
हे मित्रो के मित्र सूर्यदेव! आप उदित होकर आकाश मे उठते हुए हृदयरोग, शरीर की कान्ति का हरण करने वाले रोगों को नष्ट करें॥११॥<br />
<br />
<b>५९८.शुकेषु मे हरिमाणं रोपणाकासु दध्मसि ।</b><br />
<b>अथो हारिद्रवेषु मे हरिमाणं नि दध्मसि ॥१२॥</b><br />
हम अपने हरिमाण(शरीर को क्षीण करने वाले रोग) को शुको(तोतों), रोपणाका(वृक्षों) एवं हरिद्रवो (हरी वनस्पतियों) मे स्थापित करते हैं॥१२॥<br />
<br />
<b>५९९.उदगादयमादित्यो विश्वेन सहसा सह ।</b><br />
<b>द्विषन्तं मह्यं रन्धयन्मो अहं द्विषते रधम् ॥१३॥</b><br />
हे सूर्यदेव अपने सम्पूर्ण तेजों से उदित होकर हमारे सभी रोगो को वशवर्ती करें। हम उन रोगो के वश मे कभी न आयें॥१३॥<br />
<div><br />
</div></div>Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-2372300295419510967.post-65253238060090684362011-07-06T18:19:00.000-07:002011-07-06T18:19:02.083-07:00ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ४९<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="text-align: center;"><b>[ऋषि- प्रस्कण्व काण्व । देवता - उषा । छन्द - अनुष्टुप् ]</b></div><b>५८३.उषो भद्रेभिरा गहि दिवश्चिद्रोचनादधि ।</b><br />
<b>वहन्त्वरुणप्सव उप त्वा सोमिनो गृहम् ॥१॥</b><br />
हे देवी उषे! द्युलोक के दीप्तिमान स्थान से कल्याणकारी मार्गो द्वारा आप यहाँ आयें। अरुणिम वर्ण के अश्व आपको सोमयाग करनेवाले के घर पहुँचाएँ॥१॥<br />
<br />
<b>५८४.सुपेशसं सुखं रथं यमध्यस्था उषस्त्वम् ।</b><br />
<b>तेना सुश्रवसं जनं प्रावाद्य दुहितर्दिवः ॥२॥</b><br />
हे आकाशपुत्री उषे ! आप जिस सुन्दर सुखप्रद रथ पर आरूढ़ है, उसी रथ से उत्तम हवि देने वाले याजक की सब प्रकार से रक्षा करें॥२॥<br />
<br />
<b>५८५.वयश्चित्ते पतत्रिणो द्विपच्चतुष्पदर्जुनि ।</b><br />
<b>उषः प्रारन्नृतूँरनु दिवो अन्तेभ्यस्परि ॥३॥</b><br />
हे देदीप्यमान उषादेवि! आपके आकाशमण्डल पर उदित होने के बाद मानव पशु एवं पक्षी अन्तरिक्ष मे दूर दूर तक स्वेच्छानुसार विचरण करते हुए दिखायी देते हैं॥३॥<br />
<br />
<b>५८६.व्युच्छन्ती हि रश्मिभिर्विश्वमाभासि रोचनम् ।</b><br />
<b>तां त्वामुषर्वसूयवो गीर्भिः कण्वा अहूषत ॥४॥</b><br />
हे उषादेवी ! उदित होते हुए आप अपनी किरणो से सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित करती हैं। धन की कामना वाले कण्व वंशज आपका आवाहन करते हैं॥४॥<br />
</div>Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2372300295419510967.post-55649496192243045702011-06-30T17:38:00.000-07:002011-06-30T17:38:11.065-07:00ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ४८<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="text-align: center;"><b>[ऋषि - प्रस्कण्व काण्व । देवता - उषा। छन्द - बाहर्त प्रगाथ (विषमा बृहती, समासतो बृहती)।]</b></div><br />
<b>५६७.सह वामेन न उषो व्युच्छा दुहितर्दिवः ।</b><br />
<b>सह द्युम्नेन बृहता विभावरि राया देवि दास्वती ॥१॥</b><br />
हे आकाशपुत्री उषे! उत्तम तेजस्वी,दान देने वाली, धनो और महान ऐश्वर्यों से युक्त होकर आप हमारे सम्मुख प्रकट हों, अर्थात हमे आपका अनुदान- अनुग्रह होता रहे॥१॥<br />
<br />
<b>५६८.अश्वावतीर्गोमतीर्विश्वसुविदो भूरि च्यवन्त वस्तवे ।</b><br />
<b>उदीरय प्रति मा सूनृता उषश्चोद राधो मघोनाम् ॥२॥</b><br />
अश्व, गौ आदि (पशुओं अथवा संचारित होने वाली एवं पोषक किरणों) से सम्पन्न धन्य धान्यों को प्रदान करने वाली उषाएँ प्राणिमात्र के कल्याण के लिए प्रकाशित हुई हैं। हे उषे! कल्याणकारी वचनो के साथ आप हमारे लिए उपयुक्त धन वैभव प्रदान करें॥२॥<br />
<br />
<b>५६९.उवासोषा उच्छाच्च नु देवी जीरा रथानाम् ।</b><br />
<b>ये अस्या आचरणेषु दध्रिरे समुद्रे न श्रवस्यवः ॥३॥</b><br />
जो देवी उषा पहले भी निवास कर चुकी हैं, वह रथो को चलाती हुई अब भी प्रकट हो। जैसे रत्नो की कामना वाले मनुष्य समुद्र की ओर मन लगाये रहते हैं; वैसे ही हम देवी उषा के आगमन की प्रतिक्षा करते हैं॥३॥<br />
<br />
<b>५७०.उषो ये ते प्र यामेषु युञ्जते मनो दानाय सूरयः ।</b><br />
<b>अत्राह तत्कण्व एषां कण्वतमो नाम गृणाति नृणाम् ॥४॥</b><br />
हे उषे! आपके आने के समय जो स्तोता अपना मन, धनादि दान करने मे लगाते है, उसी समय अत्यन्त मेधावी कण्व उन मनुष्यों के प्रशंसात्मक स्तोत्र गाते हैं॥४॥<br />
<br />
<b>५७१.आ घा योषेव सूनर्युषा याति प्रभुञ्जती ।</b><br />
<b>जरयन्ती वृजनं पद्वदीयत उत्पातयति पक्षिणः ॥५॥</b><br />
उत्तम गृहिणी स्त्री के समान सभी का भलीप्रकार पालन करने वाली देवी उषा जब आयी है, तो निर्बलो को शक्तिशाली बना देती हैं, पाँव वाले जीवो को कर्म करने के लिए प्रेरित करती है और पक्षियों को सक्रिय होने की प्रेरणा देती है॥५॥<br />
<br />
<br />
<b>५७२.वि या सृजति समनं व्यर्थिनः पदं न वेत्योदती ।</b><br />
<b>वयो नकिष्टे पप्तिवांस आसते व्युष्टौ वाजिनीवति ॥६॥</b><br />
देवी उषा सबके मन को कर्म करने के लिए प्रेरित करती हैं तथा धन इच्छुको को पुरुषार्थ के लिए भी प्रेरणा देती है। ये जीवन दात्री देवी उषा निरन्तर गतिशील रहती हैं। हे अन्नदात्री उषे! आपके प्रकाशित होने पर पक्षी अपने घोसलों मे बैठे नही रहते॥६॥<br />
<br />
<b>५७३.एषायुक्त परावतः सूर्यस्योदयनादधि ।</b><br />
<b>शतं रथेभिः सुभगोषा इयं वि यात्यभि मानुषान् ॥७॥</b><br />
हे देवी उषा सूर्य के उदयस्थान से दूरस्थ देशो को भी जोड़ देती हैं। ये सौभाग्यशालिनी देवी उषा मनुष्य लोक की ओर सैंकड़ो रथो द्वारा गमन करती हैं॥७॥<br />
<br />
<b>५७४.विश्वमस्या नानाम चक्षसे जगज्ज्योतिष्कृणोति सूनरी ।</b><br />
<b>अप द्वेषो मघोनी दुहिता दिव उषा उच्छदप स्रिधः ॥८॥</b><br />
सम्पूर्ण जगत इन देवी उषा के दर्शन करके झुककर उन्हे नमन करता है। प्रकाशिका, उत्तम मार्गदर्शिका, ऐश्वर्य सम्पन्न आकाश पुत्री देवी उषा, पीड़ा पहुँचाने वाले हमारे बैरियों को दूर हटाती हैं॥८॥<br />
<br />
<b>५७५.उष आ भाहि भानुना चन्द्रेण दुहितर्दिवः ।</b><br />
<b>आवहन्ती भूर्यस्मभ्यं सौभगं व्युच्छन्ती दिविष्टिषु ॥९॥</b><br />
हे आकाशपुत्री उषे! आप आह्लादप्रद दीप्ती से सर्वत्र प्रकाशित हों। हमारे इच्छित स्वर्ग-सुख युक्त उत्त्म सौभाग्य को ले आयें और दुर्भाग्य रूपी तमिस्त्रा को दूर करें॥९॥<br />
<br />
<b>५७६.विश्वस्य हि प्राणनं जीवनं त्वे वि यदुच्छसि सूनरि ।</b><br />
<b>सा नो रथेन बृहता विभावरि श्रुधि चित्रामघे हवम् ॥१०॥</b><br />
हे सुमार्ग प्रेरक उषे! उदित होने पर आप ही विश्व के प्राणियो का जीवन आधार बनती हैं। विलक्षण धन वाली, कान्तिमती हे उषे! आप अपने बृहत रथ से आकर हमारा आवाह्न सुनें॥१०॥<br />
<br />
<b>५७७.उषो वाजं हि वंस्व यश्चित्रो मानुषे जने ।</b><br />
<b>तेना वह सुकृतो अध्वराँ उप ये त्वा गृणन्ति वह्नयः ॥११॥</b><br />
हे उषादेवि! मनुष्यो के लिये विविध अन्न-साधनो की वृद्धि करें। जो याजक आपकी स्तुतियाँ करते है, उनके इन उत्तम कर्मो से संतुष्ट होकर उन्हें यज्ञीय कर्मो की ओर प्रेरित करें॥११॥<br />
<br />
<b>५७८.विश्वान्देवाँ आ वह सोमपीतयेऽन्तरिक्षादुषस्त्वम् ।</b><br />
<b>सास्मासु धा गोमदश्वावदुक्थ्यमुषो वाजं सुवीर्यम् ॥१२॥</b><br />
हे उषे! सोमपान के लिए अंतरिक्ष से सब देवों को यहाँ ले आयें। आप हमे अश्वों, गौओ से युक्त धन और पुष्टिप्रद अन्न प्रदान करें॥१२॥<br />
<br />
<b>५७९.यस्या रुशन्तो अर्चयः प्रति भद्रा अदृक्षत ।</b><br />
<b>सा नो रयिं विश्ववारं सुपेशसमुषा ददातु सुग्म्यम् ॥१३॥</b><br />
जिन देवी उषा की दीप्तीमान किरणे मंगलकारी प्रतिलक्षित होती हैं, वे देवी उषा हम सबके लिए वरणीय, श्रेष्ठ, सुखप्रद धनो को प्राप्त करायें॥१३॥<br />
<br />
<b>५८०.ये चिद्धि त्वामृषयः पूर्व ऊतये जुहूरेऽवसे महि ।</b><br />
<b>सा न स्तोमाँ अभि गृणीहि राधसोषः शुक्रेण शोचिषा ॥१४॥</b><br />
हे श्रेष्ठ उषादेवि! प्राचीन ऋषि आपको अन्न और संरक्षण प्राप्ति के लिये बुलाते थे। आप यश और तेजस्विता से युक्त होकर हमारे स्तोत्रो को स्वीकार करें॥१४॥<br />
<br />
<b>५८१.उषो यदद्य भानुना वि द्वारावृणवो दिवः ।</b><br />
<b>प्र नो यच्छतादवृकं पृथु च्छर्दिः प्र देवि गोमतीरिषः ॥१५॥</b><br />
हे देवी उषे! आपने अपने प्रकाश से आकाश के दोनो द्वारों को खोल दिया है। अब आप हमे हिंसको से रक्षित, विशाल आवास और दुग्धादि युक्त अन्नो को प्रदान करें॥१५॥<br />
<br />
<b>५८२.सं नो राया बृहता विश्वपेशसा मिमिक्ष्वा समिळाभिरा ।</b><br />
<b>सं द्युम्नेन विश्वतुरोषो महि सं वाजैर्वाजिनीवति ॥१६॥</b><br />
हे देवी उषे! आप हमें सम्पूर्ण पुष्टिप्रद महान धनो से युक्त करें, गौओं से युक्त करें। अन्न प्रदान करने वाली, श्रेष्ठ हे देवी उषे! आप हमे शत्रुओं का संहार करने वाला बल देकर अन्नो से संयुक्त करें॥१६॥<br />
</div>Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2372300295419510967.post-40580227097191129862011-06-29T18:48:00.000-07:002011-06-29T18:48:06.045-07:00ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ४७<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="text-align: center;"><b>[ऋषि- प्रस्कण्व काण्व । देवता - अश्विनीकुमार । छन्द - बाहर्त प्रगाथ (विषमा बृहती, समासतो बृहती)।]</b></div><div style="text-align: center;"><br />
</div><b>५५७.अयं वां मधुमत्तमः सुतः सोम ऋतावृधा ।</b><br />
<b>तमश्विना पिबतं तिरोअह्न्यं धत्तं रत्नानि दाशुषे ॥१॥</b><br />
हे यज्ञ कर्म का विस्तार करने वाले अश्विनीकुमारो ! अपने इस यज्ञ मे अत्यन्त मधुर तथा एक दिन पूर्व शोधित सोमरस का आप सेवन करें । यज्ञकर्ता यजमान को रत्न एवं ऐश्वर्य प्रदान करें॥१॥<br />
<br />
<b>५५८.त्रिवन्धुरेण त्रिवृता सुपेशसा रथेना यातमश्विना ।</b><br />
<b>कण्वासो वां ब्रह्म कृण्वन्त्यध्वरे तेषां सु शृणुतं हवम् ॥२॥</b><br />
हे अश्विनीकुमारो ! तीन वृत्त युक्त(त्रिकोण), तीन अवलम्बन वाले अति सुशोभित रथ से यहाँ आयें। यज्ञ मे कण्व वंशज आप दोनो के लिए मंत्र युक्त स्तुतियाँ करते हैं, उनके आवाहन को सुनें॥२॥<br />
<br />
<b>५५९.अश्विना मधुमत्तमं पातं सोममृतावृधा ।</b><br />
<b>अथाद्य दस्रा वसु बिभ्रता रथे दाश्वांसमुप गच्छतम् ॥३॥</b><br />
हे शत्रुनाशक, यज्ञ वर्द्धक अश्विनीकुमारो ! अत्यन्त मीठे सोमरस का पान करें। आज रथ मे धनो को धारण कर हविदाता यजमान के समीप आयें॥३॥<br />
<br />
<b>५६०.त्रिषधस्थे बर्हिषि विश्ववेदसा मध्वा यज्ञं मिमिक्षतम् ।</b><br />
<b>कण्वासो वां सुतसोमा अभिद्यवो युवां हवन्ते अश्विना ॥४॥</b><br />
हे सर्वज्ञ अश्विनीकुमारो ! तीन स्थानो पर रखे हुए कुश-आसन पर अधिष्ठित होकर आप यज्ञ का सिंचन करें। स्वर्ग की कामना वाले कण्व वंशज सोम को अभिषुत कर आप दोनो को बुलातें हैं॥४॥<br />
<br />
<b>५६१.याभिः कण्वमभिष्टिभिः प्रावतं युवमश्विना ।</b><br />
<b>ताभिः ष्वस्माँ अवतं शुभस्पती पातं सोममृतावृधा ॥५॥</b><br />
यज्ञ को बढ़ाने वाले शुभ कर्मो के पोषक हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनो ने जिन इच्छित रक्षण-साधनो से कण्व की भली प्रकार रक्षा की, उन साधनो से हमारी भी भली प्रकार रक्षा करें और प्रस्तुत सोम रस का पान करें॥५॥<br />
<br />
<b>५६२.सुदासे दस्रा वसु बिभ्रता रथे पृक्षो वहतमश्विना ।</b><br />
<b>रयिं समुद्रादुत वा दिवस्पर्यस्मे धत्तं पुरुस्पृहम् ॥६॥</b><br />
शत्रुओं के लिए उग्ररूप धारण करने वाले हे अश्विनीकुमारो !रथ मे धनो को धारण कर आपने सुदास को अन्न पहुँचाया। उसी प्रकार अन्तरिक्ष या सागरों से लाकर बहुतो द्वारा वाञ्छित धन हमारे लिए प्रदान करें॥६॥<br />
<br />
<b>५६३.यन्नासत्या परावति यद्वा स्थो अधि तुर्वशे ।</b><br />
<b>अतो रथेन सुवृता न आ गतं साकं सूर्यस्य रश्मिभिः ॥७॥</b><br />
हे सत्य समर्थक अश्विनीकुमारो ! आप दूर हो या पास हों, वहाँ से उत्तम गतिमान रथ से सूर्य रश्मियों के साथ हमारे पास आयें॥७॥<br />
<br />
<b>५६४.अर्वाञ्चा वां सप्तयोऽध्वरश्रियो वहन्तु सवनेदुप ।</b><br />
<b>इषं पृञ्चन्ता सुकृते सुदानव आ बर्हिः सीदतं नरा ॥८॥</b><br />
हे देवपुरुषो अश्विनीकुमारो ! यज्ञ की शोभा बढ़ाने वाले आपके अश्व आप दोनो को सोमयाग के समीप ले आयें। उत्तम कर्म करनेवाले और दान देने वाले याजको के लिये अन्नो की पूर्ति करते हुए आप दोनो कुश के आसनो पर बैठें॥८॥<br />
<br />
<b>५६५.तेन नासत्या गतं रथेन सूर्यत्वचा ।</b><br />
<b>येन शश्वदूहथुर्दाशुषे वसु मध्वः सोमस्य पीतये ॥९॥</b><br />
हे सत्य समर्थक अश्विनीकुमारो ! सूर्य सदृश तेजस्वी जिस रथ से दाता याजको के लिए सदैव धन लाकर देते रहे हैं, उसी रथ से आप मीठे सोमरस पान के लिएं पधारें ॥९॥<br />
<br />
<b>५६६.उक्थेभिरर्वागवसे पुरूवसू अर्कैश्च नि ह्वयामहे ।</b><br />
<b>शश्वत्कण्वानां सदसि प्रिये हि कं सोमं पपथुरश्विना ॥१०॥</b><br />
हे विपुल धन वाले अश्विनीकुमारो ! अपनी रक्षा के निमित्त हम स्तोत्रो और पूजा-अर्चनाओं से बार बार आपका आवाहन करते है। कण्व वंशको की यज्ञ सभा मे आप सर्वदा सोमपान करते रहे हैं॥१०॥<br />
</div>Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2372300295419510967.post-10568237371122665502011-06-28T20:21:00.000-07:002011-06-28T20:21:33.710-07:00ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ४६<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="text-align: center;"><b>[ऋषि- प्रस्कण्व काण्व । देवता - अश्विनीकुमार । छन्द - गायत्री]</b></div><br />
<b>५४२.एषो उषा अपूर्व्या व्युच्छति प्रिया दिवः ।</b><br />
<b>स्तुषे वामश्विना बृहत् ॥१॥</b><br />
यह प्रिय अपूर्व(अलौकिक) देवी उषा आकाश के तम का नाश करती है। देवी उषा के कार्य मे सहयोगी हे अश्विनीकुमारो ! हम महान स्तोत्रो द्वारा आपकी स्तुति करते हैं॥१॥<br />
<br />
<b>५४३.या दस्रा सिन्धुमातरा मनोतरा रयीणाम् ।</b><br />
<b>धिया देवा वसुविदा ॥२॥</b><br />
हे अश्विनीकुमारो! आप शत्रुओं के नाशक एवं नदियों के उत्पत्तिकर्ता है। आप विवेकपूर्वक कर्म करने वालो को अपार सम्पति देने वाले हैं॥२॥<br />
<br />
<b>५४४.वच्यन्ते वां ककुहासो जूर्णायामधि विष्टपि ।</b><br />
<b>यद्वां रथो विभिष्पतात् ॥३॥</b><br />
हे अश्विनीकुमारो ! जब आपका रथ पक्षियों की तरह आकाश मे पहुँचता है, तब प्रशसनीय स्वर्गलोक मे भी आप के लिये स्तोत्रों का पाठ किया जाता है॥३॥<br />
<br />
<b>५४५.हविषा जारो अपां पिपर्ति पपुरिर्नरा ।</b><br />
<b>पिता कुटस्य चर्षणिः ॥४॥</b><br />
हे देवपुरुषो ! जलों को सुखाने वाले, पितारूप, कार्यद्रष्टा सूर्यदेव (हमारे द्वारा प्रदत्त) हवि से आपको संतुष्ट करते हैं,अर्थात सूर्यदेव प्राणिमात्र ले पोषण ले लिए अन्नादि पदार्थ उत्पन्न करके प्रकृति के विराट यज्ञ मे आहुति दे रहे हैं॥४॥<br />
<br />
<b>५४६.आदारो वां मतीनां नासत्या मतवचसा ।</b><br />
<b>पातं सोमस्य धृष्णुया ॥५॥</b><br />
असत्यहीन, मननपूर्वक वचन बोलने वाले हे अश्विनीकुमारों ! आप अपनी बुद्धि को प्रेरित करने वाले एवं संघर्ष शक्ति बढ़ाने वाले इस सोमरस का पान करें॥५॥<br />
<br />
<b>५४७.या नः पीपरदश्विना ज्योतिष्मती तमस्तिरः ।</b><br />
<b>तामस्मे रासाथामिषम् ॥६॥</b><br />
हे अश्विनीकुमारों ! जो पोषक अन्न हमारे जीवन के अंधकार को दूर कर प्रकाशित करने वाला हो, वह हमे प्रदान करें॥६॥<br />
<br />
<b>५४८.आ नो नावा मतीनां यातं पाराय गन्तवे ।</b><br />
<b>युञ्जाथामश्विना रथम् ॥७॥</b><br />
हे अश्विनीकुमारों ! आप दोनो अपना रथ नियोजितकर हमारे पास आयें। अपनी श्रेष्ठ बुद्धि से हमे दुःखो के सागर से पार ले चलें॥७॥<br />
<br />
<b>५४९.अरित्रं वां दिवस्पृथु तीर्थे सिन्धूनां रथः ।</b><br />
<b>धिया युयुज्र इन्दवः ॥८॥</b><br />
हे अश्विनीकुमारों ! आपके आवागमन के साधन द्युलोक (की सीमा) से भी विस्तृत हैं। (तीनो लोकों मे आपकी गति है।) नदियों, तीर्थ प्रदेशो मे भी आपके साधन है,(पृथ्वी पर भी) आपके लिये रथ तैयार है। (आप किसी भी साधन से पहुँचने मे समर्थ हैं।) आप के लिये यहाँ विचारयुक्त कर्म द्वारा सोमरस तैयार किया गया है॥८॥<br />
<br />
<b>५५०.दिवस्कण्वास इन्दवो वसु सिन्धूनां पदे ।</b><br />
<b>स्वं वव्रिं कुह धित्सथः ॥९॥</b><br />
कण्व वंशजो द्वारा तैयार सोम दिव्यता से परिपूर्ण है। नदियो के तट पर ऐश्वर्य रखा है। हे अश्विनीकुमारो ! अब आप अपना स्वरूप कहाँ प्रदर्शित करना चाहते हैं?॥९॥<br />
<br />
<b>५५१.अभूदु भा उ अंशवे हिरण्यं प्रति सूर्यः ।</b><br />
<b>व्यख्यज्जिह्वयासितः ॥१०॥</b><br />
अमृतमयी किरणो वाले हे सूर्यदेव! अपनी आभा से स्वर्णतुल्य प्रकट हो रहे हैं। इसी समय श्यामल अग्निदेव, ज्वालारूप जिह्वा से विशेष प्रकाशित हो चुके हैं। हे अश्विनीकुमारो ! यही आपके शुभागमन का समय है॥१०॥<br />
<br />
<b>५५२.अभूदु पारमेतवे पन्था ऋतस्य साधुया ।</b><br />
<b>अदर्शि वि स्रुतिर्दिवः ॥११॥</b><br />
द्युलोक से अंधकार को पार करती हुई, विशिष्ट प्रभा प्रकट होने लगी है, जिससे यज्ञ के मार्ग अच्छी तरह से प्रकाशित हुए हैं। अतः हे अश्विनीकुमारो ! आपको आना चाहिये॥११॥<br />
<br />
<b>५५३.तत्तदिदश्विनोरवो जरिता प्रति भूषति ।</b><br />
<b>मदे सोमस्य पिप्रतोः ॥१२॥</b><br />
सोम के हर्ष से पूर्ण होने वाले अश्विनीकुमारो के उत्तम संरक्षण का स्तोतागण भली प्रकार वर्णन करते हैं॥१२॥<br />
<br />
<b>५५४.वावसाना विवस्वति सोमस्य पीत्या गिरा ।</b><br />
<b>मनुष्वच्छम्भू आ गतम् ॥१३॥</b><br />
हे दीप्तीमान(यजमानो के) मन मे निवास करने वाले, सुखदायक अश्विनीकुमारो ! मनु के समान श्रेष्ठ परिचर्या करने वाले यजमान के समीप निवास करने वाले(सुखप्रदान करने वाले हे अश्विनीकुमारो !) आप दोनो सोमपान के निमित्त एवं स्तुतियों के निमित्त इस याग मे पधारें॥१३॥<br />
<br />
<b>५५५.युवोरुषा अनु श्रियं परिज्मनोरुपाचरत् ।</b><br />
<b>ऋता वनथो अक्तुभिः ॥१४॥</b><br />
हे अश्विनीकुमारों ! चारो ओर गमन करने वाले आप दोनो की शोभा के पीछे पीछे देवी उषा अनुगमन कर रहीं हैं। आप रात्रि मे भी यज्ञों का सेवन करतें है॥१४॥<br />
<br />
<b>५५६.उभा पिबतमश्विनोभा नः शर्म यच्छतम् ।</b><br />
<b>अविद्रियाभिरूतिभिः ॥१५॥</b><br />
हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनो सोमरस का पान करें। आलस्य न करते हुये हमारी रक्षा करें तथा हमे सुख प्रदान करें॥१५॥<br />
</div>Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2372300295419510967.post-56760179526656584742011-06-26T17:01:00.000-07:002011-06-26T17:01:12.825-07:00ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ४५<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="text-align: center;"><b>[ऋषि- प्रस्कण्व काण्व । देवता - अग्नि, १० उत्तरार्ध- देवगण । छन्द अनुष्टुप् ]</b></div><br />
<b>५३२.त्वमग्ने वसूँरिह रुद्राँ आदित्याँ उत ।</b><br />
<b>यजा स्वध्वरं जनं मनुजातं घृतप्रुषम् ॥१॥</b><br />
वसु रुद्र और आदित्य आदि देवताओं की प्रसन्नता के निमित्त यज्ञ करने वाले हे अग्निदेव! आप घृताहुति से श्रेष्ठ यज्ञ सम्पन्न करने वाले मनु संतानो का सत्कार करें॥१॥<br />
<br />
<b>५३३.श्रुष्टीवानो हि दाशुषे देवा अग्ने विचेतसः ।</b><br />
<b>तान्रोहिदश्व गिर्वणस्त्रयस्त्रिंशतमा वह ॥२॥</b><br />
हे अग्निदेव! विशिष्ट ज्ञान सम्पन्न देवगण, हविदाता के लिए उत्तम सुख देते हैं। हे रोहित वर्ण अश्व वाके(अर्थात रक्तवर्ण की ज्वालाओं से सुशोभित) स्तुत्य अग्निदेव! उन तैंतीस कोटि देवों को यहाँ यज्ञस्थल पर लेकर आयें॥२॥<br />
<br />
<b>५३४.प्रियमेधवदत्रिवज्जातवेदो विरूपवत् ।</b><br />
<b>अङ्गिरस्वन्महिव्रत प्रस्कण्वस्य श्रुधी हवम् ॥३॥</b><br />
हे श्रेष्ठकर्मा ज्ञान सम्पन्न अग्निदेव! जैसे आपने प्रियमेधा, अत्रि, विरूप और अंगिरा के आवाहनो को सुना था वैसे ही अब प्रस्कण्व के आवाहन को भी सुनें॥३॥<br />
<br />
<b>५३५.महिकेरव ऊतये प्रियमेधा अहूषत ।</b><br />
<b>राजन्तमध्वराणामग्निं शुक्रेण शोचिषा ॥४॥</b><br />
दिव्य प्रकाश से युक्त अग्निदेव यज्ञ मे तेजस्वी रूप मे प्रदिप्त हुए। महान कर्मवाले प्रियमेधा ऋषियों ने अपनी रक्षा के निमित्त अग्निदेव का आवाहन किया॥४॥<br />
<br />
<b>५३६.घृताहवन सन्त्येमा उ षु श्रुधी गिरः ।</b><br />
<b>याभिः कण्वस्य सूनवो हवन्तेऽवसे त्वा ॥५॥</b><br />
घृत आहुति भक्षक हे अग्निदेव! कण्व के वंशज, अपनी रक्षा के लिए जो स्तुतियाँ करते है, उन्ही स्तुतियों को आप सम्यक रूप से सुने॥।५॥<br />
<br />
<b>५३७.त्वां चित्रश्रवस्तम हवन्ते विक्षु जन्तवः ।</b><br />
<b>शोचिष्केशं पुरुप्रियाग्ने हव्याय वोळ्हवे ॥६॥</b><br />
प्रेमपूर्वक हविष्य को ग्रहण करने वाले हे यशस्वी अग्निदेव! आप आश्चर्यजनक वैभव से सम्पन्न हैं। सम्पूर्ण मनुष्य एवं ऋत्विग्गण यज्ञ सम्पादन के निमित्त आपका आवाहन करते हुए हवि समर्पित करते हैं॥६॥<br />
<br />
<b>५३८.नि त्वा होतारमृत्विजं दधिरे वसुवित्तमम् ।</b><br />
<b>श्रुत्कर्णं सप्रथस्तमं विप्रा अग्ने दिविष्टिषु ॥७॥</b><br />
हे अग्निदेव! होता रूप,ऋत्विजरूप, धन को धारण करने वाले स्तुति सुनने वाले, महान यशस्वी आपको विद्वज्जन स्वर्ग की कामना से यज्ञा मे स्थापित करते हैं॥७॥<br />
<br />
<b>५३९.आ त्वा विप्रा अचुच्यवुः सुतसोमा अभि प्रयः ।</b><br />
<b>बृहद्भा बिभ्रतो हविरग्ने मर्ताय दाशुषे ॥८॥</b><br />
हे अग्निदेव! हविष्यान्न और सोम को तैयार रखने वाले विद्वान, दानशील याजक के लिये महान तेजस्वी आपको स्थापित करते है॥८॥<br />
<br />
<b>५४०.प्रातर्याव्णः सहस्कृत सोमपेयाय सन्त्य ।</b><br />
<b>इहाद्य दैव्यं जनं बर्हिरा सादया वसो ॥९॥</b><br />
हे बल उत्पादक अग्निदेव! आप धनो के स्वामी और दानशील हैं। आज प्रातःकाल सोमपान के निमित्त यहाँ यज्ञस्थल पर आने को उद्यत देवो को बुलाकर कुश के आसनो पर बिठायें॥९॥<br />
<br />
<b>५४१.अर्वाञ्चं दैव्यं जनमग्ने यक्ष्व सहूतिभिः ।</b><br />
<b>अयं सोमः सुदानवस्तं पात तिरोअह्न्यम् ॥१०॥</b><br />
हे अग्निदेव! यज्ञ के सम्क्ष प्रत्यक्ष उपस्थित देवगणो का उत्तम वचनो से अभिवादन कर यजन करें। हे श्रेष्ठ देवो! यह सोम आपके लिए प्रस्तुत है, इसका पान करें॥१०॥<br />
</div>Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2372300295419510967.post-53041230215772330462011-06-13T16:56:00.000-07:002011-06-29T18:25:30.195-07:00ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ४४<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="text-align: center;"><b>[ऋषि - प्रस्कण्व काण्व। देवता - अग्नि, १-२ अग्नि,अश्विनीकुमार, उषा। छन्द बाहर्त प्रगाथ(विषमा बृहती, समासतो बृहती)।]</b></div><br />
<b>५१८.अग्ने विवस्वदुषसश्चित्रं राधो अमर्त्य ।</b><br />
<b>आ दाशुषे जातवेदो वहा त्वमद्या देवाँ उषर्बुधः ॥१॥</b><br />
हे अमर अग्निदेव! उषा काल मे विलक्षण शक्तियां प्रवाहित होती हैं, यह दैवी सम्पदा नित्यदान करने वाले व्यक्ति को दें। हे सर्वज्ञ ! उषाकाल मे जाग्रत हुए देवताओं को भी यहां लायें॥१॥<br />
<br />
<b>५१९.जुष्टो हि दूतो असि हव्यवाहनोऽग्ने रथीरध्वराणाम् ।</b><br />
<b>सजूरश्विभ्यामुषसा सुवीर्यमस्मे धेहि श्रवो बृहत् ॥२॥</b><br />
हे अग्निदेव! आप सेवा के योग्य देवों तक हवि पहुंचाने वाले दूत और यज्ञ मे देवो को लाने वाले रथ के समान हैं। आप अश्विनिकुमारो और देवी उषा के साथ हमे श्रेष्ठ, पराक्रमी एवं यशस्वी बनायें॥२॥<br />
<br />
<b>५२०.अद्या दूतं वृणीमहे वसुमग्निं पुरुप्रियम् ।</b><br />
<b>धूमकेतुं भाऋजीकं व्युष्टिषु यज्ञानामध्वरश्रियम् ॥३॥</b><br />
उषाकाल मे सम्पन्न होने वाले यज्ञ, जो धूम्र की पताका एवं ज्वालाओ से सुशोभित है, ऐसे सर्वप्रिय देवदूत, सबके आश्रय एवं महान अग्निदेव को हम ग्रहण करते हैं और श्री सम्पन्न बनते हैं॥३॥<br />
<br />
<b>५२१.श्रेष्ठं यविष्ठमतिथिं स्वाहुतं जुष्टं जनाय दाशुषे ।</b><br />
<b>देवाँ अच्छा यातवे जातवेदसमग्निमीळे व्युष्टिषु ॥४॥</b><br />
हम सर्वश्रेष्ठ, अतियुवा, अतिथिरूप, वन्दनीय, हविदाता, यजमान द्वारा पूजनीय, आहवनीय, सर्वज्ञ अग्निदेव की प्रतिदिन स्तुति करते हैं। वे हमे देवत्व की ओर ले चलें॥४॥<br />
<br />
<b>५२३.स्तविष्यामि त्वामहं विश्वस्यामृत भोजन ।</b><br />
<b>अग्ने त्रातारममृतं मियेध्य यजिष्ठं हव्यवाहन ॥५॥</b><br />
अविनाशी, सबको जीवन(भोजन) देने वाले, हविवाहक, विश्व का त्राण करने वाले, सबके आराध्य, युवा हे अग्निदेव! हम आपकी स्तुति करते हैं॥५॥<br />
<br />
<b>५२४.सुशंसो बोधि गृणते यविष्ठ्य मधुजिह्वः स्वाहुतः ।</b><br />
<b>प्रस्कण्वस्य प्रतिरन्नायुर्जीवसे नमस्या दैव्यं जनम् ॥६॥</b><br />
मधुर जिह्वावाले, याजको की स्तुति के पात्र, हे तरुण अग्निदेव ! भली प्रकार आहुतियां प्राप्त करते हुए आप याजको की आकांक्षा को जाने। प्रस्कण्व(ज्ञानियों) को दीर्घ जीवन प्रदान करते हुए आप देवगणो को सम्मानित करें॥६॥<br />
<br />
<b>५२५.होतारं विश्ववेदसं सं हि त्वा विश इन्धते ।</b><br />
<b>स आ वह पुरुहूत प्रचेतसोऽग्ने देवाँ इह द्रवत् ॥७॥</b><br />
होता रूप सर्वभूतो के ज्ञाता,हे अग्निदेव! आपको मनुष्यगण सम्यक रूप से प्रज्वलित करते हैं। बहुतो द्वारा अहूत किये जाने वाले हे अग्निदेव! प्रकृष्ट ज्ञान सम्पन्न देवो को त्रीव गति से यज्ञ मे लायें॥७॥<br />
<br />
<b>५२६.सवितारमुषसमश्विना भगमग्निं व्युष्टिषु क्षपः ।</b><br />
<b>कण्वासस्त्वा सुतसोमास इन्धते हव्यवाहं स्वध्वर ॥८॥</b><br />
श्रेष्ठ यज्ञों को सम्पन्न कराने वाले हे अग्निदेव! रात्रि के पश्चात उषाकाल मे आप सविता, उषा, दोनो अश्विनीकुमारो, भग और अन्य देवों के साथ यहां आयें। सोम को अभिषुत करने वाले ततहा हवियों को पहुंचाने वाले ऋत्विग्गण आपको प्रज्वलित करते है॥८॥<br />
<br />
<b>५२७.पतिर्ह्यध्वराणामग्ने दूतो विशामसि ।</b><br />
<b>उषर्बुध आ वह सोमपीतये देवाँ अद्य स्वर्दृशः ॥९॥</b><br />
हे अग्निदेव! आप साधको द्वारा सम्पन्न होने वाले यज्ञो के अधिपति और देवों के दूत हैं। उषाकाल मे जाग्रत देव आत्माओं को आज सोमपान के निमित्त यहां यज्ञस्थल पर लायें॥९॥<br />
<br />
<b>५२८.अग्ने पूर्वा अनूषसो विभावसो दीदेथ विश्वदर्शतः ।</b><br />
<b>असि ग्रामेष्वविता पुरोहितोऽसि यज्ञेषु मानुषः ॥१०॥</b><br />
हे विशिष्ट दीप्तिमान अग्निदेव! विश्वदर्शनीय आप उषाकाल के पूर्व ही प्रदीप्त होते है। आप ग्रामो की रक्षा करने वाले तथा यज्ञों , मानवो के अग्रनी नेता के समान पूजनीय हैं॥१०॥<br />
<br />
<b>५२९.नि त्वा यज्ञस्य साधनमग्ने होतारमृत्विजम् ।</b><br />
<b>मनुष्वद्देव धीमहि प्रचेतसं जीरं दूतममर्त्यम् ॥११॥</b><br />
हे अग्निदेव! हम मनुष्यो की भांति आपको यज्ञ के साधन रूप, होता रूप, ऋत्विज रूप, प्रकृष्ट ज्ञानी रूप, चिर पुरातन और अविनाशी रूप मे स्थापित करतें है॥११॥<br />
<br />
<b>५३०.यद्देवानां मित्रमहः पुरोहितोऽन्तरो यासि दूत्यम् ।</b><br />
<b>सिन्धोरिव प्रस्वनितास ऊर्मयोऽग्नेर्भ्राजन्ते अर्चयः ॥१२॥</b><br />
हे मित्रो मे महान अग्निदेव! आप जब यज्ञ के पुरोहित रूप मे देवों के बीच दूत कर्म के निमित्त जाते हैं, तब आपकी ज्वालायें समुद्र की प्रचण्ड लहरो के समान शब्द करती प्रदीप्त होती हैं ॥१२॥<br />
<br />
<b>५३१.श्रुधि श्रुत्कर्ण वह्निभिर्देवैरग्ने सयावभिः ।</b><br />
<b>आ सीदन्तु बर्हिषि मित्रो अर्यमा प्रातर्यावाणो अध्वरम् ॥१३॥</b><br />
प्रार्थना पर ध्यान देने वाले हे अग्निदेव! आप हमारी स्तुति स्वीकार करें। दिव्य अग्निदेव के साथ समान गति से चलने वाले, मित्र और अर्यमा आदि देवगण भी प्रातःकालीन यज्ञ मे आसीन हों॥१३॥<br />
<br />
<b>५३२.शृण्वन्तु स्तोमं मरुतः सुदानवोऽग्निजिह्वा ऋतावृधः ।</b><br />
<b>पिबतु सोमं वरुणो धृतव्रतोऽश्विभ्यामुषसा सजूः ॥१४॥</b><br />
उत्तम दानशील, अग्निरूप जिह्वा से यज्ञ को प्रवृद्ध करने वाले मरुद्गण इन स्तोत्रो का श्रवण करें। नियमपालक वरुणदेव, अश्विनीकुमारो और देवी उषा के साथ सोमरस का पान करें॥१४॥</div>Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-2372300295419510967.post-76379612899965707632011-06-07T18:43:00.000-07:002011-06-07T18:43:20.784-07:00ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ४३<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="text-align: center;"><b>[ऋषि - कण्व धौर । देवता - रुद्र,३-रुद्र मित्रावरुण,७-९ सोम । छन्द - गायत्री, ९ अनुष्टुप।]</b></div><br />
<b>५०९.कद्रुद्राय प्रचेतसे मीळ्हुष्टमाय तव्यसे ।</b><br />
<b>वोचेम शंतमं हृदे ॥१॥</b><br />
विशिष्ट ज्ञान से सम्पन्न, सुखी एवं बलशाली रूद्रदेव के निमित्त किन सुखप्रद स्तोत्रो का पाठ करें ॥१॥<br />
<br />
<b>५१०.यथा नो अदितिः करत्पश्वे नृभ्यो यथा गवे ।</b><br />
<b>यथा तोकाय रुद्रियम् ॥२॥</b><br />
अदिति हमारे लिये और हमारे पशुओं, सम्बन्धियों, गौओं और सन्तानो के लिये आरोग्य-वर्धक औषधियो का उपाय (अन्वेषण-व्यवस्था) करें॥२॥<br />
<br />
<b>५११.यथा नो मित्रो वरुणो यथा रुद्रश्चिकेतति ।</b><br />
<b>यथा विश्वे सजोषसः ॥३॥</b><br />
मित्र,वरुण और रूद्रदेव जिस प्रकार हमारे हितार्थ प्रयत्न करते हैं, उसी प्रकार अन्य समस्त देवगण भी हमारा कल्याण करें॥३॥<br />
<br />
<b>५१२.गाथपतिं मेधपतिं रुद्रं जलाषभेषजम् ।</b><br />
<b>तच्छंयोः सुम्नमीमहे ॥४॥</b><br />
हम सुखद जल एवं औषधियों से युक्त, स्तुतियों के स्वामी, रूद्रदेव से आरोग्यसुख की कामना करते हैं॥४॥<br />
<br />
<b>५१३.यः शुक्र इव सूर्यो हिरण्यमिव रोचते ।</b><br />
<b>श्रेष्ठो देवानां वसुः ॥५॥</b><br />
सूर्य सदृश सामर्थ्यवान ऐर स्वर्ण सदृश दीप्तिमान रूद्रदेव सभी देवो मे श्रेष्ठ और ऐश्वर्यवान है॥५॥<br />
<br />
<b>५१४.शं नः करत्यर्वते सुगं मेषाय मेष्ये ।</b><br />
<b>नृभ्यो नारिभ्यो गवे ॥६॥</b><br />
हमारे अश्वों, मेढो़, भेड़ो, पुरुषो, नारियो और गौओ के लिए वे रूद्रदेव सब प्रकार से मंगलकारी है॥६॥<br />
<br />
<b>५१५.अस्मे सोम श्रियमधि नि धेहि शतस्य नृणाम् ।</b><br />
<b>महि श्रवस्तुविनृम्णम् ॥७॥</b><br />
हे सोमदेव! हम मनुष्यो को सैकड़ो प्रकार का ऐश्वर्य, तेजयुक्त अन्न, बल और महान यश प्रदान करें ॥७॥<br />
<br />
<b>५१६.मा नः सोमपरिबाधो मारातयो जुहुरन्त ।</b><br />
<b>आ न इन्दो वाजे भज ॥८॥</b><br />
सोमयाग मे बाधा देने वाले शत्रु हमें प्रताड़ित न करें। कृपण और दुष्टो से हम पिड़ित न हों। हे सोमदेव! आप हमारे बल मे वृद्धि करें॥८॥<br />
<br />
<b>५१७.यास्ते प्रजा अमृतस्य परस्मिन्धामन्नृतस्य ।</b><br />
<b>मूर्धा नाभा सोम वेन आभूषन्तीः सोम वेदः ॥९॥</b><br />
<br />
हे सोमदेव! यज्ञ के श्रेष्ठ स्थान मे प्रतिष्ठित आप अंमृत से युक्त हैं। यजन कार्य मे सर्वोच्च स्थान पर विभूषित प्रज्ञा को आप जानें॥९॥</div>Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-2372300295419510967.post-13638913917047236772011-05-29T17:47:00.000-07:002011-05-29T17:47:17.710-07:00ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ४२<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<b>[ऋषि - कण्व धौर । देवता- पूषा । छन्द - गायत्री]</b><br />
<br />
<b>४९९.सं पूषन्नध्वनस्तिर व्यंहो विमुचो नपात् ।</b><br />
<b>सक्ष्वा देव प्र णस्पुरः ॥१॥</b><br />
हे पूषादेव ! हम पर सुखो को न्योछावर करें। पाप मार्गो से हमे पार लगाएं। हे देव ! हमे आगे बढा़ए॥१॥<br />
<br />
<b>५००.यो नः पूषन्नघो वृको दुःशेव आदिदेशति ।</b><br />
<b>अप स्म तं पथो जहि ॥२॥</b><br />
हे पूषादेव ! जो हिंसक, चोर जुआ खेलने वाले हम पर शासन करना चाहते है, उन्हे हम से दूर करें॥२॥<br />
<br />
<b>५०१.अप त्यं परिपन्थिनं मुषीवाणं हुरश्चितम् ।</b><br />
<b>दूरमधि स्रुतेरज ॥३॥</b><br />
हे पूषादेव ! मार्ग मे घात लगानेवाले तथा लूटनेवाले कुटिल चोर को हमारे मार्ग से दूर करके विनष्ट करें॥३॥<br />
<br />
<b>५०२.त्वं तस्य द्वयाविनोऽघशंसस्य कस्य चित् ।</b><br />
<b>पदाभि तिष्ठ तपुषिम् ॥४॥</b><br />
आप हर किसी दुहरी चाल चलने वाले कुटिल हिंसको के शरीर को पैरो से कुचलकर खड़े हों, अर्थात इन्हे दबाकर रखें, उन्हे बढने न दे॥४॥<br />
<br />
<b>५०३.आ तत्ते दस्र मन्तुमः पूषन्नवो वृणीमहे ।</b><br />
<b>येन पितॄनचोदयः ॥५॥</b><br />
हे दुष्ट नाशक, मनीषी पूषादेव ! हम अपनी रक्षा के निमित्त आपकी स्तुति करते हैं। आपके संरक्षण ने ही हमारे पितरों को प्रवृद्ध किया था॥५॥<br />
<br />
<b>५०४.अधा नो विश्वसौभग हिरण्यवाशीमत्तम ।</b><br />
<b>धनानि सुषणा कृधि ॥६॥</b><br />
हे सम्पूर्ण सौभाग्ययुक्त और स्वर्ण आभूषणो से युक्त पूषादेव! हमारे लिए सभी उत्तम धन एवं सामर्थ्यो को प्रदान करें॥६॥<br />
<br />
<b>५०५.अति नः सश्चतो नय सुगा नः सुपथा कृणु ।</b><br />
<b>पूषन्निह क्रतुं विदः ॥७॥</b><br />
हे पूषादेव ! कुटिल दुष्टो से हमे दूर ले चलें। हमे सुगम-सुपथ का अवलम्बन प्रदान करें एवं अपने कर्तव्यो का बोध कराएं॥७॥<br />
<br />
<b>५०६.अभि सूयवसं नय न नवज्वारो अध्वने ।</b><br />
<b>पूषन्निह क्रतुं विदः ॥८॥</b><br />
हे पूषादेव ! हमए उत्तम जौ (अन्न) वाले देश की ओर के चले। मार्ग मे नवीन संकट न आने पायें। हमे अपने कर्तव्यो का ज्ञान करायें।(हम इन कर्तव्यो को जाने।)॥८॥<br />
<br />
<b>५०७.शग्धि पूर्धि प्र यंसि च शिशीहि प्रास्युदरम् ।</b><br />
<b>पूषन्निह क्रतुं विदः ॥९॥</b><br />
हे पूषादेव! हमरे सामर्थ्य दें। हमे धनो से युक्त करें। हमे साधनो से सम्पन्न करें। हमे तेजस्वी बनाएं। हमारी उदरपूर्ति करें। हम अपने इन कर्तव्यो को जाने॥९॥<br />
<br />
<b>५०८.न पूषणं मेथामसि सूक्तैरभि गृणीमसि ।</b><br />
<b>वसूनि दस्ममीमहे ॥१०॥</b><br />
हम पूषादेव को नहीं भूलते ! सुक्तो मे उनकी स्तुति करते है। प्रकाशमान सम्पदा हम उनसे मागंते है॥१०॥</div>Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2372300295419510967.post-80462334700958494402011-05-25T19:06:00.000-07:002011-05-25T19:06:40.360-07:00ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ४१<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<b>[ऋषि - कण्व धौर । देवता - वरुण, मित्र एवं अर्यमा; ४-६ आदित्यगण । छन्द- गायत्री।]</b><br />
<br />
<b>४९०.यं रक्षन्ति प्रचेतसो वरुणो मित्रो अर्यमा ।</b><br />
<b>नू चित्स दभ्यते जनः ॥१॥</b><br />
जिस याजक को, ज्ञान सम्पन्न वरुण,मित्र और अर्यमा आदि देवो का संरक्षण प्राप्त है, उसे कोई भी नहीं दबा सकता॥१॥<br />
<br />
<b>४९१.यं बाहुतेव पिप्रति पान्ति मर्त्यं रिषः ।</b><br />
<b>अरिष्टः सर्व एधते ॥२॥</b><br />
अपने बाहुओं से विविध धनो को देते हुए, वरुणादि देवगण जिस मनुष्य की रक्षा करते हैं, शत्रुओ से अंहिसित होता हुआ वह वृद्धि पाता है॥२॥<br />
<br />
<b>४९२.वि दुर्गा वि द्विषः पुरो घ्नन्ति राजान एषाम् ।</b><br />
<b>नयन्ति दुरिता तिरः ॥३॥</b><br />
राजा के सदृश वरुणादि देवगण, शत्रुओ के नगरो और किलो को विशेष रूप से नष्ट करते है। वे याजकों को दुःख के मूलभूत कारणो (पापो) से दूरे ले जाते हैं॥३॥<br />
<br />
<b>४९३.सुगः पन्था अनृक्षर आदित्यास ऋतं यते ।</b><br />
<b>नात्रावखादो अस्ति वः ॥४॥</b><br />
हे आदित्यो! आप के यज्ञ मे आने के मार्ग अति सुगम और कण्टकहीन हैं। इस यज्ञ मे आपके लिए श्रेष्ठ हविष्यान समर्पित हैं॥४॥<br />
<br />
<b>४९४.यं यज्ञं नयथा नर आदित्या ऋजुना पथा ।</b><br />
<b>प्र वः स धीतये नशत् ॥५॥</b><br />
हे आदित्यो! जिस यज्ञ को आप सरल मार्ग से सम्पादित करते है, वह यज्ञ आपके ध्यान मे विशेष रूप से रहता है। वह भला कैसे विस्मृत हो सकता है?॥५॥<br />
<br />
<b>४९५.स रत्नं मर्त्यो वसु विश्वं तोकमुत त्मना ।</b><br />
<b>अच्छा गच्छत्यस्तृतः ॥६॥</b><br />
हे आदित्यो! आपका याजक किसी से पराजित नही होता। वह धनादि रत्न और सन्तानो को प्राप्त करता हुआ प्रगति करता है॥६॥<br />
<br />
<b>४९६.कथा राधाम सखाय स्तोमं मित्रस्यार्यम्णः ।</b><br />
<b>महि प्सरो वरुणस्य ॥७॥</b><br />
हे मित्रो! मित्र, अर्यमा और वरुण देवो के महान ऐश्वर्य साधनो का किस प्रकार वर्णन करें ? अर्थात इनकी महिमा अपार है॥७॥<br />
<br />
<b>४९७.मा वो घ्नन्तं मा शपन्तं प्रति वोचे देवयन्तम् ।</b><br />
<b>सुम्नैरिद्व आ विवासे ॥८॥</b><br />
हे देवो! देवत्व प्राप्ति की कामना वाले साधको को कोई कटुवचनो से और क्रोधयुक्त वचनो से प्रताड़ित न करने पाये। हम स्तुति वचनो द्वारा आपको प्रसन्न करते हैं॥८॥<br />
<b><br />
</b><br />
<b>४९८.चतुरश्चिद्ददमानाद्बिभीयादा निधातोः ।</b><br />
<b>न दुरुक्ताय स्पृहयेत् ॥९॥</b><br />
जैसे जुआ खेलने मे चार पांसे गिरने तक भय रहता है, उसी प्रकार बुरे वचन कहने से भी डरना चाहिये। उससे स्नेह नहीं करना चाहिए॥९॥</div>Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2372300295419510967.post-59840421956990867082011-05-24T17:48:00.000-07:002011-06-07T18:44:51.233-07:00ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ४०<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="text-align: center;"><b>[ऋषि - कण्व धौर । देवता - ब्रह्मणस्पति । छन्द बाहर्त प्रगाध(विषमा बृहती, समासतो बृहती)।]</b></div><b>४८२.उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते देवयन्तस्त्वेमहे ।</b><br />
<b>उप प्र यन्तु मरुतः सुदानव इन्द्र प्राशूर्भवा सचा ॥१॥</b><br />
हे ब्रह्मणस्पते! आप उठें, देवो की कामना करने वाले हम आपकी स्तुति करते है। कल्याणकारी मरुद्गण हमारे पास आयें। हे इन्द्रदेव। आप ब्रह्मणस्पति के साथ मिलकर सोमपान करें॥१॥<br />
<br />
<b>४८३.त्वामिद्धि सहसस्पुत्र मर्त्य उपब्रूते धने हिते ।</b><br />
<b>सुवीर्यं मरुत आ स्वश्व्यं दधीत यो व आचके ॥२॥</b><br />
साहसिक कार्यो के लिये समर्पित हे ब्रह्मणस्पते! युद्ध मे मनुष्य आपका आवाहन करतें है। हे मरुतो! जो धनार्थी मनुष्य ब्रह्मणस्पति सहित आपकी स्तुति करता है, वह उत्तम अश्वो के साथ श्रेष्ठ पराक्रम एवं वैभव से सम्पन्न हो॥२॥<br />
<br />
<b>४८४.प्रैतु ब्रह्मणस्पतिः प्र देव्येतु सूनृता ।</b><br />
<b>अच्छा वीरं नर्यं पङ्क्तिराधसं देवा यज्ञं नयन्तु नः ॥३॥</b><br />
ब्रह्मणस्पति हमारे अनुकूल होकर यज्ञ मे आगमन करें। हमे सत्यरूप दिव्यवाणी प्राप्त हो। मनुष्यो के हितकरी देवगण हमारे यज्ञ मे पंक्तिबद्ध होकर अधिष्ठित हों तथा शत्रुओं का विनाश करें॥३॥<br />
<br />
<b>४८५.यो वाघते ददाति सूनरं वसु स धत्ते अक्षिति श्रवः ।</b><br />
<b>तस्मा इळां सुवीरामा यजामहे सुप्रतूर्तिमनेहसम् ॥४॥</b><br />
जो यजमान ऋत्विजो को उत्तम धन देते है,वे अक्षय यश को पाते है, उनके निमित्त हम (ऋत्विग्गण) उत्तम पराक्रमी, शत्रु नाशक, अपराजेय, मातृभूमि की वन्दना करते हैं॥४॥<br />
<br />
<b>४८६.प्र नूनं ब्रह्मणस्पतिर्मन्त्रं वदत्युक्थ्यम् ।</b><br />
<b>यस्मिन्निन्द्रो वरुणो मित्रो अर्यमा देवा ओकांसि चक्रिरे ॥५॥</b><br />
ब्रह्मणस्पति निश्चय ही स्तुति योग्य (उन) मंत्रो को विधि से उच्चारित कराते हैं, जिन मंत्रो मे इन्द्र, वरुण, मित्र और अर्यमा आदि देवगण निवास करते हैं॥५॥<br />
<br />
<b>४८७.तमिद्वोचेमा विदथेषु शम्भुवं मन्त्रं देवा अनेहसम् ।</b><br />
<b>इमां च वाचं प्रतिहर्यथा नरो विश्वेद्वामा वो अश्नवत् ॥६॥</b><br />
हे नेतृत्व करने वालो! (देवताओ!) हम सुखप्रद, विघ्ननाशक मंत्र का यज्ञ मे उच्चारण करते है। हे नेतृत्व करने वाले देवो! यदि आप इस मन्त्र रूप वाणी की कामना करते हैं,(सम्मानपूर्वक अपनाते है) तो यह सभी सुन्दर स्तोत्र आपको निश्चय ही प्राप्त हों॥६॥<br />
<br />
<b>४८८.को देवयन्तमश्नवज्जनं को वृक्तबर्हिषम् ।</b><br />
<b>प्रप्र दाश्वान्पस्त्याभिरस्थितान्तर्वावत्क्षयं दधे ॥७॥</b><br />
देवत्व की कामना करनेवालो के पास भला कौन आयेंगे?(ब्रह्मणस्पति आयेंगें।) कुश-आसन बिछाने वाले के पास कौन आयेंगे ? (ब्रह्मणस्पति आयेंगें।) आपके द्वारा हविदाता याजक अपनी संतानो, पशुओ आदि के निमित्त उत्तम घर का आश्रय पाते है॥७॥<br />
<b><br />
</b><br />
<b>४८९.उप क्षत्रं पृञ्चीत हन्ति राजभिर्भये चित्सुक्षितिं दधे ।</b><br />
<b>नास्य वर्ता न तरुता महाधने नार्भे अस्ति वज्रिणः ॥८॥</b><br />
ब्रह्मणस्पतिदेव, क्षात्रबल की अभिवृद्धि कर राजाओ की सहायता से शत्रुओं को मारते है। भय के सम्मुख वे उत्तम धैर्य को धारण करते है। ये वज्रधारी बड़े युद्धो या छोटे युद्धो मे किसी से पराजित नही होते॥८॥</div>Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2372300295419510967.post-10721260336130281502011-05-23T18:01:00.000-07:002011-05-23T20:44:42.192-07:00ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३९<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="text-align: center;"><b>[ऋषि - कण्व धौर । देवता- मरुद्गण । छन्द - बाहर्त प्रगाथ(विषमा बृहती, समासतो बृहती)]</b></div><br />
<b>४७२.प्र यदित्था परावतः शोचिर्न मानमस्यथ ।</b><br />
<b>कस्य क्रत्वा मरुतः कस्य वर्पसा कं याथ कं ह धूतयः ॥१॥</b><br />
हे कंपाने वाले मरुतो! आप अपना बल दूरस्थ स्थान से विद्युत के समान यहां पर फेंकते हैं, तो आप (किसके यज्ञ की ओर) किसके पास जाते हैं? किस उद्देश्य से आप कहां जाना चाहते हैं? उस समय आपका लक्ष्य क्या होता है?॥१॥<br />
<br />
<b>४७३.स्थिरा वः सन्त्वायुधा पराणुदे वीळू उत प्रतिष्कभे ।</b><br />
<b>युष्माकमस्तु तविषी पनीयसी मा मर्त्यस्य मायिनः ॥२॥</b><br />
आपके हथियार शत्रु को हटाने मे नियोजित हों। आप अपनी दृढ़ शक्ति से उनका प्रतिरोध करें। आपकी शक्ति प्रशंसनीय हो। आप छद्म वेषधारी मनुष्यो को आगे न बढ़ायें ॥२॥<br />
<br />
<b>४७४.परा ह यत्स्थिरं हथ नरो वर्तयथा गुरु ।</b><br />
<b>वि याथन वनिनः पृथिव्या व्याशाः पर्वतानाम् ॥३॥</b><br />
हे मरुतो! आप स्थिर वृक्षो को गिराते, दृढ़ चट्टानो को प्रकम्पित करते, भूमि के वनो को जड़ विहीन करते हुए पर्वतो के पार निकल जाते हैं॥३॥<br />
<br />
<b>४७५.नहि वः शत्रुर्विविदे अधि द्यवि न भूम्यां रिशादसः ।</b><br />
<b>युष्माकमस्तु तविषी तना युजा रुद्रासो नू चिदाधृषे ॥४॥</b><br />
हे शत्रुनाशक मरुतो! न द्युलोक मे और न पृथ्वी पर ही, आपके शत्रुओं का आस्तित्व है। हे रूद्र पुत्रो! शत्रुओ को क्षत-विक्षत करने के लिए आप सब मिलकर अपनी शक्ति विस्तृत करें॥४॥<br />
<br />
<b>४७६.प्र वेपयन्ति पर्वतान्वि विञ्चन्ति वनस्पतीन् ।</b><br />
<b>प्रो आरत मरुतो दुर्मदा इव देवासः सर्वया विशा ॥५॥</b><br />
हे मरुतो! मदमत्त हुए लोगो के समान आप पर्वतो को प्रकम्पित करते है और पेड़ो को उखाड़ कर फेंकते है, अतः आप प्रजाओ के आगे आगे उन्नति करते हुए चलें॥५॥<br />
<br />
<b>४७७.उपो रथेषु पृषतीरयुग्ध्वं प्रष्टिर्वहति रोहितः ।</b><br />
<b>आ वो यामाय पृथिवी चिदश्रोदबीभयन्त मानुषाः ॥६॥</b><br />
हे मरुतो! आपके रथ को चित्र-विचित्र चिह्नो युक्त(पशु आदि) गति देते हैं, उनमे लाल रंग वाला अश्व धुरी को खींचता है। तुम्हारी गति से उत्पन्न शब्द भूमि सुनती है, मनुष्यगण उस ध्वनि से भयभीत हो जातें हैं॥६॥<br />
<br />
<b>४७८.आ वो मक्षू तनाय कं रुद्रा अवो वृणीमहे ।</b><br />
<b>गन्ता नूनं नोऽवसा यथा पुरेत्था कण्वाय बिभ्युषे ॥७॥</b><br />
हे रूद्रपुत्रो! अपनी संतानो की रक्षा के लिए हम आपकी स्तुति करते हैं। जैसे पूर्व समय मे आप भययुक्त कण्वो की रक्षा के निमित्त शीघ्र गये थे, उसी प्रकार आप हमारी रक्षा के निमित्त शीघ्र पधांरे॥७॥<br />
<br />
<b>४७९.युष्मेषितो मरुतो मर्त्येषित आ यो नो अभ्व ईषते ।</b><br />
<b>वि तं युयोत शवसा व्योजसा वि युष्माकाभिरूतिभिः ॥८॥</b><br />
हे मरुतो! आपके द्वारा प्रेरित या अन्य किसी मनुष्य द्वारा प्रेरित शत्रु हम पर प्रभुत्व जमाने आयें, तो आप अपने बल से, अपने तेज से और रक्षण साधनो से उन्हे दूर हटा दें॥८॥<br />
<br />
<b>४८०.असामि हि प्रयज्यवः कण्वं दद प्रचेतसः ।</b><br />
<b>असामिभिर्मरुत आ न ऊतिभिर्गन्ता वृष्टिं न विद्युतः ॥९॥</b><br />
हे विशिष्ट पूज्य,ज्ञाता मरुतो! कण्व को जैसे आपने सम्पूर्ण आश्रय दिया था, वैसे ही चमकने वाली बिजलियों के साथ वेग से आने वाली वृष्टि की तरह आप सम्पूर्न रक्षा साधनो को लेकर हमारे पास आयें॥९॥<br />
<br />
<b>४८१.असाम्योजो बिभृथा सुदानवोऽसामि धूतयः शवः ।</b><br />
<b>ऋषिद्विषे मरुतः परिमन्यव इषुं न सृजत द्विषम् ॥१०॥</b><br />
हे उत्तम दानशील मरुतो! आप सम्पूर्ण पराक्रम और सम्पूर्ण बलो को धारण करते हैं। हे शत्रु को प्रकम्पित करने वाले मरुदगणो, ऋषियो से द्वेश करने वाले शत्रुओं को नष्ट करने वाले बाण के समान आप शत्रुघातक (शक्ति) का सृजन करें॥१०॥</div>Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2372300295419510967.post-1203608703649504052011-05-20T05:00:00.000-07:002011-05-19T18:04:25.553-07:00ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३८<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="color: #333333; font-family: Arial; font-size: 14px; line-height: 22px;"><b>[ऋषि - कण्व धौर। देवता - मरुद्गण , छन्द-गायत्री]</b></span></div><b>४५७.कद्ध नूनं कधप्रियः पिता पुत्रं न हस्तयोः ।</b><br />
<b>दधिध्वे वृक्तबर्हिषः ॥१॥</b><br />
हे स्तुति प्रिय मरुतो! आप कुश के आसनो पर विराजमान हो। पुत्र को पिता द्वारा स्नेहपूर्वक गोद मे उठाने के समान, आप हमे कब धारण करेंगे ?॥१॥<br />
<br />
<b>४५८.क्व नूनं कद्वो अर्थं गन्ता दिवो न पृथिव्याः ।</b><br />
<b>क्व वो गावो न रण्यन्ति ॥२॥</b><br />
हे मरुतो आप कहां है? किस उद्देश्य से आप द्युलोक मे गमन करते हैं ? पृथ्वी मे क्यों नही घूमते? आपकी गौएं आपके लिए नही रंभाती क्या ? (अर्थात आप पृथ्वी रूपी गौ के समीप ही रहें।)॥२॥)<br />
<br />
<b>४५९.क्व वः सुम्ना नव्यांसि मरुतः क्व सुविता ।</b><br />
<b>क्वो विश्वानि सौभगा ॥३॥</b><br />
हे मरुद्गणो ! आपके नवीन संरक्षण साधन कहां है? आपके सुख-ऐश्वर्य के साधन कहां है? आपके सौभाग्यप्रद साधन कहां है? आप अपने समस्त वैभव के साथ इस यज्ञ मे आएं॥३॥<br />
<br />
<b>४६०.यद्यूयं पृश्निमातरो मर्तासः स्यातन ।</b><br />
<b>स्तोता वो अमृतः स्यात् ॥४॥</b><br />
हे मातृभूमि की सेवा करने वाले आकाशपुत्र मरुतो! यद्यपि आप मरणशील हैं, फिर भी आपकी स्तुति करने वाला अमरता को प्राप्त करता है॥४॥<br />
<br />
<b>४६१.मा वो मृगो न यवसे जरिता भूदजोष्यः ।</b><br />
<b>पथा यमस्य गादुप ॥५॥</b><br />
जैसे मृग, तृण को असेव्य नही समझता, उसी प्रकार आपकी स्तुति करने वाला आपके लिए अप्रिय न हो(आप उस पर कृपालु रहें), जिससे उसे यमलोक के मार्ग पर न जाना पड़े॥५॥<br />
<br />
<b>४६२.मो षु णः परापरा निरृतिर्दुर्हणा वधीत् ।</b><br />
<b>पदीष्ट तृष्णया सह ॥६॥</b><br />
अति बलिष्ठ पापवृत्तियां हमारी दुर्दशा कर हमारा विनाश न करें, प्यास(अतृप्ति) से वे ही नष्ट हो जायें॥६॥<br />
<br />
<b>४६३.सत्यं त्वेषा अमवन्तो धन्वञ्चिदा रुद्रियासः ।</b><br />
<b>मिहं कृण्वन्त्यवाताम् ॥७॥</b><br />
यह सत्य ही है कि कान्तिमान, बलिष्ठ रूद्रदेव के पुत्र वे मरुद्गण, मरु भूमि मे भी अवात स्थिति से वर्षा करते हैं।<br />
<br />
<b>४६४.वाश्रेव विद्युन्मिमाति वत्सं न माता सिषक्ति ।</b><br />
<b>यदेषां वृष्टिरसर्जि ॥८॥</b><br />
जब वह मरुद्गण वर्षा का सृजन करते है तो विद्युत रंभाने वाली गाय की तरह शब्द करती है,(जिस प्रकार) गाय बछड़ो को पोषण देती है, उसी प्रकार वह विद्युत सिंचन करती है॥८॥<br />
<br />
<b>४६५.दिवा चित्तमः कृण्वन्ति पर्जन्येनोदवाहेन ।</b><br />
<b>यत्पृथिवीं व्युन्दन्ति ॥९॥</b><br />
मरुद्गण जल प्रवाहक मेघो द्वारा दिन मे भी अंधेरा कर देते है, तब वे वर्षा द्वारा भूमि को आद्र करते है॥९॥<br />
<br />
<b>४६६.अध स्वनान्मरुतां विश्वमा सद्म पार्थिवम् ।</b><br />
<b>अरेजन्त प्र मानुषाः ॥१०॥</b><br />
मरुतो की गर्जना से पृथ्वी के निम्न भाग मे अवस्थित सम्पूर्ण स्थान प्रकम्पित हो उठते है। उस कम्पन से समस्त मानव भी प्रभावित होते है॥१०॥<br />
<br />
<b>४६७.मरुतो वीळुपाणिभिश्चित्रा रोधस्वतीरनु ।</b><br />
<b>यातेमखिद्रयामभिः ॥११॥</b><br />
हे मरुतो! (अश्वो को नियन्त्रित करने वाले) आप बलशाली बाहुओ से, अविच्छिन्न गति से शुभ्र नदियो की ओर गमन करें॥११॥<br />
<br />
<b>४६८.स्थिरा वः सन्तु नेमयो रथा अश्वास एषाम् ।</b><br />
<b>सुसंस्कृता अभीशवः ॥१२॥</b><br />
हे मरुतो! आपके रथ बलिष्ठ घोड़ो, उत्तम धुरी और चंचल लगाम से भली प्रकार अलंकृत हों॥१२॥<br />
<br />
<b>४६९.अच्छा वदा तना गिरा जरायै ब्रह्मणस्पतिम् ।</b><br />
<b>अग्निं मित्रं न दर्शतम् ॥१३॥</b><br />
हे याजको! आप दर्शनीय मित्र के समान ज्ञान के अधिपति अग्निदेव की, स्तुति युक्त वाणियों द्वारा प्रशंसा करें॥१३॥<br />
<br />
<b>४७०.मिमीहि श्लोकमास्ये पर्जन्य इव ततनः ।</b><br />
<b>गाय गायत्रमुक्थ्यम् ॥१४॥</b><br />
हे याजको! आप अपने मुख से श्लोक रचना कर मेघ के समान इसे विस्तारित करें। गायत्री छ्न्द मे रचे हुये काव्य का गायन करें॥१४॥<br />
<br />
<b>४७१.वन्दस्व मारुतं गणं त्वेषं पनस्युमर्किणम् ।</b><br />
<b>अस्मे वृद्धा असन्निह ॥१५॥</b><br />
हे ऋत्विजो! आप कान्तिमान, स्तुत्य , अर्चन योग्य मरुद्गणो का अभिवादन करें, यहां हमारे पास इनका वास रहे॥१५॥</div>Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2372300295419510967.post-38910160766998735602011-05-18T20:58:00.000-07:002011-05-18T20:58:55.048-07:00ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३७<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: center;"><b>[ऋषि - कण्व धौर। देवता - मरुद्गण , छन्द-गायत्री]</b></div><b>४४२.क्रीळं वः शर्धो मारुतमनर्वाणं रथेशुभम् ।</b><br />
<b>कण्वा अभि प्र गायत ॥१॥</b><br />
हे कण्व गोत्रीय ऋषियो! क्रिड़ा युक्त, बल सम्पन्न, अहिंसक वृत्तियों वाले मरुद्गण रथ पर शोभायमान हैं। आप उनके निमित्त स्तुतिगान करें ॥१॥<br />
<br />
<b>४४३.ये पृषतीभिरृष्टिभिः साकं वाशीभिरञ्जिभिः ।</b><br />
<b>अजायन्त स्वभानवः ॥२॥</b><br />
हे मरुद्गण स्वदीप्ति से युक्त धब्बो वाले मृगो (वाहनो)सहित और आभूषणो से अलंकृत होकर गर्जना करते हुए प्रकट हुए हैं॥२॥<br />
<br />
<b>४४४.इहेव शृण्व एषां कशा हस्तेषु यद्वदान् ।</b><br />
<b>नि यामञ्चित्रमृञ्जते ॥३॥</b><br />
मरुद्गणो के हाथो मे स्थित चाबुको से होने वाली ध्वनियां हमे सुनाई देती हैं, जैसे वे यहीं हो रही हों। वे ध्वनियां संघर्ष के समय असामान्य शक्ति प्रदर्शित करती है॥३॥<br />
<br />
<b>४४५.प्र वः शर्धाय घृष्वये त्वेषद्युम्नाय शुष्मिणे ।</b><br />
<b>देवत्तं ब्रह्म गायत ॥४॥</b><br />
(हे याजको! आप)बल बढ़ाने वाले, शत्रु नाशक, दीप्तिमान मरुद्गणों की सामर्थ्य और यश का मंत्रो से विशिष्ट गान करें॥४॥<br />
<br />
<b>४४६.प्र शंसा गोष्वघ्न्यं क्रीळं यच्छर्धो मारुतम् ।</b><br />
<b>जम्भे रसस्य वावृधे ॥५॥</b><br />
(हे याजको! आप) किरणो द्वारा संचरित दिव्य रसो का पर्याप्त सेवन कर बलिष्ठ हुए उन मरुद्गणों के अविनाशी बल की प्रशंसा करें॥५॥<br />
<br />
<b>४४७.को वो वर्षिष्ठ आ नरो दिवश्च ग्मश्च धूतयः ।</b><br />
<b>यत्सीमन्तं न धूनुथ ॥६॥</b><br />
द्युलोक और भूलोक को कम्पित करनेवाले हे मरुतो! आप मे वरिषठ कौन है? जो सदा वृक्ष के अग्रभाग को हिलाने के समान शत्रुओ को प्रकम्पित कर दे ॥६॥<br />
<br />
<b>४४८.नि वो यामाय मानुषो दध्र उग्राय मन्यवे ।</b><br />
<b>जिहीत पर्वतो गिरिः ॥७॥</b><br />
हे मरुद्गणों! आपके प्रचण्ड संघर्षल आवेश से भयभीत मनुष्य सुदृढ़ सहारा ढुंढता है, क्योंकि आप बड़े पर्वतो और टीलो को भी कंपा देते हैं॥७॥<br />
<br />
<b>४४९.येषामज्मेषु पृथिवी जुजुर्वाँ इव विश्पतिः ।</b><br />
<b>भिया यामेषु रेजते ॥८॥</b><br />
उन मरुद्गणों के आक्रमणकारी बलो से यह पृथ्वी जरा-जीर्ण नृपति की भांति भयभीत होकर प्रकम्पित हो उठती है॥८॥<br />
<br />
<b>४५०.स्थिरं हि जानमेषां वयो मातुर्निरेतवे ।</b><br />
<b>यत्सीमनु द्विता शवः ॥९॥</b><br />
इन वीर मरुतो की मातृभूमि आकाश स्थिर है। ये मातृभूमि से पक्षी के वेग के समान निर्बाधित होकर चलते है। उनका बल दुगुना होकर व्याप्त होता है॥९॥<br />
<br />
<b>४५१.उदु त्ये सूनवो गिरः काष्ठा अज्मेष्वत्नत ।</b><br />
<b>वाश्रा अभिज्ञु यातवे ॥१०॥</b><br />
शब्द नाद करने वाले मरुतो ने यज्ञार्थ जलो को निःसृत किया। प्रवाहित जल का पान करने के लिए रंभाति हुई गौएं घुटने तक पानी मे जाने के लिए बाध्य होती हैं॥१०॥<br />
<br />
<b>४५२.त्यं चिद्घा दीर्घं पृथुं मिहो नपातममृध्रम् ।</b><br />
<b>प्र च्यावयन्ति यामभिः ॥११॥</b><br />
विशाल और व्यापक, न बिंध सकने वाले, जल वृष्टि न करने वाले मेघो को भी वीर मरुद्गण अपनी तेजगति से उड़ा ले जाते है॥११॥<br />
<br />
<b>४५३.मरुतो यद्ध वो बलं जनाँ अचुच्यवीतन ।</b><br />
<b>गिरीँरचुच्यवीतन ॥१२॥</b><br />
हे मरुतो! आप अपने बल से लोगो को विचलित करते हैं, आप पर्वतो को भी विचलित करने मे समर्थ हैं॥१२॥<br />
<br />
<b>४५४.यद्ध यान्ति मरुतः सं ह ब्रुवतेऽध्वन्ना ।</b><br />
<b>शृणोति कश्चिदेषाम् ॥१३॥</b><br />
जिस समय मरुद्गण गमन करते है, तब वे मध्य मार्ग मे ही परस्पर वार्ता करने लगते हैं। उनके शब्द को भला कौन नही सुन लेता है? (सभी सुन लेते है।)॥१३॥<br />
<br />
<b>४५५.प्र यात शीभमाशुभिः सन्ति कण्वेषु वो दुवः ।</b><br />
<b>तत्रो षु मादयाध्वै ॥१४॥</b><br />
हे मरुतो! आप तीव्र वेग वाले वाहन से शीघ्र आएं, कण्ववंशी आपके सत्कार के लिए उपस्थित हैं। वहां आप उत्साह के साथ तृप्ति को प्राप्त हों॥१४॥<br />
<br />
<b>४५६.अस्ति हि ष्मा मदाय वः स्मसि ष्मा वयमेषाम् ।</b><br />
<b>विश्वं चिदायुर्जीवसे ॥१५॥</b><br />
हे मरुतो! आपकी प्रसन्न्ता के लिए यह हवि-द्रव्य तैयार है। हम सम्पूर्ण आयु सुखद जीवन प्राप्त करने के लिए आपका स्मरण करते है॥१५॥</div>Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2372300295419510967.post-80888812301849540762011-03-07T15:45:00.001-08:002011-03-07T15:48:26.026-08:00ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३६<div style="text-align: center;"><b>[ऋषि -कण्व धौर । देवता -अग्नि,१३-१४ यूप ।छन्द -बाहर्त प्रगाथ-विषमा बृहती, समासतो बृहती, १३ उपरिष्टाद बृहती ]</b></div><div style="text-align: center;"><br /></div><div><b>४२२.प्र वो यह्वं पुरूणां विशां देवयतीनाम् ।</b></div><div><b>अग्निं सूक्तेभिर्वचोभिरीमहे यं सीमिदन्य ईळते ॥१॥</b></div><div>हम ऋत्विज अपने सूक्ष्म वाक्यों(मंत्र शक्ति) से व्यक्तियो मे देवत्व का विकास करने वाली महानता का वर्णन करते है; जिस महानता का वर्णन(स्तवन) ऋषियो ने भली प्रकार किया था॥१॥</div><div><br /></div><div><b>४२३.जनासो अग्निं दधिरे सहोवृधं हविष्मन्तो विधेम ते ।</b></div><div><b>स त्वं नो अद्य सुमना इहाविता भवा वाजेषु सन्त्य ॥२॥</b></div><div>मनुष्यो ने बलवर्धक अग्निदेव का वरण किया। हम उन्हे हवियो से प्रवृद्ध करते हैं। अन्नो के दाता हे अग्निदेव! आज आप प्रसन्न मन से हमारी रक्षा करें॥२॥</div><div><br /></div><div><b>४२४.प्र त्वा दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् ।</b></div><div><b>महस्ते सतो वि चरन्त्यर्चयो दिवि स्पृशन्ति भानवः ॥३॥</b></div><div>देवो के दूत, होतारुप, सर्वज्ञ हे अग्निदेव! आपका हम वरण करते है, आप महान और सत्यरूप है। आपकी ज्वालाओं की दीप्ति फैलती हुई आकाश तक पहुंचती है॥३॥</div><div><br /></div><div><b>४२५.देवासस्त्वा वरुणो मित्रो अर्यमा सं दूतं प्रत्नमिन्धते ।</b></div><div><b>विश्वं सो अग्ने जयति त्वया धनं यस्ते ददाश मर्त्यः ॥४॥</b></div><div>हे अग्निदेव! मित्र, वरुण और अर्यमा ये तीनो देव आप जैसे पुरातन देवदूत को प्रदीप्त करते हैं। जो याजक आपके निमित्त हवि समर्पित करते है, वे आपकी कृपा से समस्त धनो को उपलब्ध करते हैं॥४॥</div><div><br /></div><div><b>४२६.मन्द्रो होता गृहपतिरग्ने दूतो विशामसि ।</b></div><div><b>त्वे विश्वा संगतानि व्रता ध्रुवा यानि देवा अकृण्वत ॥५॥</b></div><div>हे अग्निदेव! आप प्रमुदित करने वाले, प्रजाओं के पालक, होतारुप, गृहस्वामी और देवदूत है। देवो के द्वारा सम्पादित सभी शुभ कर्म आपसे सम्पादित होते है॥५॥</div><div><br /></div><div><b>४२७.त्वे इदग्ने सुभगे यविष्ठ्य विश्वमा हूयते हविः ।</b></div><div><b>स त्वं नो अद्य सुमना उतापरं यक्षि देवान्सुवीर्या ॥६॥</b></div><div>हे चिरयुवा अग्निदेव! यह आपका उत्तम सौभाग्य है कि सभी हवियां आपके अंदर अर्पित की जाती है। आप प्रसन्न होकर हमारे निमित्त आज और आगे भी सामर्थ्यवान देवो का यजन किया करें। (अर्थात देवो को हमारे अनुकूल बनायें।)॥६॥</div><div><br /></div><div><b>४२८.तं घेमित्था नमस्विन उप स्वराजमासते ।</b></div><div><b>होत्राभिरग्निं मनुषः समिन्धते तितिर्वांसो अति स्रिधः ॥७॥</b></div><div>नमस्कार करनेवाले उपासक स्वप्रकाशित इन अग्निदेव की उपासना करते है। शत्रुओं को जीतने वाले मनुष्य हवन-साधनो और स्तुतियों को प्रदीप्त करते है॥७॥</div><div><br /></div><div><b>४२९.घ्नन्तो वृत्रमतरन्रोदसी अप उरु क्षयाय चक्रिरे ।</b></div><div><b>भुवत्कण्वे वृषा द्युम्न्याहुतः क्रन्ददश्वो गविष्टिषु ॥८॥</b></div><div>देवो ने प्रहार कर वृत्र का वध किया। प्राणियों के निवासार्थ उन्होने द्यावा-पृथिवी और अंतरिक्ष का बहुत विस्तार किया। गौ, अश्व आदि की कामना से कण्व ने अग्नि को प्रकाशित कर आहुतियों द्वारा उन्हे बलिष्ठ बनाया॥८॥</div><div><br /></div><div><b>४३०.सं सीदस्व महाँ असि शोचस्व देववीतमः ।</b></div><div><b>वि धूममग्ने अरुषं मियेध्य सृज प्रशस्त दर्शतम् ॥९॥</b></div><div>यज्ञीय गुणो से युक्त प्रशंसनीय हे अग्निदेव! आप देवता के प्रीतिपात्र और महान गुणो के प्रेरक है। यहां उपयुक्त स्थान पर पधारें और प्रज्वलित हों। घृत की आहुतियों द्वारा दर्शन योग्य तेजस्वी होते हुए सघन धूम्र को विसर्जित करें॥९॥</div><div><br /></div><div><b>४३१.यं त्वा देवासो मनवे दधुरिह यजिष्ठं हव्यवाहन ।</b></div><div><b>यं कण्वो मेध्यातिथिर्धनस्पृतं यं वृषा यमुपस्तुतः ॥१०॥</b></div><div>हे हविवाहक अग्निदेव! सभी देवो ने पूजने योग्य आपको मानव मात्र के कल्याण के लिए इस यज्ञ मे धारण किया। मेध्यातिथि और कण्व ने तथा वृषा(इन्द्र) और उपस्तुत(अन्य यजमान) ने धन से संतुष्ट करने वाले आपका वरण किया॥१०॥</div><div><br /></div><div><b>४३२.यमग्निं मेध्यातिथिः कण्व ईध ऋतादधि ।</b></div><div><b>तस्य प्रेषो दीदियुस्तमिमा ऋचस्तमग्निं वर्धयामसि ॥११॥</b></div><div>जिन अग्निदेव को मेध्यातिथि और कण्व ने सत्यरूप कर्मो से प्रदीप्त किया, वे अग्निदेव देदीप्यमान हैं। उन्ही को हमारी ऋचायें भी प्रवृद्ध करती हैं। हम भी उन अग्निदेव को संवर्धित करते हैं॥११॥</div><div><br /></div><div><b>४३३.रायस्पूर्धि स्वधावोऽस्ति हि तेऽग्ने देवेष्वाप्यम् ।</b></div><div><b>त्वं वाजस्य श्रुत्यस्य राजसि स नो मृळ महाँ असि ॥१२॥</b></div><div>हे अत्रवान अग्ने! आप हमे अन्न-सम्पदा से अभिपूरत करें। आप देवो के मित्र और प्रशंसनीय बलो के स्वामी है। आप महान है। आप हमे सुखी बनाएं॥१२॥</div><div><br /></div><div><b>४३४.ऊर्ध्व ऊ षु ण ऊतये तिष्ठा देवो न सविता ।</b></div><div><b>ऊर्ध्वो वाजस्य सनिता यदञ्जिभिर्वाघद्भिर्विह्वयामहे ॥१३॥</b></div><div>हे काष्ठ स्थित अग्निदेव! सर्वोत्पादक सवितादेव जिस प्रकार अंतरिक्ष से हम सबकी रक्षा करते है, उसी प्रकार आप भी उंचे उठकर, अन्न आदि पोषक पदार्थ देकर हमारे जीवन की रक्षा करें।मन्त्रोच्चारणपूर्वक हविप्रदान करने वाले याजक आपके उत्कृष्ट स्वरूप का आवाहन करते हैं॥१३॥</div><div><br /></div><div><b>४३५.ऊर्ध्वो नः पाह्यंहसो नि केतुना विश्वं समत्रिणं दह ।</b></div><div><b>कृधी न ऊर्ध्वाञ्चरथाय जीवसे विदा देवेषु नो दुवः ॥१४॥</b></div><div>ये यूपस्थ अग्ने। आप ऊंचे उठकर अपने श्रेष्ठ ज्ञान द्वारा पापो से हमारी रक्षा करें,मानवता के शत्रुओं का दहन करें, जीवन मे प्रगति के लिए हमे ऊंचा उठाये तथा हमारी प्रार्थना देवों तक पहुंचाए॥१४॥</div><div><br /></div><div><b>४३६.पाहि नो अग्ने रक्षसः पाहि धूर्तेरराव्णः ।</b></div><div><b>पाहि रीषत उत वा जिघांसतो बृहद्भानो यविष्ठ्य ॥१५॥</b></div><div>हे महान दीप्तिवाले , चिरयुवा अग्निदेव! आप हमे राक्षसो से रक्षित करें, कृपण धूर्तो से रक्षित करें तथा हिंसक और जघन्यो से रक्षित करें॥१५॥</div><div><br /></div><div><b>४३७.घनेव विष्वग्वि जह्यराव्णस्तपुर्जम्भ यो अस्मध्रुक् ।</b></div><div><b>यो मर्त्यः शिशीते अत्यक्तुभिर्मा नः स रिपुरीशत ॥१६॥</b></div><div>अपने ताप से रोगादि कष्टो को मिटाने वाले हे अग्ने! आप कृपणो को गदा से विनष्ट करें। जो हमसे द्रोह करते है, जो रात्रि मे जागकर हमारे नाश का यत्न करते हैं, वे शत्रु हम पर आधिपत्य न कर पाएं॥१६॥</div><div><br /></div><div><b>४३८.अग्निर्वव्ने सुवीर्यमग्निः कण्वाय सौभगम् ।</b></div><div><b>अग्निः प्रावन्मित्रोत मेध्यातिथिमग्निः साता उपस्तुतम् ॥१७॥</b></div><div>उत्तम पराक्रमी हे अग्निदेव, जोन्होने कण्व को सौभाग्य प्रदान किया, हमारे मित्रो की रक्षा की तथा ’मेध्यातिथि’ और ’उपस्तुत’(यजमान) की भी रक्षा की है॥१७॥</div><div><br /></div><div><b>४३९.अग्निना तुर्वशं यदुं परावत उग्रादेवं हवामहे ।</b></div><div><b>अग्निर्नयन्नववास्त्वं बृहद्रथं तुर्वीतिं दस्यवे सहः ॥१८॥</b></div><div>अग्निदेव के साथ हम ’तुर्वश’ ,’यदु’ और ’उग्रदेव’ को बुलाते है। वे अग्निदेव ’नववास्तु’, ’ब्रहद्रथ’ और ’तुर्वीति’(आदि राजर्षियों) को भी ले चलें, जिससे हम दुष्टो के साथ संघर्ष कर सके॥१८॥</div><div><br /></div><div><b>४४०.नि त्वामग्ने मनुर्दधे ज्योतिर्जनाय शश्वते ।</b></div><div><b>दीदेथ कण्व ऋतजात उक्षितो यं नमस्यन्ति कृष्टयः ॥१९॥</b></div><div>हे अग्निदेव! विचारवान व्यक्ति आपका वरण करते है। अनादिकाल से ही मानव जाति के लिए आपकी ज्योति प्रकाशित है। आपका प्रकाश आश्रमो के ज्ञानवान ऋषियो मे उत्पन्न होता है। यज्ञ मे ही आपका प्रज्वलित स्वरूप प्रकट होता है। उस समय सभी मनुष्य आपको नमन वंदन करते हैं॥१९॥</div><div><br /></div><div><b>४४१.त्वेषासो अग्नेरमवन्तो अर्चयो भीमासो न प्रतीतये ।</b></div><div><b>रक्षस्विनः सदमिद्यातुमावतो विश्वं समत्रिणं दह ॥२०॥</b></div><div>अग्निदेव की ज्वालाएं प्रदीप्त होकर अत्यन्त बलवती और प्रचण्ड हुई है। कोई उनका सामना नहीं कर सकता। हे अग्ने! आप समस्त राक्षसो, आतताइयो और मानवता के शत्रुओ को नष्ट करें॥२०॥</div>Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-2372300295419510967.post-36392413081587306762011-03-06T16:33:00.000-08:002011-03-06T16:35:48.248-08:00ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३५<div style="text-align: center;"><b>[ऋषि - हिरण्यस्तूप अङ्गिरस। देवता -प्रथम मन्त्र का प्रथम पाद- अग्नि, द्वितिय पाद -मित्रावरुण, तृतीय पाद-रात्रि, चतुर्थ पाद-सविता, २-११- सविता । छन्द - त्रिष्टुप, १,९ जगती]</b></div><div style="text-align: center;"><br /></div><div><b>४११.ह्वयाम्यग्निं प्रथमं स्वस्तये ह्वयामि मित्रावरुणाविहावसे ।</b></div><div><b>ह्वयामि रात्रीं जगतो निवेशनीं ह्वयामि देवं सवितारमूतये ॥१॥</b></div><div>कल्याण की कामना से हम सर्वप्रथम अग्निदेव की प्रार्थना करते हैं। अपनी रक्षा के लिए हम मित्र और वरुण देवों को बुलाते हैं। जगत को विश्राम देने वाली रात्रि और सूर्यदेव का हम अपनी रक्षा के लिए आवाहन करते है॥१॥</div><div><br /></div><div><b>४१२.आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च ।</b></div><div><b>हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥२॥</b></div><div>सवितादेव गहन तमिस्त्रा युक्त अंतरिक्ष पथ मे भ्रमण करते हुए, देवो और मनुष्यो को यज्ञादि श्रेष्ठ कर्मो मे नियोजित करते है। वे समस्त लोकों को देखते(प्रकाशित करते) हुए स्वर्णिम (किरणो से युक्त) रथ से आते है॥२॥</div><div><br /></div><div><b>४१३.याति देवः प्रवता यात्युद्वता याति शुभ्राभ्यां यजतो हरिभ्याम् ।</b></div><div><b>आ देवो याति सविता परावतोऽप विश्वा दुरिता बाधमानः ॥३॥</b></div><div>स्तुत्य सवितादेव ऊपर चढ़ते हुए और फिर नीचे उतरते हे निरंतर गतिशील रहते हैं। वे सविता देव तमरूपी पापों को नष्ट कररे हुए अतिदूर से उस यज्ञशाला मे श्वेत अश्वो के रथ पर आसीन होकर आते हैं॥३॥</div><div><br /></div><div><b>४१४.अभीवृतं कृशनैर्विश्वरूपं हिरण्यशम्यं यजतो बृहन्तम् ।</b></div><div><b>आस्थाद्रथं सविता चित्रभानुः कृष्णा रजांसि तविषीं दधानः ॥४॥</b></div><div>सतत परिभ्रमणशील, विविध रूपो मे सुशोभित, पूजनिय,अद्भूत रश्मि-युक्त सवितादेव गहन तमिस्त्रा को नष्ट करने के निमित्त प्रचण्ड सामर्थ्य को धारण करते हैं तथा स्वर्णिम रश्मियों से युक्त रथ पर प्रतिष्ठित होकर आतें हैं॥४॥</div><div><br /></div><div><b>४१५.वि जनाञ्छ्यावाः शितिपादो अख्यन्रथं हिरण्यप्रउगं वहन्तः ।</b></div><div><b>शश्वद्विशः सवितुर्दैव्यस्योपस्थे विश्वा भुवनानि तस्थुः ॥५॥</b></div><div>सूर्यदेव के अश्व श्वेत पैर वाले है, वे स्वर्णरथ को वहन करते है और मानवो को प्रकाश देते हैं। सर्वदा सभी लोको के प्राणी सवितादेव के अंक मे स्थित है अर्थात उन्ही पर आश्रित है॥५॥</div><div><br /></div><div><b>४१६.तिस्रो द्यावः सवितुर्द्वा उपस्थाँ एका यमस्य भुवने विराषाट् ।</b></div><div><b>आणिं न रथ्यममृताधि तस्थुरिह ब्रवीतु य उ तच्चिकेतत् ॥६॥</b></div><div>तीनो लोंको मे द्यावा और पृथिवी ये दोनो लोक सूर्य के समीप है अर्थात सूर्य से प्रकाशित है। एक अंतरिक्ष लोक यमदेव का विशिष्ट द्वार रूप है। रथ के धूरे की कील के समान सूर्यदेव पर ही सब लोक (नक्षत्रादि) अवलम्बित है। जो यह रहस्य जाने, वे सबको बतायें॥६॥</div><div><br /></div><div><br /></div><div><b>४१७.वि सुपर्णो अन्तरिक्षाण्यख्यद्गभीरवेपा असुरः सुनीथः ।</b></div><div><b>क्वेदानीं सूर्यः कश्चिकेत कतमां द्यां रश्मिरस्या ततान ॥७॥</b></div><div>गम्भीर, गतियुक्त, प्राणरूप, उत्तम प्रेरक, सुन्दर दीप्तिमान सूर्यदेव अंतरिक्षादि हो प्रकाशित करते हैं। ये सूर्यदेव कहां रहते है ? उनकी रश्मियां किस आकाश मे होंगी ? यह रहस्य कौन जानता है?॥७॥</div><div><br /></div><div><b>४१८.अष्टौ व्यख्यत्ककुभः पृथिव्यास्त्री धन्व योजना सप्त सिन्धून् ।</b></div><div><b>हिरण्याक्षः सविता देव आगाद्दधद्रत्ना दाशुषे वार्याणि ॥८॥</b></div><div>हिरण्य दृष्टि युक्त(सुनहली किरणो से युक्त) सवितादेव पृथ्वी की आठो दिशाओ, उनसे युक्त तीनो लोको, सप्त सागरो आदि को आलोकित करते हुए दाता(हविदाता) के लिए वरणीय विभूतियां लेकर यहां आएं॥८॥</div><div><br /></div><div><b>४१९.हिरण्यपाणिः सविता विचर्षणिरुभे द्यावापृथिवी अन्तरीयते ।</b></div><div><b>अपामीवां बाधते वेति सूर्यमभि कृष्णेन रजसा द्यामृणोति ॥९॥</b></div><div>स्वर्णिम रश्मियों रूपी हाथो से युक्त विलक्षण द्रष्टा सवितादेव द्यावा और पृथ्वी के बीच संचरित होते है। वे रोगादि बाधाओं को नष्ट कर अन्धकारनाशक दीप्तियों से आकाश को प्रकाशित करते हैं॥९॥</div><div><br /></div><div><b>४२०.हिरण्यहस्तो असुरः सुनीथः सुमृळीकः स्ववाँ यात्वर्वाङ् ।</b></div><div><b>अपसेधन्रक्षसो यातुधानानस्थाद्देवः प्रतिदोषं गृणानः ॥१०॥</b></div><div>हिरण्य हस्त (स्वर्णिम तेजस्वी किरणो से युक्त) प्राणदाता कल्याणकारक, उत्तम सुखदायक, दिव्यगुण सम्पन्न सूर्यदेव सम्पूर्ण मनुष्यो के समस्त दोषो को, असुरो और दुष्कर्मियो को नष्ट करते(दूर भगाते) हुए उदित होते है। ऐसे सूर्यदेव हमारे लिए अनुकूल हो॥१०॥ </div><div><br /></div><div><b>४२१.ये ते पन्थाः सवितः पूर्व्यासोऽरेणवः सुकृता अन्तरिक्षे ।</b></div><div><b>तेभिर्नो अद्य पथिभिः सुगेभी रक्षा च नो अधि च ब्रूहि देव ॥११॥</b></div><div>हे सवितादेव! आकाश मे आपके ये धूलरहित मार्ग पूर्व निश्चित है। उन सुगम मार्गो से आकर आज आप हमारी रक्षा करें तथा हम (यज्ञानुष्ठान करने वालों) को देवत्व से युक्त करें॥११॥</div><div><br /></div>Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-2372300295419510967.post-89451972281341108082011-03-03T18:00:00.000-08:002011-03-06T16:09:05.131-08:00ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३४<div style="text-align: center;"><b>[ऋषि - हिरण्यस्तूप अङ्गिरस। देवता -अश्विनीकुमार <span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="font-size: 12px; line-height: 18px;"> </span></span>। छन्द - जगती, ९,१२ त्रिष्टुप]</b></div><div><br /></div><div><b>३९९.त्रिश्चिन्नो अद्या भवतं नवेदसा विभुर्वां याम उत रातिरश्विना ।</b></div><div><b>युवोर्हि यन्त्रं हिम्येव वाससोऽभ्यायंसेन्या भवतं मनीषिभिः ॥१॥</b></div><div>हे ज्ञानी अश्विनीकुमारो! आज आप दोनो यहां तीन बार(प्रातः,मध्यान्ह,सायं) आयें। आप के रथ और दान बड़े महान है। सर्दी की रात एवं आतपयुक्त दिन के समान आप दोनो का परस्पर नित्य सम्बन्ध है। विद्वानो के माध्यम से आप हमे प्राप्त हों॥१॥</div><div><br /></div><div><b>४००.त्रयः पवयो मधुवाहने रथे सोमस्य वेनामनु विश्व इद्विदुः ।</b></div><div><b>त्रय स्कम्भास स्कभितास आरभे त्रिर्नक्तं याथस्त्रिर्वश्विना दिवा ॥२॥</b></div><div>मधुर सोम को वहन करने वाले रथ मे वज्र के समान सुदृढ़ पहिये लगे हैं। सभी लोग आपकी सोम के प्रति तीव्र उत्कंठा को जानते है। आपके रथ मे अवलम्बन के लिये तीन खम्बे लगे हैं। हे अश्विनीकुमारो ! आप उस रथ से तीन बार रात्री मे और तीन बार दिन मे गमन करते है॥२॥</div><div><br /></div><div><b>४०१.समाने अहन्त्रिरवद्यगोहना त्रिरद्य यज्ञं मधुना मिमिक्षतम् ।</b></div><div><b>त्रिर्वाजवतीरिषो <span class="Apple-style-span" style="font-weight: normal; "><b>अश्वि</b></span>ना युवं दोषा अस्मभ्यमुषसश्च पिन्वतम् ॥३॥</b></div><div>हे दोषो को ढंकने वाले अश्विनीकुमारो! आज हमारे यज्ञ मे दिन मे तीन बार मधुर रसों से सिंचन करें। प्रातः , मध्यान्ह एवं सांय तीन प्रकार के पुष्टिवर्धक अन्न हमे प्रदान करें॥३॥</div><div><br /></div><div><b>४०२.त्रिर्वर्तिर्यातं त्रिरनुव्रते जने त्रिः सुप्राव्ये त्रेधेव शिक्षतम् ।</b></div><div><b>त्रिर्नान्द्यं वहतमश्विना युवं त्रिः पृक्षो अस्मे अक्षरेव पिन्वतम् ॥४॥</b></div><div>हे अश्विनीकुमारो! हमारे घर आप तीन बार आयें। अनुयायी जनो को तीन बार सुरक्षित करें उन्हे तीन बार तीन विशिष्ट ज्ञान करायें। सुखप्रद पदार्थो को तीन बार हमारी ओर पहुंचाये। बलप्रदायक अन्नो को प्रचुर परिमाण मे देकर हमे सम्पन्न करें॥४॥</div><div><br /></div><div><b>४०३.त्रिर्नो रयिं वहतमश्विना युवं त्रिर्देवताता त्रिरुतावतं धियः ।</b></div><div><b>त्रिः सौभगत्वं त्रिरुत श्रवांसि नस्त्रिष्ठं वां सूरे दुहिता रुहद्रथम् ॥५॥</b></div><div>हे अश्विनीकुमारो! आप दोनो हमारे लिए तीन बार धन इधर लायें। हमारी बुद्धि को तीन बार देवो की स्तुति मे प्रेरित करें। हमे तीन बार सौभाग्य और तीन बार यश प्रदान करें। आपके रथ मे सूर्य पुत्री (उषा) विराजमान हैं॥५॥</div><div><br /></div><div><b>४०४.त्रिर्नो अश्विना दिव्यानि भेषजा त्रिः पार्थिवानि त्रिरु दत्तमद्भ्यः ।</b></div><div><b>ओमानं शंयोर्ममकाय सूनवे त्रिधातु शर्म वहतं शुभस्पती ॥६॥</b></div><div>हे शुभ कर्मपालक अश्विनीकुमारो ! आपने तीन बार हमे(द्युस्थानीय) दिव्य औषधियां, तीन बार पार्थिव औषधियां तथा तीन बार जलौषधियां प्रदान की हैं। हमारे पुत्र को श्रेष्ठ सुख और संरक्षण दिया है और तीन धातुओ(वात-पित्त-कफ) से मिलने वाला सुख, आरोग्य एवं ऐश्वर्य प्रदान किया है॥६॥</div><div><br /></div><div><b>४०५.त्रिर्नो अश्विना यजता दिवेदिवे परि त्रिधातु पृथिवीमशायतम् ।</b></div><div><b>तिस्रो नासत्या रथ्या परावत आत्मेव वातः स्वसराणि गच्छतम् ॥७॥</b></div><div>हे अश्विनीकुमारो! आप नित्य तीन बार यजन योग्य हैं। पृथ्वी पर स्थापित वेदी के तीन ओर आसनो पर बैठें। हे असत्यरहित रथारूढ़ देवो ! प्राणवायु और आत्मा के समान दूर स्थान से हमारे यज्ञो मे तीन बार आयें॥७॥</div><div><br /></div><div><b>४०६.त्रिरश्विना सिन्धुभिः सप्तमातृभिस्त्रय आहावास्त्रेधा हविष्कृतम् ।</b></div><div><b>तिस्रः पृथिवीरुपरि प्रवा दिवो नाकं रक्षेथे द्युभिरक्तुभिर्हितम् ॥८॥</b></div><div>हे अश्विनीकुमारो! सात मातृभूत नदियो के जलो से तीन बार तीन पात्र भर दिये है। हवियो को भी तीन भागो मे विभाजित किया है। आकाश मे उपर गमन करते हुए आप तीनो लोको की दिन और रात्रि मे रक्षा करते हौं॥८॥</div><div><br /></div><div><b>४०७.क्व त्री चक्रा त्रिवृतो रथस्य क्व त्रयो वन्धुरो ये सनीळाः ।</b></div><div><b>कदा योगो वाजिनो रासभस्य येन यज्ञं नासत्योपयाथः ॥९॥</b></div><div>हे सत्यनिष्ठ अश्विनीकुमारो ! आप जिस रथ द्वारा यज्ञस्थल मे पहुंचते है, उस तीन छोर वाले रथ के तीन चक्र कहां है ? एक ही आधार पर स्थापित होने वाले तीन स्तम्भ कहां है ? और अति शब्द करने वाले बलशाली(अश्व या संचालक यंत्र) को रथ के साथ कब जोड़ा गया था ?॥९॥</div><div><br /></div><div><b>४०८.आ नासत्या गच्छतं हूयते हविर्मध्वः पिबतं मधुपेभिरासभिः ।</b></div><div><b>युवोर्हि पूर्वं सवितोषसो रथमृताय चित्रं घृतवन्तमिष्यति ॥१०॥</b></div><div>हे सत्यशील अश्विनीकुमारो ! आप यहां आएं। यहां हवि की आहुतियां दी जा रही हैं। मधु पीने वाले मुखों से मधुर रसो का पान करें। आप के विचित्र पुष्ट रथ को सूर्यदेव उषाकाल से पूर्व, यज्ञ के लिए प्रेरित करते है॥१०॥</div><div><br /></div><div><br /></div><div><b>४०९.आ नासत्या त्रिभिरेकादशैरिह देवेभिर्यातं मधुपेयमश्विना ।</b></div><div><b>प्रायुस्तारिष्टं नी रपांसि मृक्षतं सेधतं द्वेषो भवतं सचाभुवा ॥११॥</b></div><div>हे अश्विनीकुमारो! आप दोनो तैंतीस देवताओ सहित हमारे इस यज्ञ मे मधुपान के लिए पधांरे। हमारी आयु बढा़ये और हमारे पापो को भलीं-भांति विनष्ट करें। हमारे प्रति द्वेष की भावना को समाप्त करके सभी कार्यो मे सहायक बने॥११॥</div><div><br /></div><div><b>४१०.आ नो अश्विना त्रिवृता रथेनार्वाञ्चं रयिं वहतं सुवीरम् ।</b></div><div><b>शृण्वन्ता वामवसे जोहवीमि वृधे च नो भवतं वाजसातौ ॥१२॥</b></div><div>हे अश्विनीकुमारो! त्रिकोण रथ से हमारे लिये उत्तम धन-सामर्थ्यो को वहन करें। हमारी रक्षा के लिए आवाहनो को आप सुने। युद्ध के अवसरो पर हमारी बल-वृद्धी का प्रयास करें॥१२॥</div><div><br /></div>Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2372300295419510967.post-60496835443190913262011-03-02T14:39:00.000-08:002011-03-02T15:21:33.171-08:00ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३३<div style="text-align: center;"><b>[ऋषि - हिरण्यस्तूप अङ्गिरस। देवता - इन्द्र। छन्द - त्रिष्टुप]</b></div><div><b>३८४.एतायामोप गव्यन्त इन्द्रमस्माकं सु प्रमतिं वावृधाति ।</b></div><div><b>अनामृणः कुविदादस्य रायो गवां केतं परमावर्जते नः ॥१॥</b></div><div>गौऔ को प्राप्त करने की कामना से युक्त मनुष्य इन्द्रदेव के पास जायें। ये अपराजेय इन्द्रदेव हमारे लिए गोरूप धनो को बढा़ने की उत्तम बुद्धि देंगे। वे गौओ की प्राप्ति का उत्तम उपाय करेंगें॥१॥</div><div><br /></div><div><b>३८५.उपेदहं धनदामप्रतीतं जुष्टां न श्येनो वसतिं पतामि ।</b></div><div><b>इन्द्रं नमस्यन्नुपमेभिरर्कैर्य स्तोतृभ्यो हव्यो अस्ति यामन् ॥२॥</b></div><div>श्येन पक्षी के वेगपूर्वक घोंसले मे जाने के समान हम उन धन दाता इन्द्रदेव के समीप पहुंचकर स्तोत्रो से उनका पूजन करते है। युद्ध मे सहायता के लिए स्तोताओ द्वारा बुलाये जाने पर अपराजेय इन्द्रदेव अविलम्ब पहुंचते है॥२॥</div><div><br /></div><div><b>३८६.नि सर्वसेन इषुधीँरसक्त समर्यो गा अजति यस्य वष्टि ।</b></div><div><b>चोष्कूयमाण इन्द्र भूरि वामं मा पणिर्भूरस्मदधि प्रवृद्ध ॥३॥</b></div><div>सब सेनाओ के सेनापति इन्द्रदेव तरकसो को धारण कर गौओ एवं धन को जीतते हैं। हे स्वामी इन्द्रदेव! हमारी धन-प्राप्ति की इच्छा पूरी करने मे आप वैश्य की तरह विनिमय जैसा व्यवहार न करें॥३॥</div><div><br /></div><div><b>३८७.वधीर्हि दस्युं धनिनं घनेनँ एकश्चरन्नुपशाकेभिरिन्द्र ।</b></div><div><b>धनोरधि विषुणक्ते व्यायन्नयज्वानः सनकाः प्रेतिमीयुः ॥४॥</b></div><div>हे इन्द्रदेव! आपने अकेले ही अपने प्रचण्ड वज्र से धनवान दस्यु वृत्र का वध किया। जब उसके अनुचरो ने आपके उपर आक्रमण किया, तब यज्ञ विरोधी उन दानवो को आपने दृढ़तापूरवक नष्ट कर दिया ॥४॥</div><div><br /></div><div><b>३८८.परा चिच्छीर्षा ववृजुस्त इन्द्रायज्वानो यज्वभि स्पर्धमानाः ।</b></div><div><b>प्र यद्दिवो हरिव स्थातरुग्र निरव्रताँ अधमो रोदस्योः ॥५॥</b></div><div>हे इन्द्रदेव! याजको से स्पर्धा करनेवाले अयाज्ञिक मुंह छिपाकर भाग गये। हे अश्व-अधिष्ठित इन्द्रदेव! आप युद्ध मे अटल और प्रचण्ड सामर्थ्य वाले है। आपने आकाश, अंतरिक्ष और पृथ्वी से धर्म-व्रतहीनो को हटा दिया है॥५॥</div><div><br /></div><div><b>३८९.अयुयुत्सन्ननवद्यस्य सेनामयातयन्त क्षितयो नवग्वाः ।</b></div><div><b>वृषायुधो न वध्रयो निरष्टाः प्रवद्भिरिन्द्राच्चितयन्त आयन् ॥६॥</b></div><div>उन शत्रुओ ने इन्द्रदेव की निर्दोष सेना पर पूरी शक्ति से प्रहार किया, फिर भी हार गये। उनकी वही स्थिति हो गयी, जो शक्तिशाली वीर से युद्ध करने पर नपुंसक की होती है। अपनी निर्बलता स्वीकार करते हुये वे सब इन्द्रदेव से दूर चले गये॥६॥</div><div><br /></div><div><b>३९०.त्वमेतान्रुदतो जक्षतश्चायोधयो रजस इन्द्र पारे ।</b></div><div><b>अवादहो दिव आ दस्युमुच्चा प्र सुन्वत स्तुवतः शंसमावः ॥७॥</b></div><div>हे इन्द्रदेव! आपने रोने या हंसने वाले इन शत्रुओ को युद्ध करके मार दिया, दस्यु वृत्र को ऊंचा उठाकर आकाश से नीचे गिराकर जला दिया। आपने सोमयज्ञ करनेवालो और प्रशंसक स्तोताओ की रक्षा की॥७॥</div><div><br /></div><div><b>३९१.चक्राणासः परीणहं पृथिव्या हिरण्येन मणिना शुम्भमानाः ।</b></div><div><b>न हिन्वानासस्तितिरुस्त इन्द्रं परि स्पशो अदधात्सूर्येण ॥८॥</b></div><div>उन शत्रुओ ने पृथ्वी के उपर पना आधिपत्य स्थापित किता और स्वार्ण-रत्नादि से सम्पन्न हो गये, परन्तु वे इन्द्रदेव के साथ युद्ध मे ठहर ना सके। सूर्यदेव के द्वारा उन्हे दूर कर दिया गया॥८॥</div><div><br /></div><div><b>३९२.परि यदिन्द्र रोदसी उभे अबुभोजीर्महिना विश्वतः सीम् ।</b></div><div><b>अमन्यमानाँ अभि मन्यमानैर्निर्ब्रह्मभिरधमो दस्युमिन्द्र ॥९॥</b></div><div>हे इन्द्रदेव! आपने अपनी सामर्थ्य से द्युलोक और भूलोक का चारो ओर से उपयोह किया। हे इन्द्रदेव~ आपने अपने अनुचरो द्वारा विरोधियों पर विजय प्राप्त की। आपने मन्त्र शक्ति से(ज्ञान पूर्वक किये गये प्रयासो से) शत्रु पर विजय प्राप्त की॥९॥</div><div><br /></div><div><b>३९३.न ये दिवः पृथिव्या अन्तमापुर्न मायाभिर्धनदां पर्यभूवन् ।</b></div><div><b>युजं वज्रं वृषभश्चक्र इन्द्रो निर्ज्योतिषा तमसो गा अदुक्षत् ॥१०॥</b></div><div>मेघ रूप वृत्र के द्वारा रोक लिये जाने के कारण जो जल द्युलोक से पृथ्वी पर नहीं बरस सके एवं जलो के अभाव से भूमी श्स्यश्यामला न हो सकी, तब इन्द्रदेव ने अपने जाज्वल्यमान वज्र से अन्धकार रूपी मेघ को भेदकर गौ के समान जल का दोहन किया॥१०॥</div><div><br /></div><div><b>३९४.अनु स्वधामक्षरन्नापो अस्यावर्धत मध्य आ नाव्यानाम् ।</b></div><div><b>सध्रीचीनेन मनसा तमिन्द्र ओजिष्ठेन हन्मनाहन्नभि द्यून् ॥११॥</b></div><div>जल इन ब्रीहि यवादि रूप अन्न वृद्धि के लिये (मेघो से) बरसने लगे। उस समय नौकाओ के मार्ग पर (जलो मे) वृत्र बढ़ता रहा। इन्द्रदेव ने अपने शक्ति साधनो द्वारा एकाग्र मन से अल्प समयावधि मे ही उस वृत्र को मार गिराया॥११॥</div><div><br /></div><div><b>३९५.न्याविध्यदिलीबिशस्य दृळ्हा वि शृङ्गिणमभिनच्छुष्णमिन्द्रः ।</b></div><div><b>यावत्तरो मघवन्यावदोजो वज्रेण शत्रुमवधीः पृतन्युम् ॥१२॥</b></div><div>इन्द्रदेव ने गुफा मे सोये हुए वृत्र के किलो को ध्वस्त करके उस सींगवाले शोषक वृत्र को क्षत-विक्षत कर दिया। हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! आपने सम्पूर्ण वेग और बल से शत्रु सेना का विनाश किया॥१२॥</div><div><br /></div><div><b>३९६.अभि सिध्मो अजिगादस्य शत्रून्वि तिग्मेन वृषभेणा पुरोऽभेत् ।</b></div><div><b>सं वज्रेणासृजद्वृत्रमिन्द्रः प्र स्वां मतिमतिरच्छाशदानः ॥१३॥</b></div><div>इन्द्रदेव का तीक्ष्ण और शक्तिशाली वज्र शत्रुओ को लक्ष्य बनाकर उनके किलों को ध्वस्त करता है। शत्रुओ को वज्र से मारकर इन्द्रदेव स्वयं अतीव उत्साहित हुए॥१३॥</div><div><br /></div><div><b>३९७.आवः कुत्समिन्द्र यस्मिञ्चाकन्प्रावो युध्यन्तं वृषभं दशद्युम् ।</b></div><div><b>शफच्युतो रेणुर्नक्षत द्यामुच्छ्वैत्रेयो नृषाह्याय तस्थौ ॥१४॥</b></div><div>हे इन्द्रदेव! ’कुत्स’ ऋषि के प्रति सेन्ह होने से आपने उनकी रक्षा की और अपने शत्रुओ के साथ युद्ध करबे वाले श्रेष्ठ गुणवान ’दशद्यु’ ऋषि की भी आपने रक्षा की। उस सहमय अश्वो के खुरो से धूल आकाश तक फैल गई, तब शत्रुभय से जल मे छिपने वाले ’श्वैत्रेय’ नामक पुरुष की रक्षाकर आपने उसे जल से बाहर निकाला॥१४॥</div><div><br /></div><div><b>३९८.आवः शमं वृषभं तुग्र्यासु क्षेत्रजेषे मघवञ्छ्वित्र्यं गाम् ।</b></div><div><b>ज्योक्चिदत्र तस्थिवांसो अक्रञ्छत्रूयतामधरा वेदनाकः ॥१५॥</b></div><div>हे धनवान इन्द्रदेव ! क्षेत्र प्राप्ति की इच्छा से सशक्त जल-प्रवाहो मे घिरने वाले ’श्वित्र्य’(व्यक्तिविशेष) की आपने रक्षा की। वहीं जलो मे ठहरकर अधिक समय तक आप शत्रुओ से युद्ध करते रहे। उन शत्रुओ को जलो के नीचे गिराकर आपने मार्मिक पीड़ा पहुंचायी॥१५॥</div>Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2372300295419510967.post-67281669260585523502011-03-01T18:17:00.000-08:002011-03-02T15:22:32.735-08:00ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३२<div style="text-align: center;"><b>[ऋषि - हिरण्यस्तूप अङ्गिरस। देवता - इन्द्र। छन्द - त्रिष्टुप]</b></div><div><br /></div><div><b>३६९.इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्र वोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री ।</b></div><div><b>अहन्नहिमन्वपस्ततर्द प्र वक्षणा अभिनत्पर्वतानाम् ॥१॥</b></div><div>मेघो को विदिर्ण कर पानी बरसाने वाले, पर्वतिय नदियो ले तटो को निर्मित करने वाले वज्रधारी, पराक्रमी इन्द्रदेव के कार्य वर्णनीय है। उन्होने जो प्रमुख वीरतापूरण कार्य किये , वे ये ही हैं॥१॥</div><div><br /></div><div><b>३७०.अहन्नहिं पर्वते शिश्रियाणं त्वष्टास्मै वज्रं स्वर्यं ततक्ष ।</b></div><div><b>वाश्रा इव धेनवः स्यन्दमाना अञ्जः समुद्रमव जग्मुरापः ॥२॥</b></div><div>इन्द्रदेव के लिये त्वष्टादेव ने शब्द चालित वज्र का निर्माण किया, उसी से इन्द्रदेव ने मेघो को विदिर्ण कर जल बरसाया। रंभाती हुयी गौओ के समान वे जलप्रवाह वेग से समुद्र की ओर चले गये॥२॥</div><div><br /></div><div><b>३७१.वृषायमाणोऽवृणीत सोमं त्रिकद्रुकेष्वपिबत्सुतस्य ।</b></div><div><b>आ सायकं मघवादत्त वज्रमहन्नेनं प्रथमजामहीनाम् ॥३॥</b></div><div>अतिबलशाली इन्द्रदेव ने सोम को ग्रहण किया। यज्ञ मे तीन विशिष्ट पात्रो मे अभिषव किये हुये सोम का पान किया। ऐश्वर्यवान इन्द्रदेव ने बाण और वज्र को धारण कर मेघो मे प्रमुख मेघ को विदीर्ण किया॥३॥</div><div><br /></div><div><b>३७२.यदिन्द्राहन्प्रथमजामहीनामान्मायिनाममिनाः प्रोत मायाः ।</b></div><div><b>आत्सूर्यं जनयन्द्यामुषासं तादीत्ना शत्रुं न किला विवित्से ॥४॥</b></div><div>हे इन्द्रदेव ! आपने मेघो मे प्रथम उत्पन्न मेघ को वेध दिया। मेघरूप मे छाये धुन्ध(मायावियो) को दूर किया, फिर आकाश मे उषा और सूर्य को प्रकट किया। अब कोई भी अवरोधक शत्रु शेष न रहा॥४॥</div><div><br /></div><div><b>३७३.अहन्वृत्रं वृत्रतरं व्यंसमिन्द्रो वज्रेण महता वधेन ।</b></div><div><b>स्कन्धांसीव कुलिशेना विवृक्णाहिः शयत उपपृक्पृथिव्याः ॥५॥</b></div><div>इन्द्रदेव ने घातक दिव्य वज्र से वृत्रासुर का वध किया। वृक्ष की शाखाओ को कुल्हाड़े से काटने के समान उसकी भुजाओ को काटा ऐर तने की तरह इसे काटकर भूमि पर गिरा दिया॥५॥</div><div><br /></div><div><b>३७४.अयोद्धेव दुर्मद आ हि जुह्वे महावीरं तुविबाधमृजीषम् ।</b></div><div><b>नातारीदस्य समृतिं वधानां सं रुजानाः पिपिष इन्द्रशत्रुः ॥६॥</b></div><div>अपने को अप्रतिम योद्धा मानने वाले मिथ्या अभिमानी वृत्र ने महाबली, शत्रुवेधक, शत्रुनाशक इन्द्रदेव को ललकारा और इन्द्रदेव के आघातो को सहन न कर गिरते हुये नदियो के किनारो को तोड़ दिया॥६॥</div><div><br /></div><div><b>३७५.अपादहस्तो अपृतन्यदिन्द्रमास्य वज्रमधि सानौ जघान ।</b></div><div><b>वृष्णो वध्रिः प्रतिमानं बुभूषन्पुरुत्रा वृत्रो अशयद्व्यस्तः ॥७॥</b></div><div>हाथ और पांव के कट जाने पर भी वृत्र ने इन्द्रदेव से युद्ध करने का प्रयास किया। इन्द्रदेव ने उसके पर्वत सदृश कन्धो पर वज्र का प्रहार किया। इतने पर भी वह वर्षा करने मे समर्थ इन्द्रदेव के सम्मुख वह डटा रहा। अन्ततः इन्द्रदेव के आघातो से ध्वस्त होकर भूमि पर गिर पड़ा॥७॥</div><div><br /></div><div><b>३७६.नदं न भिन्नममुया शयानं मनो रुहाणा अति यन्त्यापः ।</b></div><div><b>याश्चिद्वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत्तासामहिः पत्सुतःशीर्बभूव ॥८॥</b></div><div>जैसे नदी की बाढ़ तटो को लांघ जाती है है, वैसे ही मन को प्रसन्न करने वाले जल(जल अवरोधक) वृत्र को लांघ जाते है। जिन जलो को ’वृत्र’ ने अपने बल से आबद्ध किया था, उन्ही के नीचे ’वृत्र’ मृत्युशय्या पर पड़ा सो रहा है॥८॥</div><div><br /></div><div><b>३७७.नीचावया अभवद्वृत्रपुत्रेन्द्रो अस्या अव वधर्जभार ।</b></div><div><b>उत्तरा सूरधरः पुत्र आसीद्दानुः शये सहवत्सा न धेनुः ॥९॥</b></div><div>वृत्र की माता शुककर वृत्र का संरक्षण करने लगी, इन्द्रदेव के प्रहार से बचाव के लिये वह वृत्र पर सो गयी. फिर भी इन्द्रदेव ने नीचे से उस पर प्रहार किया। उससमय माता ऊपर और पुत्र नीचे था, जैसे गाय अपने बछड़े के साथ सोती है॥९॥</div><div><br /></div><div><b>३७८.अतिष्ठन्तीनामनिवेशनानां काष्ठानां मध्ये निहितं शरीरम् ।</b></div><div><b>वृत्रस्य निण्यं वि चरन्त्यापो दीर्घं तम आशयदिन्द्रशत्रुः ॥१०॥</b></div><div>एक स्थान पर न रुकने वाले अविश्रांत (मेघरुप) जल-प्रवाहो के मध्य वृत्र का अनाम शरीर छिपा रहता है। वह दिर्घ निद्रा मे पड़ा रहता है, उसके ऊपर जल प्रवाह बना रहता है॥१०॥</div><div><br /></div><div><b>३७९.दासपत्नीरहिगोपा अतिष्ठन्निरुद्धा आपः पणिनेव गावः ।</b></div><div><b>अपां बिलमपिहितं यदासीद्वृत्रं जघन्वाँ अप तद्ववार ॥११॥</b></div><div>’पणि’ नामक असुर ने जिस प्रकार गौओ अथवा किरणो को अवरूद्ध कर रखा था, उसी प्रकार जल-प्रवाहो को अगतिशील वृत्र ने रोक रखा था। वृत्र का वध कर वे प्रवाह खोल दिये गये॥११॥</div><div><br /></div><div><b>३८०.अश्व्यो वारो अभवस्तदिन्द्र सृके यत्त्वा प्रत्यहन्देव एकः ।</b></div><div><b>अजयो गा अजयः शूर सोममवासृजः सर्तवे सप्त सिन्धून् ॥१२॥</b></div><div>हे इन्द्रदेव! जब कुशल योद्धा वृत्र ने वज्र पर प्रहार किया, तब घोड़े की पूंछ हिलाने के तरह , बहुत आसानी से आपने अविचलित भाव से उसे दूर कर दिया। हे महाबली इन्द्रदेव ! सोम और गौओ को जीतकर आपने (वृत्र के अवरोध को नष्ट कर) गंगादि सरिताओ को प्रवाहित किया॥१२॥</div><div><br /></div><div><b>३८१.नास्मै विद्युन्न तन्यतुः सिषेध न यां मिहमकिरद्ध्रादुनिं च ।</b></div><div><b>इन्द्रश्च यद्युयुधाते अहिश्चोतापरीभ्यो मघवा वि जिग्ये ॥१३॥</b></div><div>युद्ध मे वृत्रद्वारा प्रेरित भीषण विद्युत, भयंकर मेघ गर्जन, जल और हिम वर्षा भी इन्द्रदेव को रोक नही सके। वृत्र के प्रचण्ड घातक प्रयोग भी निरर्थक हुए। उस युद्ध मे असुर के कर प्रहार को इन्द्रदेव ने निरस्त करके उसे जीत लिया॥१३॥</div><div><br /></div><div><b>३८२.अहेर्यातारं कमपश्य इन्द्र हृदि यत्ते जघ्नुषो भीरगच्छत् ।</b></div><div><b>नव च यन्नवतिं च स्रवन्तीः श्येनो न भीतो अतरो रजांसि ॥१४॥</b></div><div>हे इन्द्रदेव! वृत्र का वध करते समय यदि आपके हृदय मे भय उत्पन्न होता तो किस दूसरे वीर को असुर वध के लिये देखते ? ऐसा करके आपने निन्यानबे (लगभग सम्पूर्ण) जल प्रवाहो को बाज पक्षी की तरह सहज ही पार कर लिया॥१४॥</div><div><br /></div><div><b>३८३.इन्द्रो यातोऽवसितस्य राजा शमस्य च शृङ्गिणो वज्रबाहुः ।</b></div><div><b>सेदु राजा क्षयति चर्षणीनामरान्न नेमिः परि ता बभूव ॥१५॥</b></div><div>हाथो मे वज्रधारण करने वाले इन्द्रदेव मनुष्य, पधु आदि सभी स्थावर-जंगम प्राणियो के राजा है। शान्त एवं क्रूर प्रकृति के सभी प्राणी उनके चारो ओर उसी प्रकार रहते है, जैसे चक्र की नेमि के चारो ओर उससे ’अरे’ होते है॥१५॥</div>Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2372300295419510967.post-701137080453090892011-02-28T20:27:00.000-08:002011-03-02T15:22:49.711-08:00ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३१<span><div style="text-align: center;"><span><b>[ऋषि -हिरण्यस्तूप अंङ्गिरस। देवता- अग्नि। छन्द जगती ८,१६,१८ त्रिष्टुप।]</b></span></div><div><span><b><br /></b></span></div><b>३५१.त्वमग्ने प्रथमो अङ्गिरा ऋषिर्देवो देवानामभवः शिवः सखा ।</b><br /><b>तव व्रते कवयो विद्मनापसोऽजायन्त मरुतो भ्राजदृष्टयः ॥१॥</b></span><div><span>हे अग्निदेव! आप सर्वप्रथम अंगिरा ऋषि के रूप मे प्रकट हुये, तदनन्तर सर्वद्रष्टा, दिव्यतायुक्त, कल्याणकारी और देवो के सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप मे प्रतिष्ठित हुए। आप के व्रतानुशासन से मरूद गण क्रान्तदर्शी कर्मो के ज्ञाता और श्रेष्ठ तेज आयुधो से युक्त हुये है॥१॥</span></div><div><span><b><br />३५२.त्वमग्ने प्रथमो अङ्गिरस्तमः कविर्देवानां परि भूषसि व्रतम् ।</b><br /><b>विभुर्विश्वस्मै भुवनाय मेधिरो द्विमाता शयुः कतिधा चिदायवे ॥२॥</b></span></div><div><span>हे अग्निदेव! आप अंगिराओ मे आद्य और शिरोमणि है। आप देवताओ के नियमो को सुशोभित करते है। आप संसार मे व्याप्त तथा दो माताओ वाले दो अरणियो से समुद्भूत होने से बुद्धिमान है। आप मनुष्यों के हितार्थ सर्वत्र विद्यमान रहते हैं॥२॥<br /><br /></span></div><div><span style="font-weight:bold;">३५३.त्वमग्ने प्रथमो मातरिश्वन आविर्भव सुक्रतूया विवस्वते ।<br />अरेजेतां रोदसी होतृवूर्येऽसघ्नोर्भारमयजो महो वसो ॥३॥</span></div><div><span><div>हे अग्निदेव! आप ज्योतिर्मय सूर्यदेव के पूर्व और वायु के भी पूर्व आविर्भूत हुए। आपके बल से आकाश और पृथ्वी कांप गये। होता रूप मे वरण किये जाने पर आपने यज्ञ के कार्य का संपादन किया। देवो का यजनकार्य पूर्ण करने के लिये आप यज्ञ वेदी पर स्थापित हुए ॥३॥</div><div style="font-weight: bold; "><br /></div><br /></span></div><div><span style="font-weight:bold;">३५४.त्वमग्ने मनवे द्यामवाशयः पुरूरवसे सुकृते सुकृत्तरः ।<br />श्वात्रेण यत्पित्रोर्मुच्यसे पर्या त्वा पूर्वमनयन्नापरं पुनः ॥४॥</span></div><div><span><div>हे अग्निदेव! आप अत्यन्त श्रेष्ठ कर्म वाले है। आपने मनु और सुकर्मा-पुरूरवा को स्वर्ग के आशय से अवगत कराया। जब आप मातृ पितृ रूप दो काष्ठो के मंथन से उत्पन्न हुये, तो सूर्यदेव की तरह पूर्व से पश्चिम तक व्याप्त हो गये॥४॥</div><div style="font-weight: bold; "><br /></div></span></div><div><span style="font-weight:bold;">३५५.त्वमग्ने वृषभः पुष्टिवर्धन उद्यतस्रुचे भवसि श्रवाय्यः ।<br />य आहुतिं परि वेदा वषट्कृतिमेकायुरग्रे विश आविवाससि ॥५॥</span></div><div><span><div>हे अग्निदेव! आप बड़े बलिष्ठ और पुष्टिवर्धक है। हविदाता, स्त्रुवा हाथ मे लिये स्तुति को उद्यत है, जो वषटकार युक्त आहुति देता है, उस याजक को आप अग्रणी पुरुष के रूप मे प्रतिष्ठित करते है॥५॥</div><div style="font-weight: bold; "><br /></div><br /></span></div><div><span style="font-weight:bold;">३५६.त्वमग्ने वृजिनवर्तनिं नरं सक्मन्पिपर्षि विदथे विचर्षणे ।<br />यः शूरसाता परितक्म्ये धने दभ्रेभिश्चित्समृता हंसि भूयसः ॥६॥</span></div><div><span><div>हे विशिष्ट द्रष्टा अग्निदेव! आप पापकर्मियो का भी उद्धार करते है। बहुसंख्यक शत्रुओ का सब ओर से आक्रमण होने पर भी थोड़े से वीर पुरुषो को लेकर सब शत्रुओ को मार गिराते है॥६॥</div><div><b><br /></b></div></span></div><div><span><b>३५७.त्वं तमग्ने अमृतत्व उत्तमे मर्तं दधासि श्रवसे दिवेदिवे ।</b><br /><b>यस्तातृषाण उभयाय जन्मने मयः कृणोषि प्रय आ च सूरये ॥७॥</b><br />हे अग्निदेव! आप अपने अनुचर मनुष्यो को दिनप्रतिदिन अमरपद का अधिकारी बनाते है, जिसे पाने की उत्कट अभिलाषा देवगण और मनुष्य दोनो की करते रहते है। वीर पुरुषो को अन्न और धन द्वारा सुखी बनाते हैं॥७॥</span></div><div><span><div style="font-weight: normal; "><span class="Apple-style-span" style="font-weight: bold; "><br /></span></div><div style="font-weight: normal; "><span class="Apple-style-span" style="font-weight: bold; ">३५८.त्वं नो अग्ने सनये धनानां यशसं कारुं कृणुहि स्तवानः ।</span></div></span></div><div><span style="font-weight:bold;">ऋध्याम कर्मापसा नवेन देवैर्द्यावापृथिवी प्रावतं नः ॥८॥</span></div><div>हे अग्निदेव! प्रशंसित होने वाले आप हमे धन प्राप्त करने की सामर्थ्य दें। हमे यशस्वी पुत्र प्रदान करें। नये उत्साह के साथ हम यज्ञादि कर्म करें। द्यावा, पृथ्वी और देवगण सब प्रकार से रक्षा करें॥८॥</div><div><span><div><span><div><b><br /></b></div></span></div><b>३५९.त्वं नो अग्ने पित्रोरुपस्थ आ देवो देवेष्वनवद्य जागृविः ।</b><br /><b>तनूकृद्बोधि प्रमतिश्च कारवे त्वं कल्याण वसु विश्वमोपिषे ॥९॥</b><br />हे निर्दोष अग्निदेव! सब देवो मे चैतन्य रूप आप हमारे मातृ पितृ (उत्पन्न करने वाले) हैं। आप ने हमे बोध प्राप्त करने की सामर्थ्य दी, कर्म को प्रेरित करने वाली बुद्धि विकसित की। हे कल्याणरूप अग्निदेव ! हमे आप सम्पूर्ण ऐश्वर्य भी प्रदान करें॥९॥</span></div><div><span><div><b><br /></b></div></span></div><div><span><b>३६०.त्वमग्ने प्रमतिस्त्वं पितासि नस्त्वं वयस्कृत्तव जामयो वयम् ।</b><br /><b>सं त्वा रायः शतिनः सं सहस्रिणः सुवीरं यन्ति व्रतपामदाभ्य ॥१०॥</b><br /><div>हे अग्निदेव! आप विशिष्ट बुद्धि-सम्पन्न, हमारे पिता रूप, आयु प्रदाता और बन्धु रूप है। आप उत्तमवीर, अटलगुण सम्पन्न, नियम-पालक और असंख्यो धनो से सम्पन्न है॥१०॥</div><div style="font-weight: bold; "><br /></div></span></div><div><span style="font-weight:bold;"><br /></span></div><div><span><b>३६१.त्वामग्ने प्रथममायुमायवे देवा अकृण्वन्नहुषस्य विश्पतिम् ।</b><br /><b>इळामकृण्वन्मनुषस्य शासनीं पितुर्यत्पुत्रो ममकस्य जायते ॥११॥</b><br /><div>हे अग्निदेव! देवताओ ने सर्वप्रथम आपको मनुष्यो के हित के लिये राजा रूप मे स्थापित किया। तपश्चात जब हमारे (हिरण्यस्तूप ऋषि) पिता अंगिरा ऋषि ने आपको पुत्र रूप मे आविर्भूत किया, तब देवतओ ने मनु की पुत्री इळा को शासन-अनुशासन(धर्मोपदेश) कर्त्री बनाया॥११॥</div><div style="font-weight: bold; "><br /></div></span></div><div><span style="font-weight:bold;"><br /></span></div><div><span style="font-weight:bold;">३६२.त्वं नो अग्ने तव देव पायुभिर्मघोनो रक्ष तन्वश्च वन्द्य ।<br />त्राता तोकस्य तनये गवामस्यनिमेषं रक्षमाणस्तव व्रते ॥१२॥</span></div><div><span><div>हे अग्निदेव! आप वन्दना के योग्य है। आप रक्षण साधनो से धनयुक्त हमारी रक्षा करें। हमारी शारीरिक क्षमता को अपनी सामर्थ्य से पोषित करें। शीघ्रतापूर्वक संरक्षित करने वाले आप हमारे पुत्र-पौत्रादि और गवादि पशुओं के संरक्षक हों॥१२॥</div><div style="font-weight: bold; "><br /></div><br /></span></div><div><span><b>३६३.त्वमग्ने यज्यवे पायुरन्तरोऽनिषङ्गाय चतुरक्ष इध्यसे ।</b><br /><b>यो रातहव्योऽवृकाय धायसे कीरेश्चिन्मन्त्रं मनसा वनोषि तम् ॥१३॥</b><br /><div>हे अग्निदेव आप याजको के पोषक है, जो सज्जन हविदाता आपको श्रेष्ठ, पोषक हविष्यान्न देते है, आप उनकी सभी प्रकार से रक्षा करते हैं। आप साधको(उपासको) की स्तुति हृदय से स्वीकार करते है॥१३॥</div><div style="font-weight: bold; "><br /></div></span></div><div><span style="font-weight:bold;"><br /></span></div><div><span><b>३६४.त्वमग्न उरुशंसाय वाघते स्पार्हं यद्रेक्णः परमं वनोषि तत् ।</b><br /><b>आध्रस्य चित्प्रमतिरुच्यसे पिता प्र पाकं शास्सि प्र दिशो विदुष्टरः ॥१४॥</b><br /><div>हे अग्निदेव! आप स्तुति करने वाले ऋत्विजो को धन प्रदान करते गौ। आप दुर्बलो को पिता रूप मे पोषण देनेवाले और अज्ञानी जनो को विशिष्ट ज्ञान प्रदान करने वाले मेधावी है॥१४॥</div><div style="font-weight: bold; "><br /></div></span></div><div><span><b>३६५.त्वमग्ने प्रयतदक्षिणं नरं वर्मेव स्यूतं परि पासि विश्वतः ।</b><br /><b>स्वादुक्षद्मा यो वसतौ स्योनकृज्जीवयाजं यजते सोपमा दिवः ॥१५॥</b><br />हे अग्निदेव! आप पुरुषार्थी यजमानो की कवच रूप मे सुरक्षा करते है। जो अपने घर मे मधुर हविष्यान्न देकर सुखप्रद यज्ञ करता है वह घर स्वर्ग की उपमा के योग्य होता है॥१५॥</span></div><div><span style="font-weight:bold;"><br /></span></div><div><span><b>३६६.इमामग्ने शरणिं मीमृषो न इममध्वानं यमगाम दूरात् ।</b><br /><b>आपिः पिता प्रमतिः सोम्यानां भृमिरस्यृषिकृन्मर्त्यानाम् ॥१६॥</b><br />हे अग्निदेव! आप यज्ञ कर्म करते समय हुई हमारी भूलों को क्षमा करे, जो लोग यज्ञ मार्ग से भटक गये है, उन्हे भी क्षमा करें। आप सोमयाग करने वाले याजको के बन्धु और पिता है। सद्बुद्धि प्रदान करनेवाले ऐर ऋषिकर्म के कुशल प्रणेता है॥१६॥</span></div><div><span style="font-weight:bold;"><br /></span></div><div><span><b>३६७.मनुष्वदग्ने अङ्गिरस्वदङ्गिरो ययातिवत्सदने पूर्ववच्छुचे ।</b><br /><b>अच्छ याह्या वहा दैव्यं जनमा सादय बर्हिषि यक्षि च प्रियम् ॥१७॥</b><br />हे पवित्र अंगिरा अग्निदेव! (अंगो मे व्याप्त अग्नि) आप मनु, अंगिरा(ऋषि), ययाति जैसे पुरुषो के साथ देवो को ले जाकर यज्ञ स्थल पर सुशोभित हों। उन्हे कुश के आसन पर प्रतिष्ठित करते हुये सम्मानित करें॥१७॥</span></div><div><span><b><br /></b></span></div><div><span style="font-weight:bold;">३६८.एतेनाग्ने ब्रह्मणा वावृधस्व शक्ती वा यत्ते चकृमा विदा वा ।<br />उत प्र णेष्यभि वस्यो अस्मान्सं नः सृज सुमत्या वाजवत्या ॥१८॥<br /></span></div><div><span><div>हे अग्निदेव! इन मंत्र रूप स्तुतियों से आप वृद्धि को प्राप्त करें। अपनी शक्ति या ज्ञान से हमने जो यजन किया है, उससे हमे ऐश्वर्य प्रदान करें। बल बढाने वाले अन्नो के साथ शुभ मति से हमे सम्पन्न करें॥१८॥</div><div style="font-weight: bold; "><br /></div></span></div>Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2372300295419510967.post-66612958841548388272009-08-09T17:56:00.001-07:002009-08-09T18:16:59.036-07:00ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३०<p align="center"><strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">[ऋषि- शुनः शेप आजीगर्ति। देवता १-१६ इन्द्र, १७-१९ अश्विनीकुमार, २०-२२ उषा। छन्द १-१०,१२-१५ तथा १७-२२ गायत्री,११ पादनिचृत् गायत्री,१६ त्रिष्टूप्।] <br /></span></strong></p> <blockquote> <div style="padding-bottom: 0px; margin: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; display: inline; float: none; padding-top: 0px" id="scid:0767317B-992E-4b12-91E0-4F059A8CECA8:7ee9f66f-df82-43ac-b1b6-f48296cd1c8a" class="wlWriterEditableSmartContent"><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">Technorati टैग्स: {टैग-समूह}</span><a href="http://technorati.com/tags/%e0%a4%b6%e0%a5%81%e0%a4%a8%e0%a4%83+%e0%a4%b6%e0%a5%87%e0%a4%aa+%e0%a4%86%e0%a4%9c%e0%a5%80%e0%a4%97%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a4%bf" rel="tag"><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">शुनः शेप आजीगर्ति</span></a><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">,</span><a href="http://technorati.com/tags/%e0%a4%87%e0%a4%a8%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%b0" rel="tag"><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">इन्द्र</span></a><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">,</span><a href="http://technorati.com/tags/%e0%a4%85%e0%a4%b6%e0%a5%8d%e2%80%8d%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%a8%e0%a5%80%e0%a4%95%e0%a5%81%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0" rel="tag"><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">अश्विनीकुमार</span></a><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">,</span><a href="http://technorati.com/tags/%e0%a4%89%e0%a4%b7%e0%a4%be" rel="tag"><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">उषा</span></a><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">,</span><a href="http://technorati.com/tags/%e0%a4%97%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%80" rel="tag"><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">गायत्री</span></a><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">,</span><a href="http://technorati.com/tags/%e0%a4%aa%e0%a4%be%e0%a4%a6%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%9a%e0%a5%83%e0%a4%a4%e0%a5%8d+%e0%a4%97%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%80" rel="tag"><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">पादनिचृत् गायत्री</span></a><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">,</span><a href="http://technorati.com/tags/%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%bf%e0%a4%b7%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%82%e0%a4%aa%e0%a5%8d" rel="tag"><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">त्रिष्टूप्</span></a></div><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"> </span><p align="justify"><strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">३२९.आ व इन्द्रं क्रिविं यथा वाजयन्तः शतक्रतुम्। मंहिष्ठं सिञ्च इन्दुभिः॥१॥<br /></span></strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">जिस प्रकार अन्न की इच्छा वाले,खेत मे पानी सींचते है, उसी तरह हम बल की कामना वाले साधक इन महान् इन्द्रदेव को सोमरस से सींचते है॥१॥<br /></span><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"><strong></strong></span></p> <p align="justify"><strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">३३०.शतं वा यः शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम्। एदु निम्नं न रीयते॥२॥<br /></span></strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">नीचे की ओर जाने वाले जल के समान सैकड़ो कलश सोमरस, सहस्त्रो कलश दूध मे मिश्रित होकर इन्द्रदेव को प्राप्त होता है॥२॥<br /></span><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"><strong></strong></span></p> <p align="justify"><strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">३३१.सं यन्मदाय शुष्मिण एना ह्यस्योदरे। समुद्रो न व्यचो दधे॥३</span></strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">॥</span><strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"> <br /></span></strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">समुद्र मे एकत्र हुये जल के सदृश सोमरस इन्द्रदेव के पेट मे एकत्र होकर उन्हे हर्ष प्रदान करता है॥३॥<br /></span><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"><strong></strong></span></p> <p align="justify"><strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">३३२.अयमु ते समतसि कपोत इव गर्भधिम्। वचस्तच्चिन्न ओहसे॥४॥<br /></span></strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">हे इन्द्रदेव ! कपोत जिस स्नेह के साथ गर्भवती कपोती के पास रहता है, उसी प्रकार यह सोमरस आपके लिये प्रस्तुत है। आप हमारे निवेदन को स्वीकारे॥४॥<br /></span><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"><strong></strong></span></p> <p align="justify"><strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">३३३.स्तोत्रं राधानां पते गिर्वाहो वीर यस्य ते। विभूतिरस्तु सूनृता॥५॥<br /></span></strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">जो (स्तोतागण), हे इन्द्र! हे धनाधिपति! हे स्तुतियों के आश्रयभूत! हे वीर! (इत्यादि) स्तुतियाँ करते है, उनके लिये आपकी विभूतियाँ प्रिय एवं सत्य सिद्ध हो॥५</span><span class="Apple-style-span" style="font-weight: bold; "><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">॥</span></span><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"><br /></span><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"><strong></strong></span></p> <p align="justify"><strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">३३४.ऊर्ध्वस्तिष्ठा न ऊतयेऽस्मिन्वाजे शतक्रतो। समन्येषु ब्रवावहै॥६॥<br /></span></strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">सैकड़ो यज्ञादि श्रेष्ठ कार्यो को सम्पन्न करने वाले हे इन्द्रदेव! संघर्षो (जीवन संग्राम) मे हमारे संरक्षण के लिये आप प्रयत्नशील रहे। हम आप से अन्य (श्रेष्ठ) कार्यो के विषय मे भी परस्पर विचार-विनिमय करते रहे॥६॥<br /></span><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"><strong></strong></span></p> <p align="justify"><strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">३३५.योगेयोगे तवस्तरं वाजेवाजे हवामहे। सखाय इन्द्रमूतये॥७॥<br /></span></strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">सत्कर्मो के शुभारम्भ मे एवं हर प्रकार के संग्राम मे बलशाली इन्द्रदेव का हम अपने संरक्षण के लिये मित्रवत आवाहन करते हैं॥७॥<br /></span><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"><strong></strong></span></p> <p align="justify"><strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">३३६.आ घा गमद्यदि श्रवत्सहस्रिणीभिरूतिभिः। वाजेभिरुप नो हवम्॥८॥<br /></span></strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">हमारी प्रार्थना से प्रसन्न होकर वे इन्द्रदेव निश्चित ही सहस्त्रो रक्षा साधनो तथा अन्न ,ऐश्वर्य आदि सहित हमारे पास आयेंगे॥८॥<br /></span><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"><strong></strong></span></p> <p align="justify"><strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">३३७.अनु प्रत्नस्यौकसो हुवे तुविप्रतिं नरम्। यं ते पूर्वं पिता हुवे॥९॥<br /></span></strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">हम सहायता के लिये स्वर्गधाम के वासी, बहुतो के पास पहुँचकर उन्हे नेतृत्व प्रदान करने वाले इन्द्रदेव का आवाहन करते है। हमारे पिता ने भी ऐसा ही किया था॥९॥<br /></span><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"><strong></strong></span></p> <p align="justify"><strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">३३८.तं त्वा वयं विश्ववारा शास्महे पुरुहूत। सखे वसो जरितृभ्यः॥१०॥<br /></span></strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">हे विश्ववरणीय इन्द्रदेव! बहुतो द्वारा आवाहित किये जाने वाले आप स्तोताओ के आश्रयदाता और मित्र है। हम ऋत्विग्गण आओअ से उन स्तोताओ को अनुगृहीत करने की प्रार्थना करते है॥१०॥<br /></span><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"><strong></strong></span></p> <p align="justify"><strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">३३९.अस्माकं शिप्रिणीनां सोमपाः सोमपाव्नाम्। सखे वज्रिन्सखीनाम्॥११॥ </span></strong></p> <p align="justify"><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">हे सोम पीने वाले वज्रधारी इन्द्रदेव! सोम पीने के योग्य हमारे प्रियजनो और मित्रजनो मे आप ही श्रेष्ठ सामर्थ्य वाले है॥११॥<br /></span></p> <span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"><strong></strong> </span><p align="justify"><strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">३४०.तथा तदस्तु सोमपाः सखे वज्रिन्तथा कृणु। यथा त उश्मसीष्टये॥१२॥<br /></span></strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">हे सोम पीने वाले वज्रधारी इन्द्रदेव! आप हमारी इच्छा पूर्ण करें। हम इष्टप्राप्ति के निमित्त आपकी कामना करे और वह पूर्ण हो॥१२॥<br /></span><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"><strong></strong></span></p> <p align="justify"><strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">३४१.रेवतीर्नः सधमाद इन्द्रे सन्तु तुविवाजाः। क्षुमन्तो याभिर्मदेम ॥१३॥<br /></span></strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">जिन (इन्द्रदेव) की कृपा से हम धन-धान्य से परिपूर्ण होकर प्रफुल्लित होते हैं। उन इन्द्रदेव के प्रभाव से हमारी गौएँ भी प्रचुर मात्रा मे दुग्ध-घृतादि देने की सामर्थ्य वाली हों॥१३॥<br /></span><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"><strong></strong></span></p> <p align="justify"><strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">३४२.आ घ त्वावान्त्मनाप्त स्तोतृभ्यो धृष्णवियानः। ऋणोरक्षं न चक्र्योः॥१४॥<br /></span></strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">हे धैर्यशाली इन्द्रदेव! आप कल्याणकारी बुद्धि से स्तुति करने वाले स्तोताओ को अभीष्ट पदार्थ अवश्य प्रदान करें। आप स्तोताओ को धन देने के लिये रथ के चक्रो को मिलाने वाली धुरी के समान ही सहायक है॥१४॥<br /></span><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"><strong></strong></span></p> <p align="justify"><strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">३४३.आ यद्दुवः शतक्रतवा कामं जरितॄणाम्। ऋणोरक्षं न शचीभिः॥१५॥<br /></span></strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">हे इन्द्रदेव! आप स्तोताओ द्वारा इच्छित धन उन्हे प्रदान करें। जिस प्रकार रथ की गति से उसके अक्ष को भी गति मिलती है, उसी प्रकार स्तुतिकर्ताओ को धन की प्राप्ति हो॥१५॥<br /></span><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"><strong></strong></span></p> <p align="justify"><strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">३४४.शश्वदिन्द्रः पोप्रुथद्भिर्जिगाय नानदद्भिः शाश्वसद्भिर्धनानि। <br />स नो हिरण्यरथं दंसनावान्स नः सनिता सनये स नोऽदात् ॥१६॥<br /></span></strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">सदैव स्फूर्तिवान,सदैव (शब्दवान) हिनहिनाते हुये तीव्र गतिशील अश्वो के द्वारा जो इन्द्रदेव शत्रुओ के धन को जीतते है; उन पराक्रमशील इन्द्रदेव ने अपने स्नेह से अपने स्नेह से हमे सोने का रथ (अकूत-वैभव) दिया है॥१६॥<br /></span><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"><strong></strong></span></p> <p align="justify"><strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">३४५.आश्विनावश्वावत्येषा यातं शवीरया। गोमद्दस्रा हिरण्यवत्॥१७॥ <br /></span></strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">हे शक्तिशाली अश्विनीकुमारो! आप बलशाली अश्वो के साथ अन्नो, गौओ और् स्वर्णादि धनो को लेकर यहाँ पधारें॥१७॥<br /></span><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"><strong></strong></span></p> <p align="justify"><strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">३४६.समानयोजनो हि वां रथो दस्रावमर्त्यः। समुद्रे अश्विनेयते॥१८॥<br /></span></strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">हे अश्विनीकुमारो! आप दोनो के लिये जुतने वाला एक ही रथ आकाशमार्ग से जाता है। उसे कोई नष्ट नही कर सकता॥१८॥<br /></span><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"><strong></strong></span></p> <p align="justify"><strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">३४७.न्यघ्न्यस्य मूर्धनि चक्रं रथस्य येमथुः। परि द्यामन्यदीयते॥१९<span class="Apple-style-span" style="font-family: Georgia; ">॥</span><br /></span></strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">हे अश्विनीकुमारो! आप के रथ (पोषण प्रक्रिया) का एक चक्र पृथ्वी के मूर्धा भाग मे (पर्यावरण चक्र के रूप मे) स्थित है और दूसरा चक्र द्युलोक मे सर्वत्र गतिशील है॥१९॥<br /></span><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"><strong></strong></span></p> <p align="justify"><strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">३४८.कस्त उषः कधप्रिये भुजे मर्तो अमर्त्ये। कं नक्षसे विभावरि॥२०<span class="Apple-style-span" style="font-family: Georgia; ">॥</span><br /></span></strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">हे स्तुति-प्रिय, अमर, तेजोमयी उषे! कौन मनुष्य आपका अनुदान प्राप्त करता है ? किसे आप प्राप्त होती है? (अर्थात प्रायः सभी मनुष्य आलस्यादि दोषो के कारणा आप का लाभ पूर्णतया नही प्राप्त कर पाते)॥२०॥<br /></span><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"><strong></strong></span></p> <p align="justify"><strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">३४९.वयं हि ते अमन्मह्यान्तादा पराकात्। अश्वे न चित्रे अरुषि ॥२१॥<br /></span></strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">हे अश्व (किरणो) युक्त चित्र विचित्र प्रकाश वाली उषे! हम दूर अथवा पास से आपकी महिमा समझने मे समर्थ नही है॥२१॥<br /></span><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"><strong></strong></span></p> <p align="justify"><strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">३५०.त्वं त्येभिरा गहि वाजेभिर्दुहितर्दिवः। अस्मे रयिं नि धारय ॥२२॥</span><span class="Apple-tab-span" style="white-space:pre"><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"> </span></span><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';"> <br /></span></strong><span class="Apple-style-span" style="font-family:'times new roman';">हे द्युलोक की पुत्री उषे! आप उन (दिव्य) बलो के साथ यहाँ आयें और हमे उत्तम ऐश्वर्य धारण करायें॥२२॥ </span></p></blockquote>Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2372300295419510967.post-82657120456006487882009-07-29T08:20:00.000-07:002009-07-29T08:23:17.424-07:00ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २९<div style="text-align: center;"><b>[ऋषि- शुन:शेप आजीगर्ति। देवता इन्द्र।छन्द पंक्ति।]</b></div><div><br /></div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३२२.यच्चिद्धि सत्य सोमपा अनाशस्ता इव स्मसि। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥१॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">हे सत्य स्वरूप सोमपायी इन्द्रदेव! यद्यपि हम प्रशंसा के पात्र तो नही है, तथापि हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! हमे सहस्त्रो श्रेष्ठ गौंएँ और घोड़े प्रदान करके संपन्न बनायें॥१॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३२३.शिप्रिन्वाजानां पते शचीवस्तव दंसना। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥२॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">हे इन्द्रदेव ! आप शक्तिशाली, शिरस्त्राण धारण करने वाले, बलो के अधीश्वर और ऐश्वर्यशाली है। आपका सदैव हम पर अनुग्रह बना रहे। हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! हमे सहस्त्रो श्रेष्ठ गौंएँ और घोड़े प्रदान करके संपन्न बनायें॥२॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३२४.नि ष्वापया मिथूदृशा सस्तामबुध्यमाने। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥३॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">हे इन्द्रदेव! दोनो दुर्गतियाँ (विपत्ति और दरिद्रता) परस्पर एक दूसरे को देखती हुई सो जायें। वे कभी न जागें, वे अचेत पड़ी रहें।हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! हमे सहस्त्रो श्रेष्ठ गौंएँ और घोड़े प्रदान करके संपन्न बनायें॥३॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३२५.ससन्तु त्या अरातयो बोधन्तु शूर रातयः। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥४॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">हे इन्द्रदेव! हमारे शत्रु सोते रहें और हमारे विर मित्र जागते रहे। हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! हमे सहस्त्रो श्रेष्ठ गौंएँ और घोड़े प्रदान करके संपन्न बनायें॥४॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३२६.समिन्द्र गर्दभं मृण नुवन्तं पापयामुया। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥५॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">हे इन्द्रदेव ! कपटपूर्ण वाणी बोलनेवाले शत्रु रूप गधे को मार डालें। हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! हमे सहस्त्रो श्रेष्ठ गौंएँ और घोड़े प्रदान करके संपन्न बनायें॥५॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३२७.पताति कुण्डृणाच्या दूरं वातो वनादधि। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥६॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">हे इन्द्रदेव ! विध्वंशकारी बवंडर वनो से दूर जाकर गिरें। हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! हमे सहस्त्रो श्रेष्ठ गौंएँ और घोड़े प्रदान करके संपन्न बनायें॥६॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३२८.सर्वं परिक्रोशं जहि जम्भया कृकदाश्वम्। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ ॥७॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">हे इन्द्रदेव ! हम पर आक्रोश करने वाले सब शत्रुओ को विनष्ट करें। हिंसको का नाश करें। हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! हमे सहस्त्रो श्रेष्ठ गौंएँ और घोड़े प्रदान करके संपन्न बनायें॥ ७॥</div>Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2372300295419510967.post-17378947511890999892009-07-28T08:53:00.000-07:002011-03-02T15:19:11.723-08:00ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २८<div style="text-align: center;"><b>[ऋषि- शुन:शेप आजीगर्ति। देवता १-४ इन्द्र,५-६ उलूखल,७-८ उलूखल-मूसल,९ प्रजापति,हरिश्चन्द्रः,अधिषवणचर्म अथवा सोम छन्द १-६ अनुष्टुप,७-९ गायत्री।]</b></div><div style="text-align: center;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३१३.यत्र ग्रावा पृथुबुध्न ऊर्ध्वो भवति सोतवे। उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः॥१॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">हे इन्द्रदेव! जहाँ (सोमवल्ली) कूटने के लिए बड़ा मूसल उठाया जाता है(अर्थात सोमरस तैयार किया जाता है), वहाँ(यज्ञशाला मे) उलूखल से निष्पन्न सोमरस का पान करें॥१॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३१४.यत्र द्वाविव जघनाधिषवण्या कृता। उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः॥२॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">हे इन्द्रदेव! जहाँ दो जंघाओ के समान विस्तृत,सोम कुटने के दो फलक रखे है, वहाँ (यज्ञशाला मे) उलूखल से निष्पन्न सोमरस का पान करें॥२॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३१५.यत्र नार्यपच्यवमुपच्यवं च शिक्षते। उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः॥३॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">हे इन्द्रदेव! जहाँ गृहिणी सोमरस कुटने का अभ्यास करती है, वहाँ (यज्ञशाला मे) उलूखल से निष्पन्न सोमरस का पान करें॥३॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३१६.यत्र मन्थां विबध्नते रश्मीन्यमितवा इव। उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः॥४॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">हे इन्द्रदेव! जहाँ सारथी द्वारा घोड़े को लगाम लगाने के समान (मथनी को) रस्सी से बाँधकर मन्थन लरते है, वहाँ (यज्ञशाला मे) उलूखल से निष्पन्न सोमरस का पान करें॥४॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३१७.यच्चिद्धि त्वं गृहेगृह उलूखलक युज्यसे। इह द्युमत्तमं वद जयतामिव दुन्दुभिः॥५॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">हे उलूखल! यद्यपि घर घर मे तुमसे काम लिया जाता है, फिर भी हमारे घर मे विजय दुन्दुभि के समान उच्च शब्द करो॥५॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३१८.उत स्म ते वनस्पते वातो वि वात्यग्रमित्। अथो इन्द्राय पातवे सुनु सोममुलूखल॥६॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">हे उलूखल - मूसल रूपे वनस्पति! तुम्हारे सामने वायु विशेष गति से बहती है। हे उलूखल! अब इन्द्रदेव के सेवनार्थ सोमरस का निष्पादन करो॥६॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३१९.आयजी वाजसातमा ता ह्युच्चा विजर्भृतः। हरी इवान्धांसि बप्सता॥७॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">यज्ञ के साधन रूप पूजन योग्य वे उलूखल और मूसल दोनो, अन्न(चने) खाते हुये इन्द्रदेव के दोनो अश्वो के समान उच्च स्वर से शब्द करते हैं॥७॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३२०.ता नो अद्य वनस्पती ऋष्वावृष्वेभिः सोतृभिः। इन्द्राय मधुमत्सुतम्॥८॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">दर्शनीय उलूखल एवं मूसल रूपे वनस्पते! आप दोनो सोमयाग करने वालों के साथ इन्द्रदेव के लिये मधुर सोमरस का निष्पादन करो॥८॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३२१.उच्छिष्टं चम्वोर्भर सोमं पवित्र आ सृज। नि धेहि गोरधि त्वचि॥९॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">उलूखल और मूसल द्वारा निष्पादित सोम को पात्र से निकाल कर पवित्र कुशा के आसन पर रखें और अवशिष्ट को छानने के लिये पवित्र चर्म पर रखें॥९॥</div>Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2372300295419510967.post-73748711102429687542009-07-27T06:45:00.000-07:002009-07-27T06:49:15.951-07:00ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २७<div style="text-align: center;"><b>[ऋषि- शुन:शेप आजीगर्ति। देवता १-१२अग्नि, १३ देवतागण। छन्द १-१२ गायत्री,१३ त्रिष्टुप।]</b></div><div><br /></div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३००.अश्वं न त्वा वारवन्तं वन्दध्या अग्निं नमोभिः। सम्राजन्तमध्वराणाम्॥१॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">तमोनाशक, यज्ञो के सम्राट स्वरूप हे अग्निदेव! हम स्तुतियो ले द्वारा आपकी वंदना करते है। जिस प्रकार अश्व अपनी पूँछ के बालो से मक्खी मच्छर दूर भगाता है, उसी प्रकार आप भी ज्वालाओ से हमारे विरोधियों को दूर भगायें॥१॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३०१.स घा नः सूनुः शवसा पृथुप्रगामा सुशेवः। मीढ्वाँ अस्माकं बभूयात्॥२॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">हम इन अग्निदेव की उत्तम विधि से उपासना करते है। वे बल से उत्पन्न, शीघ्र गतिशील अग्निदेव हमे अभिष्ट सुखो को प्रदान करें॥२॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३०२.स नो दूराच्चासाच्च नि मर्त्यादघायोः। पाहि सदमिद्विश्वायुः॥३॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">हे अग्निदेव! सब मनुष्यो के हितचिंतक आप दूर से और निकट से, अनिष्ट चिंतको से सदैव हमारी रक्षा करें॥३॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३०३.इममू षु त्वमस्माकं सनिं गायत्रं नव्यांसम्। अग्ने देवेषु प्र वोचः॥४॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">हे अग्निदेव! आप हमारे गायत्री परक प्राण पोषक स्तोत्रो एवं नवीन अन्न(हव्य) को देवो रक (देव वृत्तियों के पोषण हेतु) पहुँचाये॥४॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३०४.आ नो भज परमेष्वा वाजेषु मध्यमेषु। शिक्षा वस्वो अन्तमस्य॥५॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">हे अग्निदेव! आप हमे श्रेष्ठ (आध्यात्मिक), मध्यम(आधिदैविक) एवं कनिष्ठ(आधिभौतिक) अर्थात सभी प्रकार की धन सम्पदा प्रदान करें॥५॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३०५.विभक्तासि चित्रभानो सिन्धोरूर्मा उपाक आ। सद्यो दाशुषे क्षरसि॥६॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">सात ज्वालाओ से दीप्तिमान हे अग्निदेव! आप धनदायक है। नदी के पास आने वाली जल तरंगो ले सदृश आप हविष्यान्न दाता को तत्क्षण (श्रेष्ठ) कर्म फल प्रदान करतें है॥६॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३०६.यमग्ने पृत्सु मर्त्यमवा वाजेषु यं जुनाः। स यन्ता शश्वतीरिषः॥७॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">हे अग्निदेव ! आप जीवन संग्राम मे जिस पुरुष को प्रेरित करते हैं, उनकी रक्षा आप स्व्यं करते हैं। साथ ही उसके लिये पोषक अन्नो की पूर्ति भी करते हैं॥७॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३०७.नकिरस्य सहन्त्य पर्येता कयस्य चित्। वाजो अस्ति श्रवाय्यः॥८॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">हे शत्रु विजेता अग्निदेव! आपके उपासक को कोई पराजित नही कर सकता, क्योंकि उसकी(आपके द्वारा प्रदत्त) तेजस्विता प्रसिद्ध है॥८॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३०८.स वाजं विश्वचर्षणिरर्वद्भिरस्तु तरुता। विप्रेभिरस्तु सनिता॥९॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">सब मनुष्यो के कल्याणकारक वे अग्निदेव जीवन-संग्राम मे अश्व रूपी इन्द्रियो द्वारा विजयी बनाने वाले हो। मेधावी पुरुषो द्वारा प्रशंसित वे अग्निदेव हमे अभीष्ट फल प्रदान करें॥९॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३०९.जराबोध तद्विविड्ढि विशेविशे यज्ञियाय। स्तोमं रुद्राय दृशीकम्॥१०॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">स्तुतियो से देवो को प्रबोधित करने वाले हे अग्निदेव! ये यजमान, पुनीत यज्ञ स्थल पर दुष्टता विनाश हेतु आपका आवाहन करते है॥१०॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३१०.स नो महाँ अनिमानो धूमकेतुः पुरुश्चन्द्रः। धिये वाजाय हिन्वतु॥११॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">अपरिमिर्त धूम्र-ध्वजा से युक्त, आनन्दप्रदम महान वे अग्निदेव हमे ज्ञान और वैभव की ओर प्रेरित करें॥११॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>३११.स रेवाँ इव विश्पतिर्दैव्यः केतुः शृणोतु नः। उक्थैरग्निर्बृहद्भानुः॥१२॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">विश्वपालक, अत्यन्त तेजस्वी और ध्वजा सदृश गुणो से युक्त दूरदर्शी वे अग्निदेव वैभवशाली राजा के समान हमारी स्तवन रूपी वाणियो को ग्रहण करें॥१२॥</div><div style="text-align: justify;"><b></b></div><blockquote><div style="text-align: justify;"><b>३१२.नमो महद्भ्यो नमो अर्भकेभ्यो नमो युवभ्यो नम आशिनेभ्यः।</b></div><div style="text-align: justify;"><b>यजाम देवान्यदि शक्नवाम मा ज्यायसः शंसमा वृक्षि देवाः॥१३॥</b></div><div style="text-align: justify;"></div></blockquote><div style="text-align: justify;">बड़ो, छोटोम युवको और वृद्धो को हम नमस्कार करते है। सामर्थ्य के अनुसार हम देवो का यजन करें। हे देवो! अपने से बड़ो के सम्मान मे हमारे द्वारा कोई त्रुटी न हो॥१३॥</div>Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2372300295419510967.post-60407117021039925222009-07-24T06:53:00.000-07:002011-03-02T15:23:29.187-08:00ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २६<div style="text-align: center;"><b>[ऋषि- शुन:शेप आजीगर्ति। देवता अग्नि।छन्द गायत्री।]</b></div><div><br /></div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>वसिष्वा हि मियेध्य वस्त्राण्यूर्जां पते। सेमं नो अध्वरं यज॥१॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">हे यज्ञ योग्य अन्नो के पालक अग्निदेव! आप अपने तेजरूप वस्त्रो को पहनकर हमारे यज्ञ को सम्पादित करें॥१॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>नि नो होता वरेण्यः सदा यविष्ठ मन्मभिः। अग्ने दिवित्मता वचः॥२॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">सदा तरुण रहने वाले हे अग्निदेव! आप सर्वोत्तम होता(यज्ञ सम्पन्न कर्ता) के रूप मे यज्ञकुण्ड मे स्थापित होकर स्तुति वचनो का श्रवण करें॥२॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>आ हि ष्मा सूनवे पितापिर्यजत्यापये। सखा सख्ये वरेण्यः॥३॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">हे वरण करने योग्य अग्निदेव! जैसे पिता अपने पुत्र के,भाई अपने भाई के और मित्र अपने मित्र के सहायक होते है, वैसे ही आप हमारी सहायता करें॥३॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>आ नो बर्ही रिशादसो वरुणो मित्रो अर्यमा। सीदन्तु मनुषो यथा॥४॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">जिस प्रकार प्रजापति के यज्ञ मे "मनु " आकर शोभा बढा़ते हैं, उसी प्रकार शत्रुनाशक वरुणदेव, मित्र-देव एवं अर्यमादेव हमारे यज्ञ मे आकर विराजमान हो॥४॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>पूर्व्य होतरस्य नो मन्दस्व सख्यस्य च। इमा उ षु श्रुधी गिरः॥५॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">पुरातन होता हे अग्निदेव! आप हमारे इस यज्ञ से और हमारे मित्रभाव से प्रसन्न हों और हमारी स्तुतियों को भली प्रकार से सुने॥५॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>यच्चिद्धि शश्वता तना देवंदेवं यजामहे। त्वे इद्धूयते हविः॥६॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">हे अग्निदेव! इन्द्र, वरुण आदि अन्य देवताओ के लिये प्रतिदिन विस्तृत आहुतियाँ अर्पित करने पर भी सभी हविष्यमान आपको ही प्राप्त होते है॥६॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>प्रियो नो अस्तु विश्पतिर्होता मन्द्रो वरेण्यः। प्रियाः स्वग्नयो वयम्॥७॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">यज्ञ समपन्न करने वाले प्रजापालक, आनदवर्धक,वरण करने योग्य हे अग्निदेव आप हमे प्रिय हो तथा श्रेष्ठ विधि से यज्ञाग्नि की रक्षा करते हुये हम सदैव आपके प्रिय रहें॥७॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>स्वग्नयो हि वार्यं देवासो दधिरे च नः। स्वग्नयो मनामहे॥८॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">उत्तम अग्नि से युक्त हो कर दैदीप्यमान ऋत्विजो के हमारे लिये ऐश्वर्य को धारण किया है, वैसे जी हम उत्तम अग्नि से युक्त होकर इनका (ऋत्विज) का स्वागत करते है॥८॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>अथा न उभयेषाममृत मर्त्यानाम्। मिथः सन्तु प्रशस्तयः॥९॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">अमरत्व को धारण करने वाले हे अग्निदेव! आपके और हम मरणशील मनुष्यो के बीच स्नेहयुक्त और प्रशंसनीय वाणियो का आदान प्रदान होता रहे॥९॥</div><div style="text-align: justify;"><b><blockquote>विश्वेभिरग्ने अग्निभिरिमं यज्ञमिदं वचः। चनो धाः सहसो यहो॥१०॥</blockquote></b></div><div style="text-align: justify;">बल के पुत्र(अरणि मन्थन के रूप शक्ति से उत्पन्न) भे अग्निदेव! आप(आहवनीयादि) अग्नियो के साथ यज्ञ मे पधारें और स्तुतियों को सुनते हुये अन्न(पोषण) प्रदान करें॥१०॥</div>Ashish Shrivastavahttp://www.blogger.com/profile/02400609284791502799noreply@blogger.com2