ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३०

[ऋषि- शुनः शेप आजीगर्ति। देवता १-१६ इन्द्र, १७-१९ अश्‍विनीकुमार, २०-२२ उषा। छन्द १-१०,१२-१५ तथा १७-२२ गायत्री,११ पादनिचृत् गायत्री,१६ त्रिष्टूप्।]

३२९.आ व इन्द्रं क्रिविं यथा वाजयन्तः शतक्रतुम्। मंहिष्ठं सिञ्च इन्दुभिः॥१॥
जिस प्रकार अन्न की इच्छा वाले,खेत मे पानी सींचते है, उसी तरह हम बल की कामना वाले साधक इन महान् इन्द्रदेव को सोमरस से सींचते है॥१॥

३३०.शतं वा यः शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम्। एदु निम्नं न रीयते॥२॥
नीचे की ओर जाने वाले जल के समान सैकड़ो कलश सोमरस, सहस्त्रो कलश दूध मे मिश्रित होकर इन्द्रदेव को प्राप्त होता है॥२॥

३३१.सं यन्मदाय शुष्मिण एना ह्यस्योदरे। समुद्रो न व्यचो दधे॥३
समुद्र मे एकत्र हुये जल के सदृश सोमरस इन्द्रदेव के पेट मे एकत्र होकर उन्हे हर्ष प्रदान करता है॥३॥

३३२.अयमु ते समतसि कपोत इव गर्भधिम्। वचस्तच्चिन्न ओहसे॥४॥
हे इन्द्रदेव ! कपोत जिस स्नेह के साथ गर्भवती कपोती के पास रहता है, उसी प्रकार यह सोमरस आपके लिये प्रस्तुत है। आप हमारे निवेदन को स्वीकारे॥४॥

३३३.स्तोत्रं राधानां पते गिर्वाहो वीर यस्य ते। विभूतिरस्तु सूनृता॥५॥
जो (स्तोतागण), हे इन्द्र! हे धनाधिपति! हे स्तुतियों के आश्रयभूत! हे वीर! (इत्यादि) स्तुतियाँ करते है, उनके लिये आपकी विभूतियाँ प्रिय एवं सत्य सिद्ध हो॥५

३३४.ऊर्ध्वस्तिष्ठा न ऊतयेऽस्मिन्वाजे शतक्रतो। समन्येषु ब्रवावहै॥६॥
सैकड़ो यज्ञादि श्रेष्ठ कार्यो को सम्पन्न करने वाले हे इन्द्रदेव! संघर्षो (जीवन संग्राम) मे हमारे संरक्षण के लिये आप प्रयत्नशील रहे। हम आप से अन्य (श्रेष्ठ) कार्यो के विषय मे भी परस्पर विचार-विनिमय करते रहे॥६॥

३३५.योगेयोगे तवस्तरं वाजेवाजे हवामहे। सखाय इन्द्रमूतये॥७॥
सत्कर्मो के शुभारम्भ मे एवं हर प्रकार के संग्राम मे बलशाली इन्द्रदेव का हम अपने संरक्षण के लिये मित्रवत आवाहन करते हैं॥७॥

३३६.आ घा गमद्यदि श्रवत्सहस्रिणीभिरूतिभिः। वाजेभिरुप नो हवम्॥८॥
हमारी प्रार्थना से प्रसन्न होकर वे इन्द्रदेव निश्चित ही सहस्त्रो रक्षा साधनो तथा अन्न ,ऐश्वर्य आदि सहित हमारे पास आयेंगे॥८॥

३३७.अनु प्रत्नस्यौकसो हुवे तुविप्रतिं नरम्। यं ते पूर्वं पिता हुवे॥९॥
हम सहायता के लिये स्वर्गधाम के वासी, बहुतो के पास पहुँचकर उन्हे नेतृत्व प्रदान करने वाले इन्द्रदेव का आवाहन करते है। हमारे पिता ने भी ऐसा ही किया था॥९॥

३३८.तं त्वा वयं विश्ववारा शास्महे पुरुहूत। सखे वसो जरितृभ्यः॥१०॥
हे विश्ववरणीय इन्द्रदेव! बहुतो द्वारा आवाहित किये जाने वाले आप स्तोताओ के आश्रयदाता और मित्र है। हम ऋत्विग्गण आओअ से उन स्तोताओ को अनुगृहीत करने की प्रार्थना करते है॥१०॥

३३९.अस्माकं शिप्रिणीनां सोमपाः सोमपाव्नाम्। सखे वज्रिन्सखीनाम्॥११॥

हे सोम पीने वाले वज्रधारी इन्द्रदेव! सोम पीने के योग्य हमारे प्रियजनो और मित्रजनो मे आप ही श्रेष्ठ सामर्थ्य वाले है॥११॥

३४०.तथा तदस्तु सोमपाः सखे वज्रिन्तथा कृणु। यथा त उश्मसीष्टये॥१२॥
हे सोम पीने वाले वज्रधारी इन्द्रदेव! आप हमारी इच्छा पूर्ण करें। हम इष्टप्राप्ति के निमित्त आपकी कामना करे और वह पूर्ण हो॥१२॥

३४१.रेवतीर्नः सधमाद इन्द्रे सन्तु तुविवाजाः। क्षुमन्तो याभिर्मदेम ॥१३॥
जिन (इन्द्रदेव) की कृपा से हम धन-धान्य से परिपूर्ण होकर प्रफुल्लित होते हैं। उन इन्द्रदेव के प्रभाव से हमारी गौएँ भी प्रचुर मात्रा मे दुग्ध-घृतादि देने की सामर्थ्य वाली हों॥१३॥

३४२.आ घ त्वावान्त्मनाप्त स्तोतृभ्यो धृष्णवियानः। ऋणोरक्षं न चक्र्योः॥१४॥
हे धैर्यशाली इन्द्रदेव! आप कल्याणकारी बुद्धि से स्तुति करने वाले स्तोताओ को अभीष्ट पदार्थ अवश्य प्रदान करें। आप स्तोताओ को धन देने के लिये रथ के चक्रो को मिलाने वाली धुरी के समान ही सहायक है॥१४॥

३४३.आ यद्दुवः शतक्रतवा कामं जरितॄणाम्। ऋणोरक्षं न शचीभिः॥१५॥
हे इन्द्रदेव! आप स्तोताओ द्वारा इच्छित धन उन्हे प्रदान करें। जिस प्रकार रथ की गति से उसके अक्ष को भी गति मिलती है, उसी प्रकार स्तुतिकर्ताओ को धन की प्राप्ति हो॥१५॥

३४४.शश्वदिन्द्रः पोप्रुथद्भिर्जिगाय नानदद्भिः शाश्वसद्भिर्धनानि।
स नो हिरण्यरथं दंसनावान्स नः सनिता सनये स नोऽदात् ॥१६॥
सदैव स्फूर्तिवान,सदैव (शब्दवान) हिनहिनाते हुये तीव्र गतिशील अश्वो के द्वारा जो इन्द्रदेव शत्रुओ के धन को जीतते है; उन पराक्रमशील इन्द्रदेव ने अपने स्नेह से अपने स्नेह से हमे सोने का रथ (अकूत-वैभव) दिया है॥१६॥

३४५.आश्विनावश्वावत्येषा यातं शवीरया। गोमद्दस्रा हिरण्यवत्॥१७॥
हे शक्तिशाली अश्‍विनीकुमारो! आप बलशाली अश्वो के साथ अन्नो, गौओ और् स्वर्णादि धनो को लेकर यहाँ पधारें॥१७॥

३४६.समानयोजनो हि वां रथो दस्रावमर्त्यः। समुद्रे अश्विनेयते॥१८॥
हे अश्‍विनीकुमारो! आप दोनो के लिये जुतने वाला एक ही रथ आकाशमार्ग से जाता है। उसे कोई नष्ट नही कर सकता॥१८॥

३४७.न्यघ्न्यस्य मूर्धनि चक्रं रथस्य येमथुः। परि द्यामन्यदीयते॥१९
हे अश्‍विनीकुमारो! आप के रथ (पोषण प्रक्रिया) का एक चक्र पृथ्वी के मूर्धा भाग मे (पर्यावरण चक्र के रूप मे) स्थित है और दूसरा चक्र द्युलोक मे सर्वत्र गतिशील है॥१९॥

३४८.कस्त उषः कधप्रिये भुजे मर्तो अमर्त्ये। कं नक्षसे विभावरि॥२०
हे स्तुति-प्रिय, अमर, तेजोमयी उषे! कौन मनुष्य आपका अनुदान प्राप्त करता है ? किसे आप प्राप्त होती है? (अर्थात प्रायः सभी मनुष्य आलस्यादि दोषो के कारणा आप का लाभ पूर्णतया नही प्राप्त कर पाते)॥२०॥

३४९.वयं हि ते अमन्मह्यान्तादा पराकात्। अश्वे न चित्रे अरुषि ॥२१॥
हे अश्‍व (किरणो) युक्त चित्र विचित्र प्रकाश वाली उषे! हम दूर अथवा पास से आपकी महिमा समझने मे समर्थ नही है॥२१॥

३५०.त्वं त्येभिरा गहि वाजेभिर्दुहितर्दिवः। अस्मे रयिं नि धारय ॥२२॥
हे द्युलोक की पुत्री उषे! आप उन (दिव्य) बलो के साथ यहाँ आयें और हमे उत्तम ऐश्वर्य धारण करायें॥२२॥

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें