ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३६

[ऋषि -कण्व धौर । देवता -अग्नि,१३-१४ यूप ।छन्द -बाहर्त प्रगाथ-विषमा बृहती, समासतो बृहती, १३ उपरिष्टाद बृहती ]

४२२.प्र वो यह्वं पुरूणां विशां देवयतीनाम् ।
अग्निं सूक्तेभिर्वचोभिरीमहे यं सीमिदन्य ईळते ॥१॥
हम ऋत्विज अपने सूक्ष्म वाक्यों(मंत्र शक्ति) से व्यक्तियो मे देवत्व का विकास करने वाली महानता का वर्णन करते है; जिस महानता का वर्णन(स्तवन) ऋषियो ने भली प्रकार किया था॥१॥

४२३.जनासो अग्निं दधिरे सहोवृधं हविष्मन्तो विधेम ते ।
स त्वं नो अद्य सुमना इहाविता भवा वाजेषु सन्त्य ॥२॥
मनुष्यो ने बलवर्धक अग्निदेव का वरण किया। हम उन्हे हवियो से प्रवृद्ध करते हैं। अन्नो के दाता हे अग्निदेव! आज आप प्रसन्न मन से हमारी रक्षा करें॥२॥

४२४.प्र त्वा दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् ।
महस्ते सतो वि चरन्त्यर्चयो दिवि स्पृशन्ति भानवः ॥३॥
देवो के दूत, होतारुप, सर्वज्ञ हे अग्निदेव! आपका हम वरण करते है, आप महान और सत्यरूप है। आपकी ज्वालाओं की दीप्ति फैलती हुई आकाश तक पहुंचती है॥३॥

४२५.देवासस्त्वा वरुणो मित्रो अर्यमा सं दूतं प्रत्नमिन्धते ।
विश्वं सो अग्ने जयति त्वया धनं यस्ते ददाश मर्त्यः ॥४॥
हे अग्निदेव! मित्र, वरुण और अर्यमा ये तीनो देव आप जैसे पुरातन देवदूत को प्रदीप्त करते हैं। जो याजक आपके निमित्त हवि समर्पित करते है, वे आपकी कृपा से समस्त धनो को उपलब्ध करते हैं॥४॥

४२६.मन्द्रो होता गृहपतिरग्ने दूतो विशामसि ।
त्वे विश्वा संगतानि व्रता ध्रुवा यानि देवा अकृण्वत ॥५॥
हे अग्निदेव! आप प्रमुदित करने वाले, प्रजाओं के पालक, होतारुप, गृहस्वामी और देवदूत है। देवो के द्वारा सम्पादित सभी शुभ कर्म आपसे सम्पादित होते है॥५॥

४२७.त्वे इदग्ने सुभगे यविष्ठ्य विश्वमा हूयते हविः ।
स त्वं नो अद्य सुमना उतापरं यक्षि देवान्सुवीर्या ॥६॥
हे चिरयुवा अग्निदेव! यह आपका उत्तम सौभाग्य है कि सभी हवियां आपके अंदर अर्पित की जाती है। आप प्रसन्न होकर हमारे निमित्त आज और आगे भी सामर्थ्यवान देवो का यजन किया करें। (अर्थात देवो को हमारे अनुकूल बनायें।)॥६॥

४२८.तं घेमित्था नमस्विन उप स्वराजमासते ।
होत्राभिरग्निं मनुषः समिन्धते तितिर्वांसो अति स्रिधः ॥७॥
नमस्कार करनेवाले उपासक स्वप्रकाशित इन अग्निदेव की उपासना करते है। शत्रुओं को जीतने वाले मनुष्य हवन-साधनो और स्तुतियों को प्रदीप्त करते है॥७॥

४२९.घ्नन्तो वृत्रमतरन्रोदसी अप उरु क्षयाय चक्रिरे ।
भुवत्कण्वे वृषा द्युम्न्याहुतः क्रन्ददश्वो गविष्टिषु ॥८॥
देवो ने प्रहार कर वृत्र का वध किया। प्राणियों के निवासार्थ उन्होने द्यावा-पृथिवी और अंतरिक्ष का बहुत विस्तार किया। गौ, अश्व आदि की कामना से कण्व ने अग्नि को प्रकाशित कर आहुतियों द्वारा उन्हे बलिष्ठ बनाया॥८॥

४३०.सं सीदस्व महाँ असि शोचस्व देववीतमः ।
वि धूममग्ने अरुषं मियेध्य सृज प्रशस्त दर्शतम् ॥९॥
यज्ञीय गुणो से युक्त प्रशंसनीय हे अग्निदेव! आप देवता के प्रीतिपात्र और महान गुणो के प्रेरक है। यहां उपयुक्त स्थान पर पधारें और प्रज्वलित हों। घृत की आहुतियों द्वारा दर्शन योग्य तेजस्वी होते हुए सघन धूम्र को विसर्जित करें॥९॥

४३१.यं त्वा देवासो मनवे दधुरिह यजिष्ठं हव्यवाहन ।
यं कण्वो मेध्यातिथिर्धनस्पृतं यं वृषा यमुपस्तुतः ॥१०॥
हे हविवाहक अग्निदेव! सभी देवो ने पूजने योग्य आपको मानव मात्र के कल्याण के लिए इस यज्ञ मे धारण किया। मेध्यातिथि और कण्व ने तथा वृषा(इन्द्र) और उपस्तुत(अन्य यजमान) ने धन से संतुष्ट करने वाले आपका वरण किया॥१०॥

४३२.यमग्निं मेध्यातिथिः कण्व ईध ऋतादधि ।
तस्य प्रेषो दीदियुस्तमिमा ऋचस्तमग्निं वर्धयामसि ॥११॥
जिन अग्निदेव को मेध्यातिथि और कण्व ने सत्यरूप कर्मो से प्रदीप्त किया, वे अग्निदेव देदीप्यमान हैं। उन्ही को हमारी ऋचायें भी प्रवृद्ध करती हैं। हम भी उन अग्निदेव को संवर्धित करते हैं॥११॥

४३३.रायस्पूर्धि स्वधावोऽस्ति हि तेऽग्ने देवेष्वाप्यम् ।
त्वं वाजस्य श्रुत्यस्य राजसि स नो मृळ महाँ असि ॥१२॥
हे अत्रवान अग्ने! आप हमे अन्न-सम्पदा से अभिपूरत करें। आप देवो के मित्र और प्रशंसनीय बलो के स्वामी है। आप महान है। आप हमे सुखी बनाएं॥१२॥

४३४.ऊर्ध्व ऊ षु ण ऊतये तिष्ठा देवो न सविता ।
ऊर्ध्वो वाजस्य सनिता यदञ्जिभिर्वाघद्भिर्विह्वयामहे ॥१३॥
हे काष्ठ स्थित अग्निदेव! सर्वोत्पादक सवितादेव जिस प्रकार अंतरिक्ष से हम सबकी रक्षा करते है, उसी प्रकार आप भी उंचे उठकर, अन्न आदि पोषक पदार्थ देकर हमारे जीवन की रक्षा करें।मन्त्रोच्चारणपूर्वक हविप्रदान करने वाले याजक आपके उत्कृष्ट स्वरूप का आवाहन करते हैं॥१३॥

४३५.ऊर्ध्वो नः पाह्यंहसो नि केतुना विश्वं समत्रिणं दह ।
कृधी न ऊर्ध्वाञ्चरथाय जीवसे विदा देवेषु नो दुवः ॥१४॥
ये यूपस्थ अग्ने। आप ऊंचे उठकर अपने श्रेष्ठ ज्ञान द्वारा पापो से हमारी रक्षा करें,मानवता के शत्रुओं का दहन करें, जीवन मे प्रगति के लिए हमे ऊंचा उठाये तथा हमारी प्रार्थना देवों तक पहुंचाए॥१४॥

४३६.पाहि नो अग्ने रक्षसः पाहि धूर्तेरराव्णः ।
पाहि रीषत उत वा जिघांसतो बृहद्भानो यविष्ठ्य ॥१५॥
हे महान दीप्तिवाले , चिरयुवा अग्निदेव! आप हमे राक्षसो से रक्षित करें, कृपण धूर्तो से रक्षित करें तथा हिंसक और जघन्यो से रक्षित करें॥१५॥

४३७.घनेव विष्वग्वि जह्यराव्णस्तपुर्जम्भ यो अस्मध्रुक् ।
यो मर्त्यः शिशीते अत्यक्तुभिर्मा नः स रिपुरीशत ॥१६॥
अपने ताप से रोगादि कष्टो को मिटाने वाले हे अग्ने! आप कृपणो को गदा से विनष्ट करें। जो हमसे द्रोह करते है, जो रात्रि मे जागकर हमारे नाश का यत्न करते हैं, वे शत्रु हम पर आधिपत्य न कर पाएं॥१६॥

४३८.अग्निर्वव्ने सुवीर्यमग्निः कण्वाय सौभगम् ।
अग्निः प्रावन्मित्रोत मेध्यातिथिमग्निः साता उपस्तुतम् ॥१७॥
उत्तम पराक्रमी हे अग्निदेव, जोन्होने कण्व को सौभाग्य प्रदान किया, हमारे मित्रो की रक्षा की तथा ’मेध्यातिथि’ और ’उपस्तुत’(यजमान) की भी रक्षा की है॥१७॥

४३९.अग्निना तुर्वशं यदुं परावत उग्रादेवं हवामहे ।
अग्निर्नयन्नववास्त्वं बृहद्रथं तुर्वीतिं दस्यवे सहः ॥१८॥
अग्निदेव के साथ हम ’तुर्वश’ ,’यदु’ और ’उग्रदेव’ को बुलाते है। वे अग्निदेव ’नववास्तु’, ’ब्रहद्रथ’ और ’तुर्वीति’(आदि राजर्षियों) को भी ले चलें, जिससे हम दुष्टो के साथ संघर्ष कर सके॥१८॥

४४०.नि त्वामग्ने मनुर्दधे ज्योतिर्जनाय शश्वते ।
दीदेथ कण्व ऋतजात उक्षितो यं नमस्यन्ति कृष्टयः ॥१९॥
हे अग्निदेव! विचारवान व्यक्ति आपका वरण करते है। अनादिकाल से ही मानव जाति के लिए आपकी ज्योति प्रकाशित है। आपका प्रकाश आश्रमो के ज्ञानवान ऋषियो मे उत्पन्न होता है। यज्ञ मे ही आपका प्रज्वलित स्वरूप प्रकट होता है। उस समय सभी मनुष्य आपको नमन वंदन करते हैं॥१९॥

४४१.त्वेषासो अग्नेरमवन्तो अर्चयो भीमासो न प्रतीतये ।
रक्षस्विनः सदमिद्यातुमावतो विश्वं समत्रिणं दह ॥२०॥
अग्निदेव की ज्वालाएं प्रदीप्त होकर अत्यन्त बलवती और प्रचण्ड हुई है। कोई उनका सामना नहीं कर सकता। हे अग्ने! आप समस्त राक्षसो, आतताइयो और मानवता के शत्रुओ को नष्ट करें॥२०॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३५

[ऋषि - हिरण्यस्तूप अङ्गिरस। देवता -प्रथम मन्त्र का प्रथम पाद- अग्नि, द्वितिय पाद -मित्रावरुण, तृतीय पाद-रात्रि, चतुर्थ पाद-सविता, २-११- सविता । छन्द - त्रिष्टुप, १,९ जगती]

४११.ह्वयाम्यग्निं प्रथमं स्वस्तये ह्वयामि मित्रावरुणाविहावसे ।
ह्वयामि रात्रीं जगतो निवेशनीं ह्वयामि देवं सवितारमूतये ॥१॥
कल्याण की कामना से हम सर्वप्रथम अग्निदेव की प्रार्थना करते हैं। अपनी रक्षा के लिए हम मित्र और वरुण देवों को बुलाते हैं। जगत को विश्राम देने वाली रात्रि और सूर्यदेव का हम अपनी रक्षा के लिए आवाहन करते है॥१॥

४१२.आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च ।
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥२॥
सवितादेव गहन तमिस्त्रा युक्त अंतरिक्ष पथ मे भ्रमण करते हुए, देवो और मनुष्यो को यज्ञादि श्रेष्ठ कर्मो मे नियोजित करते है। वे समस्त लोकों को देखते(प्रकाशित करते) हुए स्वर्णिम (किरणो से युक्त) रथ से आते है॥२॥

४१३.याति देवः प्रवता यात्युद्वता याति शुभ्राभ्यां यजतो हरिभ्याम् ।
आ देवो याति सविता परावतोऽप विश्वा दुरिता बाधमानः ॥३॥
स्तुत्य सवितादेव ऊपर चढ़ते हुए और फिर नीचे उतरते हे निरंतर गतिशील रहते हैं। वे सविता देव तमरूपी पापों को नष्ट कररे हुए अतिदूर से उस यज्ञशाला मे श्वेत अश्वो के रथ पर आसीन होकर आते हैं॥३॥

४१४.अभीवृतं कृशनैर्विश्वरूपं हिरण्यशम्यं यजतो बृहन्तम् ।
आस्थाद्रथं सविता चित्रभानुः कृष्णा रजांसि तविषीं दधानः ॥४॥
सतत परिभ्रमणशील, विविध रूपो मे सुशोभित, पूजनिय,अद्भूत रश्मि-युक्त सवितादेव गहन तमिस्त्रा को नष्ट करने के निमित्त प्रचण्ड सामर्थ्य को धारण करते हैं तथा स्वर्णिम रश्मियों से युक्त रथ पर प्रतिष्ठित होकर आतें हैं॥४॥

४१५.वि जनाञ्छ्यावाः शितिपादो अख्यन्रथं हिरण्यप्रउगं वहन्तः ।
शश्वद्विशः सवितुर्दैव्यस्योपस्थे विश्वा भुवनानि तस्थुः ॥५॥
सूर्यदेव के अश्व श्वेत पैर वाले है, वे स्वर्णरथ को वहन करते है और मानवो को प्रकाश देते हैं। सर्वदा सभी लोको के प्राणी सवितादेव के अंक मे स्थित है अर्थात उन्ही पर आश्रित है॥५॥

४१६.तिस्रो द्यावः सवितुर्द्वा उपस्थाँ एका यमस्य भुवने विराषाट् ।
आणिं न रथ्यममृताधि तस्थुरिह ब्रवीतु य उ तच्चिकेतत् ॥६॥
तीनो लोंको मे द्यावा और पृथिवी ये दोनो लोक सूर्य के समीप है अर्थात सूर्य से प्रकाशित है। एक अंतरिक्ष लोक यमदेव का विशिष्ट द्वार रूप है। रथ के धूरे की कील के समान सूर्यदेव पर ही सब लोक (नक्षत्रादि) अवलम्बित है। जो यह रहस्य जाने, वे सबको बतायें॥६॥


४१७.वि सुपर्णो अन्तरिक्षाण्यख्यद्गभीरवेपा असुरः सुनीथः ।
क्वेदानीं सूर्यः कश्चिकेत कतमां द्यां रश्मिरस्या ततान ॥७॥
गम्भीर, गतियुक्त, प्राणरूप, उत्तम प्रेरक, सुन्दर दीप्तिमान सूर्यदेव अंतरिक्षादि हो प्रकाशित करते हैं। ये सूर्यदेव कहां रहते है ? उनकी रश्मियां किस आकाश मे होंगी ? यह रहस्य कौन जानता है?॥७॥

४१८.अष्टौ व्यख्यत्ककुभः पृथिव्यास्त्री धन्व योजना सप्त सिन्धून् ।
हिरण्याक्षः सविता देव आगाद्दधद्रत्ना दाशुषे वार्याणि ॥८॥
हिरण्य दृष्टि युक्त(सुनहली किरणो से युक्त) सवितादेव पृथ्वी की आठो दिशाओ, उनसे युक्त तीनो लोको, सप्त सागरो आदि को आलोकित करते हुए दाता(हविदाता) के लिए वरणीय विभूतियां लेकर यहां आएं॥८॥

४१९.हिरण्यपाणिः सविता विचर्षणिरुभे द्यावापृथिवी अन्तरीयते ।
अपामीवां बाधते वेति सूर्यमभि कृष्णेन रजसा द्यामृणोति ॥९॥
स्वर्णिम रश्मियों रूपी हाथो से युक्त विलक्षण द्रष्टा सवितादेव द्यावा और पृथ्वी के बीच संचरित होते है। वे रोगादि बाधाओं को नष्ट कर अन्धकारनाशक दीप्तियों से आकाश को प्रकाशित करते हैं॥९॥

४२०.हिरण्यहस्तो असुरः सुनीथः सुमृळीकः स्ववाँ यात्वर्वाङ् ।
अपसेधन्रक्षसो यातुधानानस्थाद्देवः प्रतिदोषं गृणानः ॥१०॥
हिरण्य हस्त (स्वर्णिम तेजस्वी किरणो से युक्त) प्राणदाता कल्याणकारक, उत्तम सुखदायक, दिव्यगुण सम्पन्न सूर्यदेव सम्पूर्ण मनुष्यो के समस्त दोषो को, असुरो और दुष्कर्मियो को नष्ट करते(दूर भगाते) हुए उदित होते है। ऐसे सूर्यदेव हमारे लिए अनुकूल हो॥१०॥

४२१.ये ते पन्थाः सवितः पूर्व्यासोऽरेणवः सुकृता अन्तरिक्षे ।
तेभिर्नो अद्य पथिभिः सुगेभी रक्षा च नो अधि च ब्रूहि देव ॥११॥
हे सवितादेव! आकाश मे आपके ये धूलरहित मार्ग पूर्व निश्चित है। उन सुगम मार्गो से आकर आज आप हमारी रक्षा करें तथा हम (यज्ञानुष्ठान करने वालों) को देवत्व से युक्त करें॥११॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३४

[ऋषि - हिरण्यस्तूप अङ्गिरस। देवता -अश्‍विनीकुमार । छन्द - जगती, ९,१२ त्रिष्टुप]

३९९.त्रिश्चिन्नो अद्या भवतं नवेदसा विभुर्वां याम उत रातिरश्विना ।
युवोर्हि यन्त्रं हिम्येव वाससोऽभ्यायंसेन्या भवतं मनीषिभिः ॥१॥
हे ज्ञानी अश्‍विनीकुमारो! आज आप दोनो यहां तीन बार(प्रातः,मध्यान्ह,सायं) आयें। आप के रथ और दान बड़े महान है। सर्दी की रात एवं आतपयुक्त दिन के समान आप दोनो का परस्पर नित्य सम्बन्ध है। विद्वानो के माध्यम से आप हमे प्राप्त हों॥१॥

४००.त्रयः पवयो मधुवाहने रथे सोमस्य वेनामनु विश्व इद्विदुः ।
त्रय स्कम्भास स्कभितास आरभे त्रिर्नक्तं याथस्त्रिर्वश्विना दिवा ॥२॥
मधुर सोम को वहन करने वाले रथ मे वज्र के समान सुदृढ़ पहिये लगे हैं। सभी लोग आपकी सोम के प्रति तीव्र उत्कंठा को जानते है। आपके रथ मे अवलम्बन के लिये तीन खम्बे लगे हैं। हे अश्‍विनीकुमारो ! आप उस रथ से तीन बार रात्री मे और तीन बार दिन मे गमन करते है॥२॥

४०१.समाने अहन्त्रिरवद्यगोहना त्रिरद्य यज्ञं मधुना मिमिक्षतम् ।
त्रिर्वाजवतीरिषो अश्‍विना युवं दोषा अस्मभ्यमुषसश्च पिन्वतम् ॥३॥
हे दोषो को ढंकने वाले अश्‍विनीकुमारो! आज हमारे यज्ञ मे दिन मे तीन बार मधुर रसों से सिंचन करें। प्रातः , मध्यान्ह एवं सांय तीन प्रकार के पुष्टिवर्धक अन्न हमे प्रदान करें॥३॥

४०२.त्रिर्वर्तिर्यातं त्रिरनुव्रते जने त्रिः सुप्राव्ये त्रेधेव शिक्षतम् ।
त्रिर्नान्द्यं वहतमश्विना युवं त्रिः पृक्षो अस्मे अक्षरेव पिन्वतम् ॥४॥
हे अश्‍विनीकुमारो! हमारे घर आप तीन बार आयें। अनुयायी जनो को तीन बार सुरक्षित करें उन्हे तीन बार तीन विशिष्ट ज्ञान करायें। सुखप्रद पदार्थो को तीन बार हमारी ओर पहुंचाये। बलप्रदायक अन्नो को प्रचुर परिमाण मे देकर हमे सम्पन्न करें॥४॥

४०३.त्रिर्नो रयिं वहतमश्विना युवं त्रिर्देवताता त्रिरुतावतं धियः ।
त्रिः सौभगत्वं त्रिरुत श्रवांसि नस्त्रिष्ठं वां सूरे दुहिता रुहद्रथम् ॥५॥
हे अश्‍विनीकुमारो! आप दोनो हमारे लिए तीन बार धन इधर लायें। हमारी बुद्धि को तीन बार देवो की स्तुति मे प्रेरित करें। हमे तीन बार सौभाग्य और तीन बार यश प्रदान करें। आपके रथ मे सूर्य पुत्री (उषा) विराजमान हैं॥५॥

४०४.त्रिर्नो अश्‍विना दिव्यानि भेषजा त्रिः पार्थिवानि त्रिरु दत्तमद्भ्यः ।
ओमानं शंयोर्ममकाय सूनवे त्रिधातु शर्म वहतं शुभस्पती ॥६॥
हे शुभ कर्मपालक अश्‍विनीकुमारो ! आपने तीन बार हमे(द्युस्थानीय) दिव्य औषधियां, तीन बार पार्थिव औषधियां तथा तीन बार जलौषधियां प्रदान की हैं। हमारे पुत्र को श्रेष्ठ सुख और संरक्षण दिया है और तीन धातुओ(वात-पित्त-कफ) से मिलने वाला सुख, आरोग्य एवं ऐश्वर्य प्रदान किया है॥६॥

४०५.त्रिर्नो अश्‍विना यजता दिवेदिवे परि त्रिधातु पृथिवीमशायतम् ।
तिस्रो नासत्या रथ्या परावत आत्मेव वातः स्वसराणि गच्छतम् ॥७॥
हे अश्‍विनीकुमारो! आप नित्य तीन बार यजन योग्य हैं। पृथ्वी पर स्थापित वेदी के तीन ओर आसनो पर बैठें। हे असत्यरहित रथारूढ़ देवो ! प्राणवायु और आत्मा के समान दूर स्थान से हमारे यज्ञो मे तीन बार आयें॥७॥

४०६.त्रिरश्विना सिन्धुभिः सप्तमातृभिस्त्रय आहावास्त्रेधा हविष्कृतम् ।
तिस्रः पृथिवीरुपरि प्रवा दिवो नाकं रक्षेथे द्युभिरक्तुभिर्हितम् ॥८॥
हे अश्‍विनीकुमारो! सात मातृभूत नदियो के जलो से तीन बार तीन पात्र भर दिये है। हवियो को भी तीन भागो मे विभाजित किया है। आकाश मे उपर गमन करते हुए आप तीनो लोको की दिन और रात्रि मे रक्षा करते हौं॥८॥

४०७.क्व त्री चक्रा त्रिवृतो रथस्य क्व त्रयो वन्धुरो ये सनीळाः ।
कदा योगो वाजिनो रासभस्य येन यज्ञं नासत्योपयाथः ॥९॥
हे सत्यनिष्ठ अश्‍विनीकुमारो ! आप जिस रथ द्वारा यज्ञस्थल मे पहुंचते है, उस तीन छोर वाले रथ के तीन चक्र कहां है ? एक ही आधार पर स्थापित होने वाले तीन स्तम्भ कहां है ? और अति शब्द करने वाले बलशाली(अश्व या संचालक यंत्र) को रथ के साथ कब जोड़ा गया था ?॥९॥

४०८.आ नासत्या गच्छतं हूयते हविर्मध्वः पिबतं मधुपेभिरासभिः ।
युवोर्हि पूर्वं सवितोषसो रथमृताय चित्रं घृतवन्तमिष्यति ॥१०॥
हे सत्यशील अश्‍विनीकुमारो ! आप यहां आएं। यहां हवि की आहुतियां दी जा रही हैं। मधु पीने वाले मुखों से मधुर रसो का पान करें। आप के विचित्र पुष्ट रथ को सूर्यदेव उषाकाल से पूर्व, यज्ञ के लिए प्रेरित करते है॥१०॥


४०९.आ नासत्या त्रिभिरेकादशैरिह देवेभिर्यातं मधुपेयमश्विना ।
प्रायुस्तारिष्टं नी रपांसि मृक्षतं सेधतं द्वेषो भवतं सचाभुवा ॥११॥
हे अश्‍विनीकुमारो! आप दोनो तैंतीस देवताओ सहित हमारे इस यज्ञ मे मधुपान के लिए पधांरे। हमारी आयु बढा़ये और हमारे पापो को भलीं-भांति विनष्ट करें। हमारे प्रति द्वेष की भावना को समाप्त करके सभी कार्यो मे सहायक बने॥११॥

४१०.आ नो अश्‍विना त्रिवृता रथेनार्वाञ्चं रयिं वहतं सुवीरम् ।
शृण्वन्ता वामवसे जोहवीमि वृधे च नो भवतं वाजसातौ ॥१२॥
हे अश्‍विनीकुमारो! त्रिकोण रथ से हमारे लिये उत्तम धन-सामर्थ्यो को वहन करें। हमारी रक्षा के लिए आवाहनो को आप सुने। युद्ध के अवसरो पर हमारी बल-वृद्धी का प्रयास करें॥१२॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३३

[ऋषि - हिरण्यस्तूप अङ्गिरस। देवता - इन्द्र। छन्द - त्रिष्टुप]
३८४.एतायामोप गव्यन्त इन्द्रमस्माकं सु प्रमतिं वावृधाति ।
अनामृणः कुविदादस्य रायो गवां केतं परमावर्जते नः ॥१॥
गौऔ को प्राप्त करने की कामना से युक्त मनुष्य इन्द्रदेव के पास जायें। ये अपराजेय इन्द्रदेव हमारे लिए गोरूप धनो को बढा़ने की उत्तम बुद्धि देंगे। वे गौओ की प्राप्ति का उत्तम उपाय करेंगें॥१॥

३८५.उपेदहं धनदामप्रतीतं जुष्टां न श्येनो वसतिं पतामि ।
इन्द्रं नमस्यन्नुपमेभिरर्कैर्य स्तोतृभ्यो हव्यो अस्ति यामन् ॥२॥
श्येन पक्षी के वेगपूर्वक घोंसले मे जाने के समान हम उन धन दाता इन्द्रदेव के समीप पहुंचकर स्तोत्रो से उनका पूजन करते है। युद्ध मे सहायता के लिए स्तोताओ द्वारा बुलाये जाने पर अपराजेय इन्द्रदेव अविलम्ब पहुंचते है॥२॥

३८६.नि सर्वसेन इषुधीँरसक्त समर्यो गा अजति यस्य वष्टि ।
चोष्कूयमाण इन्द्र भूरि वामं मा पणिर्भूरस्मदधि प्रवृद्ध ॥३॥
सब सेनाओ के सेनापति इन्द्रदेव तरकसो को धारण कर गौओ एवं धन को जीतते हैं। हे स्वामी इन्द्रदेव! हमारी धन-प्राप्ति की इच्छा पूरी करने मे आप वैश्य की तरह विनिमय जैसा व्यवहार न करें॥३॥

३८७.वधीर्हि दस्युं धनिनं घनेनँ एकश्चरन्नुपशाकेभिरिन्द्र ।
धनोरधि विषुणक्ते व्यायन्नयज्वानः सनकाः प्रेतिमीयुः ॥४॥
हे इन्द्रदेव! आपने अकेले ही अपने प्रचण्ड वज्र से धनवान दस्यु वृत्र का वध किया। जब उसके अनुचरो ने आपके उपर आक्रमण किया, तब यज्ञ विरोधी उन दानवो को आपने दृढ़तापूरवक नष्ट कर दिया ॥४॥

३८८.परा चिच्छीर्षा ववृजुस्त इन्द्रायज्वानो यज्वभि स्पर्धमानाः ।
प्र यद्दिवो हरिव स्थातरुग्र निरव्रताँ अधमो रोदस्योः ॥५॥
हे इन्द्रदेव! याजको से स्पर्धा करनेवाले अयाज्ञिक मुंह छिपाकर भाग गये। हे अश्व-अधिष्ठित इन्द्रदेव! आप युद्ध मे अटल और प्रचण्ड सामर्थ्य वाले है। आपने आकाश, अंतरिक्ष और पृथ्वी से धर्म-व्रतहीनो को हटा दिया है॥५॥

३८९.अयुयुत्सन्ननवद्यस्य सेनामयातयन्त क्षितयो नवग्वाः ।
वृषायुधो न वध्रयो निरष्टाः प्रवद्भिरिन्द्राच्चितयन्त आयन् ॥६॥
उन शत्रुओ ने इन्द्रदेव की निर्दोष सेना पर पूरी शक्ति से प्रहार किया, फिर भी हार गये। उनकी वही स्थिति हो गयी, जो शक्तिशाली वीर से युद्ध करने पर नपुंसक की होती है। अपनी निर्बलता स्वीकार करते हुये वे सब इन्द्रदेव से दूर चले गये॥६॥

३९०.त्वमेतान्रुदतो जक्षतश्चायोधयो रजस इन्द्र पारे ।
अवादहो दिव आ दस्युमुच्चा प्र सुन्वत स्तुवतः शंसमावः ॥७॥
हे इन्द्रदेव! आपने रोने या हंसने वाले इन शत्रुओ को युद्ध करके मार दिया, दस्यु वृत्र को ऊंचा उठाकर आकाश से नीचे गिराकर जला दिया। आपने सोमयज्ञ करनेवालो और प्रशंसक स्तोताओ की रक्षा की॥७॥

३९१.चक्राणासः परीणहं पृथिव्या हिरण्येन मणिना शुम्भमानाः ।
न हिन्वानासस्तितिरुस्त इन्द्रं परि स्पशो अदधात्सूर्येण ॥८॥
उन शत्रुओ ने पृथ्वी के उपर पना आधिपत्य स्थापित किता और स्वार्ण-रत्नादि से सम्पन्न हो गये, परन्तु वे इन्द्रदेव के साथ युद्ध मे ठहर ना सके। सूर्यदेव के द्वारा उन्हे दूर कर दिया गया॥८॥

३९२.परि यदिन्द्र रोदसी उभे अबुभोजीर्महिना विश्वतः सीम् ।
अमन्यमानाँ अभि मन्यमानैर्निर्ब्रह्मभिरधमो दस्युमिन्द्र ॥९॥
हे इन्द्रदेव! आपने अपनी सामर्थ्य से द्युलोक और भूलोक का चारो ओर से उपयोह किया। हे इन्द्रदेव~ आपने अपने अनुचरो द्वारा विरोधियों पर विजय प्राप्त की। आपने मन्त्र शक्ति से(ज्ञान पूर्वक किये गये प्रयासो से) शत्रु पर विजय प्राप्त की॥९॥

३९३.न ये दिवः पृथिव्या अन्तमापुर्न मायाभिर्धनदां पर्यभूवन् ।
युजं वज्रं वृषभश्चक्र इन्द्रो निर्ज्योतिषा तमसो गा अदुक्षत् ॥१०॥
मेघ रूप वृत्र के द्वारा रोक लिये जाने के कारण जो जल द्युलोक से पृथ्वी पर नहीं बरस सके एवं जलो के अभाव से भूमी श्स्यश्यामला न हो सकी, तब इन्द्रदेव ने अपने जाज्वल्यमान वज्र से अन्धकार रूपी मेघ को भेदकर गौ के समान जल का दोहन किया॥१०॥

३९४.अनु स्वधामक्षरन्नापो अस्यावर्धत मध्य आ नाव्यानाम् ।
सध्रीचीनेन मनसा तमिन्द्र ओजिष्ठेन हन्मनाहन्नभि द्यून् ॥११॥
जल इन ब्रीहि यवादि रूप अन्न वृद्धि के लिये (मेघो से) बरसने लगे। उस समय नौकाओ के मार्ग पर (जलो मे) वृत्र बढ़ता रहा। इन्द्रदेव ने अपने शक्ति साधनो द्वारा एकाग्र मन से अल्प समयावधि मे ही उस वृत्र को मार गिराया॥११॥

३९५.न्याविध्यदिलीबिशस्य दृळ्हा वि शृङ्गिणमभिनच्छुष्णमिन्द्रः ।
यावत्तरो मघवन्यावदोजो वज्रेण शत्रुमवधीः पृतन्युम् ॥१२॥
इन्द्रदेव ने गुफा मे सोये हुए वृत्र के किलो को ध्वस्त करके उस सींगवाले शोषक वृत्र को क्षत-विक्षत कर दिया। हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! आपने सम्पूर्ण वेग और बल से शत्रु सेना का विनाश किया॥१२॥

३९६.अभि सिध्मो अजिगादस्य शत्रून्वि तिग्मेन वृषभेणा पुरोऽभेत् ।
सं वज्रेणासृजद्वृत्रमिन्द्रः प्र स्वां मतिमतिरच्छाशदानः ॥१३॥
इन्द्रदेव का तीक्ष्ण और शक्तिशाली वज्र शत्रुओ को लक्ष्य बनाकर उनके किलों को ध्वस्त करता है। शत्रुओ को वज्र से मारकर इन्द्रदेव स्वयं अतीव उत्साहित हुए॥१३॥

३९७.आवः कुत्समिन्द्र यस्मिञ्चाकन्प्रावो युध्यन्तं वृषभं दशद्युम् ।
शफच्युतो रेणुर्नक्षत द्यामुच्छ्वैत्रेयो नृषाह्याय तस्थौ ॥१४॥
हे इन्द्रदेव! ’कुत्स’ ऋषि के प्रति सेन्ह होने से आपने उनकी रक्षा की और अपने शत्रुओ के साथ युद्ध करबे वाले श्रेष्ठ गुणवान ’दशद्यु’ ऋषि की भी आपने रक्षा की। उस सहमय अश्वो के खुरो से धूल आकाश तक फैल गई, तब शत्रुभय से जल मे छिपने वाले ’श्वैत्रेय’ नामक पुरुष की रक्षाकर आपने उसे जल से बाहर निकाला॥१४॥

३९८.आवः शमं वृषभं तुग्र्यासु क्षेत्रजेषे मघवञ्छ्वित्र्यं गाम् ।
ज्योक्चिदत्र तस्थिवांसो अक्रञ्छत्रूयतामधरा वेदनाकः ॥१५॥
हे धनवान इन्द्रदेव ! क्षेत्र प्राप्ति की इच्छा से सशक्त जल-प्रवाहो मे घिरने वाले ’श्वित्र्य’(व्यक्तिविशेष) की आपने रक्षा की। वहीं जलो मे ठहरकर अधिक समय तक आप शत्रुओ से युद्ध करते रहे। उन शत्रुओ को जलो के नीचे गिराकर आपने मार्मिक पीड़ा पहुंचायी॥१५॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३२

[ऋषि - हिरण्यस्तूप अङ्गिरस। देवता - इन्द्र। छन्द - त्रिष्टुप]

३६९.इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्र वोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री ।
अहन्नहिमन्वपस्ततर्द प्र वक्षणा अभिनत्पर्वतानाम् ॥१॥
मेघो को विदिर्ण कर पानी बरसाने वाले, पर्वतिय नदियो ले तटो को निर्मित करने वाले वज्रधारी, पराक्रमी इन्द्रदेव के कार्य वर्णनीय है। उन्होने जो प्रमुख वीरतापूरण कार्य किये , वे ये ही हैं॥१॥

३७०.अहन्नहिं पर्वते शिश्रियाणं त्वष्टास्मै वज्रं स्वर्यं ततक्ष ।
वाश्रा इव धेनवः स्यन्दमाना अञ्जः समुद्रमव जग्मुरापः ॥२॥
इन्द्रदेव के लिये त्वष्टादेव ने शब्द चालित वज्र का निर्माण किया, उसी से इन्द्रदेव ने मेघो को विदिर्ण कर जल बरसाया। रंभाती हुयी गौओ के समान वे जलप्रवाह वेग से समुद्र की ओर चले गये॥२॥

३७१.वृषायमाणोऽवृणीत सोमं त्रिकद्रुकेष्वपिबत्सुतस्य ।
आ सायकं मघवादत्त वज्रमहन्नेनं प्रथमजामहीनाम् ॥३॥
अतिबलशाली इन्द्रदेव ने सोम को ग्रहण किया। यज्ञ मे तीन विशिष्ट पात्रो मे अभिषव किये हुये सोम का पान किया। ऐश्वर्यवान इन्द्रदेव ने बाण और वज्र को धारण कर मेघो मे प्रमुख मेघ को विदीर्ण किया॥३॥

३७२.यदिन्द्राहन्प्रथमजामहीनामान्मायिनाममिनाः प्रोत मायाः ।
आत्सूर्यं जनयन्द्यामुषासं तादीत्ना शत्रुं न किला विवित्से ॥४॥
हे इन्द्रदेव ! आपने मेघो मे प्रथम उत्पन्न मेघ को वेध दिया। मेघरूप मे छाये धुन्ध(मायावियो) को दूर किया, फिर आकाश मे उषा और सूर्य को प्रकट किया। अब कोई भी अवरोधक शत्रु शेष न रहा॥४॥

३७३.अहन्वृत्रं वृत्रतरं व्यंसमिन्द्रो वज्रेण महता वधेन ।
स्कन्धांसीव कुलिशेना विवृक्णाहिः शयत उपपृक्पृथिव्याः ॥५॥
इन्द्रदेव ने घातक दिव्य वज्र से वृत्रासुर का वध किया। वृक्ष की शाखाओ को कुल्हाड़े से काटने के समान उसकी भुजाओ को काटा ऐर तने की तरह इसे काटकर भूमि पर गिरा दिया॥५॥

३७४.अयोद्धेव दुर्मद आ हि जुह्वे महावीरं तुविबाधमृजीषम् ।
नातारीदस्य समृतिं वधानां सं रुजानाः पिपिष इन्द्रशत्रुः ॥६॥
अपने को अप्रतिम योद्धा मानने वाले मिथ्या अभिमानी वृत्र ने महाबली, शत्रुवेधक, शत्रुनाशक इन्द्रदेव को ललकारा और इन्द्रदेव के आघातो को सहन न कर गिरते हुये नदियो के किनारो को तोड़ दिया॥६॥

३७५.अपादहस्तो अपृतन्यदिन्द्रमास्य वज्रमधि सानौ जघान ।
वृष्णो वध्रिः प्रतिमानं बुभूषन्पुरुत्रा वृत्रो अशयद्व्यस्तः ॥७॥
हाथ और पांव के कट जाने पर भी वृत्र ने इन्द्रदेव से युद्ध करने का प्रयास किया। इन्द्रदेव ने उसके पर्वत सदृश कन्धो पर वज्र का प्रहार किया। इतने पर भी वह वर्षा करने मे समर्थ इन्द्रदेव के सम्मुख वह डटा रहा। अन्ततः इन्द्रदेव के आघातो से ध्वस्त होकर भूमि पर गिर पड़ा॥७॥

३७६.नदं न भिन्नममुया शयानं मनो रुहाणा अति यन्त्यापः ।
याश्चिद्वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत्तासामहिः पत्सुतःशीर्बभूव ॥८॥
जैसे नदी की बाढ़ तटो को लांघ जाती है है, वैसे ही मन को प्रसन्न करने वाले जल(जल अवरोधक) वृत्र को लांघ जाते है। जिन जलो को ’वृत्र’ ने अपने बल से आबद्ध किया था, उन्ही के नीचे ’वृत्र’ मृत्युशय्या पर पड़ा सो रहा है॥८॥

३७७.नीचावया अभवद्वृत्रपुत्रेन्द्रो अस्या अव वधर्जभार ।
उत्तरा सूरधरः पुत्र आसीद्दानुः शये सहवत्सा न धेनुः ॥९॥
वृत्र की माता शुककर वृत्र का संरक्षण करने लगी, इन्द्रदेव के प्रहार से बचाव के लिये वह वृत्र पर सो गयी. फिर भी इन्द्रदेव ने नीचे से उस पर प्रहार किया। उससमय माता ऊपर और पुत्र नीचे था, जैसे गाय अपने बछड़े के साथ सोती है॥९॥

३७८.अतिष्ठन्तीनामनिवेशनानां काष्ठानां मध्ये निहितं शरीरम् ।
वृत्रस्य निण्यं वि चरन्त्यापो दीर्घं तम आशयदिन्द्रशत्रुः ॥१०॥
एक स्थान पर न रुकने वाले अविश्रांत (मेघरुप) जल-प्रवाहो के मध्य वृत्र का अनाम शरीर छिपा रहता है। वह दिर्घ निद्रा मे पड़ा रहता है, उसके ऊपर जल प्रवाह बना रहता है॥१०॥

३७९.दासपत्नीरहिगोपा अतिष्ठन्निरुद्धा आपः पणिनेव गावः ।
अपां बिलमपिहितं यदासीद्वृत्रं जघन्वाँ अप तद्ववार ॥११॥
’पणि’ नामक असुर ने जिस प्रकार गौओ अथवा किरणो को अवरूद्ध कर रखा था, उसी प्रकार जल-प्रवाहो को अगतिशील वृत्र ने रोक रखा था। वृत्र का वध कर वे प्रवाह खोल दिये गये॥११॥

३८०.अश्व्यो वारो अभवस्तदिन्द्र सृके यत्त्वा प्रत्यहन्देव एकः ।
अजयो गा अजयः शूर सोममवासृजः सर्तवे सप्त सिन्धून् ॥१२॥
हे इन्द्रदेव! जब कुशल योद्धा वृत्र ने वज्र पर प्रहार किया, तब घोड़े की पूंछ हिलाने के तरह , बहुत आसानी से आपने अविचलित भाव से उसे दूर कर दिया। हे महाबली इन्द्रदेव ! सोम और गौओ को जीतकर आपने (वृत्र के अवरोध को नष्ट कर) गंगादि सरिताओ को प्रवाहित किया॥१२॥

३८१.नास्मै विद्युन्न तन्यतुः सिषेध न यां मिहमकिरद्ध्रादुनिं च ।
इन्द्रश्च यद्युयुधाते अहिश्चोतापरीभ्यो मघवा वि जिग्ये ॥१३॥
युद्ध मे वृत्रद्वारा प्रेरित भीषण विद्युत, भयंकर मेघ गर्जन, जल और हिम वर्षा भी इन्द्रदेव को रोक नही सके। वृत्र के प्रचण्ड घातक प्रयोग भी निरर्थक हुए। उस युद्ध मे असुर के कर प्रहार को इन्द्रदेव ने निरस्त करके उसे जीत लिया॥१३॥

३८२.अहेर्यातारं कमपश्य इन्द्र हृदि यत्ते जघ्नुषो भीरगच्छत् ।
नव च यन्नवतिं च स्रवन्तीः श्येनो न भीतो अतरो रजांसि ॥१४॥
हे इन्द्रदेव! वृत्र का वध करते समय यदि आपके हृदय मे भय उत्पन्न होता तो किस दूसरे वीर को असुर वध के लिये देखते ? ऐसा करके आपने निन्यानबे (लगभग सम्पूर्ण) जल प्रवाहो को बाज पक्षी की तरह सहज ही पार कर लिया॥१४॥

३८३.इन्द्रो यातोऽवसितस्य राजा शमस्य च शृङ्गिणो वज्रबाहुः ।
सेदु राजा क्षयति चर्षणीनामरान्न नेमिः परि ता बभूव ॥१५॥
हाथो मे वज्रधारण करने वाले इन्द्रदेव मनुष्य, पधु आदि सभी स्थावर-जंगम प्राणियो के राजा है। शान्त एवं क्रूर प्रकृति के सभी प्राणी उनके चारो ओर उसी प्रकार रहते है, जैसे चक्र की नेमि के चारो ओर उससे ’अरे’ होते है॥१५॥