ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३२

[ऋषि - हिरण्यस्तूप अङ्गिरस। देवता - इन्द्र। छन्द - त्रिष्टुप]

३६९.इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्र वोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री ।
अहन्नहिमन्वपस्ततर्द प्र वक्षणा अभिनत्पर्वतानाम् ॥१॥
मेघो को विदिर्ण कर पानी बरसाने वाले, पर्वतिय नदियो ले तटो को निर्मित करने वाले वज्रधारी, पराक्रमी इन्द्रदेव के कार्य वर्णनीय है। उन्होने जो प्रमुख वीरतापूरण कार्य किये , वे ये ही हैं॥१॥

३७०.अहन्नहिं पर्वते शिश्रियाणं त्वष्टास्मै वज्रं स्वर्यं ततक्ष ।
वाश्रा इव धेनवः स्यन्दमाना अञ्जः समुद्रमव जग्मुरापः ॥२॥
इन्द्रदेव के लिये त्वष्टादेव ने शब्द चालित वज्र का निर्माण किया, उसी से इन्द्रदेव ने मेघो को विदिर्ण कर जल बरसाया। रंभाती हुयी गौओ के समान वे जलप्रवाह वेग से समुद्र की ओर चले गये॥२॥

३७१.वृषायमाणोऽवृणीत सोमं त्रिकद्रुकेष्वपिबत्सुतस्य ।
आ सायकं मघवादत्त वज्रमहन्नेनं प्रथमजामहीनाम् ॥३॥
अतिबलशाली इन्द्रदेव ने सोम को ग्रहण किया। यज्ञ मे तीन विशिष्ट पात्रो मे अभिषव किये हुये सोम का पान किया। ऐश्वर्यवान इन्द्रदेव ने बाण और वज्र को धारण कर मेघो मे प्रमुख मेघ को विदीर्ण किया॥३॥

३७२.यदिन्द्राहन्प्रथमजामहीनामान्मायिनाममिनाः प्रोत मायाः ।
आत्सूर्यं जनयन्द्यामुषासं तादीत्ना शत्रुं न किला विवित्से ॥४॥
हे इन्द्रदेव ! आपने मेघो मे प्रथम उत्पन्न मेघ को वेध दिया। मेघरूप मे छाये धुन्ध(मायावियो) को दूर किया, फिर आकाश मे उषा और सूर्य को प्रकट किया। अब कोई भी अवरोधक शत्रु शेष न रहा॥४॥

३७३.अहन्वृत्रं वृत्रतरं व्यंसमिन्द्रो वज्रेण महता वधेन ।
स्कन्धांसीव कुलिशेना विवृक्णाहिः शयत उपपृक्पृथिव्याः ॥५॥
इन्द्रदेव ने घातक दिव्य वज्र से वृत्रासुर का वध किया। वृक्ष की शाखाओ को कुल्हाड़े से काटने के समान उसकी भुजाओ को काटा ऐर तने की तरह इसे काटकर भूमि पर गिरा दिया॥५॥

३७४.अयोद्धेव दुर्मद आ हि जुह्वे महावीरं तुविबाधमृजीषम् ।
नातारीदस्य समृतिं वधानां सं रुजानाः पिपिष इन्द्रशत्रुः ॥६॥
अपने को अप्रतिम योद्धा मानने वाले मिथ्या अभिमानी वृत्र ने महाबली, शत्रुवेधक, शत्रुनाशक इन्द्रदेव को ललकारा और इन्द्रदेव के आघातो को सहन न कर गिरते हुये नदियो के किनारो को तोड़ दिया॥६॥

३७५.अपादहस्तो अपृतन्यदिन्द्रमास्य वज्रमधि सानौ जघान ।
वृष्णो वध्रिः प्रतिमानं बुभूषन्पुरुत्रा वृत्रो अशयद्व्यस्तः ॥७॥
हाथ और पांव के कट जाने पर भी वृत्र ने इन्द्रदेव से युद्ध करने का प्रयास किया। इन्द्रदेव ने उसके पर्वत सदृश कन्धो पर वज्र का प्रहार किया। इतने पर भी वह वर्षा करने मे समर्थ इन्द्रदेव के सम्मुख वह डटा रहा। अन्ततः इन्द्रदेव के आघातो से ध्वस्त होकर भूमि पर गिर पड़ा॥७॥

३७६.नदं न भिन्नममुया शयानं मनो रुहाणा अति यन्त्यापः ।
याश्चिद्वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत्तासामहिः पत्सुतःशीर्बभूव ॥८॥
जैसे नदी की बाढ़ तटो को लांघ जाती है है, वैसे ही मन को प्रसन्न करने वाले जल(जल अवरोधक) वृत्र को लांघ जाते है। जिन जलो को ’वृत्र’ ने अपने बल से आबद्ध किया था, उन्ही के नीचे ’वृत्र’ मृत्युशय्या पर पड़ा सो रहा है॥८॥

३७७.नीचावया अभवद्वृत्रपुत्रेन्द्रो अस्या अव वधर्जभार ।
उत्तरा सूरधरः पुत्र आसीद्दानुः शये सहवत्सा न धेनुः ॥९॥
वृत्र की माता शुककर वृत्र का संरक्षण करने लगी, इन्द्रदेव के प्रहार से बचाव के लिये वह वृत्र पर सो गयी. फिर भी इन्द्रदेव ने नीचे से उस पर प्रहार किया। उससमय माता ऊपर और पुत्र नीचे था, जैसे गाय अपने बछड़े के साथ सोती है॥९॥

३७८.अतिष्ठन्तीनामनिवेशनानां काष्ठानां मध्ये निहितं शरीरम् ।
वृत्रस्य निण्यं वि चरन्त्यापो दीर्घं तम आशयदिन्द्रशत्रुः ॥१०॥
एक स्थान पर न रुकने वाले अविश्रांत (मेघरुप) जल-प्रवाहो के मध्य वृत्र का अनाम शरीर छिपा रहता है। वह दिर्घ निद्रा मे पड़ा रहता है, उसके ऊपर जल प्रवाह बना रहता है॥१०॥

३७९.दासपत्नीरहिगोपा अतिष्ठन्निरुद्धा आपः पणिनेव गावः ।
अपां बिलमपिहितं यदासीद्वृत्रं जघन्वाँ अप तद्ववार ॥११॥
’पणि’ नामक असुर ने जिस प्रकार गौओ अथवा किरणो को अवरूद्ध कर रखा था, उसी प्रकार जल-प्रवाहो को अगतिशील वृत्र ने रोक रखा था। वृत्र का वध कर वे प्रवाह खोल दिये गये॥११॥

३८०.अश्व्यो वारो अभवस्तदिन्द्र सृके यत्त्वा प्रत्यहन्देव एकः ।
अजयो गा अजयः शूर सोममवासृजः सर्तवे सप्त सिन्धून् ॥१२॥
हे इन्द्रदेव! जब कुशल योद्धा वृत्र ने वज्र पर प्रहार किया, तब घोड़े की पूंछ हिलाने के तरह , बहुत आसानी से आपने अविचलित भाव से उसे दूर कर दिया। हे महाबली इन्द्रदेव ! सोम और गौओ को जीतकर आपने (वृत्र के अवरोध को नष्ट कर) गंगादि सरिताओ को प्रवाहित किया॥१२॥

३८१.नास्मै विद्युन्न तन्यतुः सिषेध न यां मिहमकिरद्ध्रादुनिं च ।
इन्द्रश्च यद्युयुधाते अहिश्चोतापरीभ्यो मघवा वि जिग्ये ॥१३॥
युद्ध मे वृत्रद्वारा प्रेरित भीषण विद्युत, भयंकर मेघ गर्जन, जल और हिम वर्षा भी इन्द्रदेव को रोक नही सके। वृत्र के प्रचण्ड घातक प्रयोग भी निरर्थक हुए। उस युद्ध मे असुर के कर प्रहार को इन्द्रदेव ने निरस्त करके उसे जीत लिया॥१३॥

३८२.अहेर्यातारं कमपश्य इन्द्र हृदि यत्ते जघ्नुषो भीरगच्छत् ।
नव च यन्नवतिं च स्रवन्तीः श्येनो न भीतो अतरो रजांसि ॥१४॥
हे इन्द्रदेव! वृत्र का वध करते समय यदि आपके हृदय मे भय उत्पन्न होता तो किस दूसरे वीर को असुर वध के लिये देखते ? ऐसा करके आपने निन्यानबे (लगभग सम्पूर्ण) जल प्रवाहो को बाज पक्षी की तरह सहज ही पार कर लिया॥१४॥

३८३.इन्द्रो यातोऽवसितस्य राजा शमस्य च शृङ्गिणो वज्रबाहुः ।
सेदु राजा क्षयति चर्षणीनामरान्न नेमिः परि ता बभूव ॥१५॥
हाथो मे वज्रधारण करने वाले इन्द्रदेव मनुष्य, पधु आदि सभी स्थावर-जंगम प्राणियो के राजा है। शान्त एवं क्रूर प्रकृति के सभी प्राणी उनके चारो ओर उसी प्रकार रहते है, जैसे चक्र की नेमि के चारो ओर उससे ’अरे’ होते है॥१५॥

2 टिप्पणियाँ:

Unknown ने कहा…

संस्कृत में भी इसका व्याख्या होनी चाहिए थी

Pt. Santosh Bhardwaj ने कहा…

Good attempt. Keep it up.

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