ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३३

[ऋषि - हिरण्यस्तूप अङ्गिरस। देवता - इन्द्र। छन्द - त्रिष्टुप]
३८४.एतायामोप गव्यन्त इन्द्रमस्माकं सु प्रमतिं वावृधाति ।
अनामृणः कुविदादस्य रायो गवां केतं परमावर्जते नः ॥१॥
गौऔ को प्राप्त करने की कामना से युक्त मनुष्य इन्द्रदेव के पास जायें। ये अपराजेय इन्द्रदेव हमारे लिए गोरूप धनो को बढा़ने की उत्तम बुद्धि देंगे। वे गौओ की प्राप्ति का उत्तम उपाय करेंगें॥१॥

३८५.उपेदहं धनदामप्रतीतं जुष्टां न श्येनो वसतिं पतामि ।
इन्द्रं नमस्यन्नुपमेभिरर्कैर्य स्तोतृभ्यो हव्यो अस्ति यामन् ॥२॥
श्येन पक्षी के वेगपूर्वक घोंसले मे जाने के समान हम उन धन दाता इन्द्रदेव के समीप पहुंचकर स्तोत्रो से उनका पूजन करते है। युद्ध मे सहायता के लिए स्तोताओ द्वारा बुलाये जाने पर अपराजेय इन्द्रदेव अविलम्ब पहुंचते है॥२॥

३८६.नि सर्वसेन इषुधीँरसक्त समर्यो गा अजति यस्य वष्टि ।
चोष्कूयमाण इन्द्र भूरि वामं मा पणिर्भूरस्मदधि प्रवृद्ध ॥३॥
सब सेनाओ के सेनापति इन्द्रदेव तरकसो को धारण कर गौओ एवं धन को जीतते हैं। हे स्वामी इन्द्रदेव! हमारी धन-प्राप्ति की इच्छा पूरी करने मे आप वैश्य की तरह विनिमय जैसा व्यवहार न करें॥३॥

३८७.वधीर्हि दस्युं धनिनं घनेनँ एकश्चरन्नुपशाकेभिरिन्द्र ।
धनोरधि विषुणक्ते व्यायन्नयज्वानः सनकाः प्रेतिमीयुः ॥४॥
हे इन्द्रदेव! आपने अकेले ही अपने प्रचण्ड वज्र से धनवान दस्यु वृत्र का वध किया। जब उसके अनुचरो ने आपके उपर आक्रमण किया, तब यज्ञ विरोधी उन दानवो को आपने दृढ़तापूरवक नष्ट कर दिया ॥४॥

३८८.परा चिच्छीर्षा ववृजुस्त इन्द्रायज्वानो यज्वभि स्पर्धमानाः ।
प्र यद्दिवो हरिव स्थातरुग्र निरव्रताँ अधमो रोदस्योः ॥५॥
हे इन्द्रदेव! याजको से स्पर्धा करनेवाले अयाज्ञिक मुंह छिपाकर भाग गये। हे अश्व-अधिष्ठित इन्द्रदेव! आप युद्ध मे अटल और प्रचण्ड सामर्थ्य वाले है। आपने आकाश, अंतरिक्ष और पृथ्वी से धर्म-व्रतहीनो को हटा दिया है॥५॥

३८९.अयुयुत्सन्ननवद्यस्य सेनामयातयन्त क्षितयो नवग्वाः ।
वृषायुधो न वध्रयो निरष्टाः प्रवद्भिरिन्द्राच्चितयन्त आयन् ॥६॥
उन शत्रुओ ने इन्द्रदेव की निर्दोष सेना पर पूरी शक्ति से प्रहार किया, फिर भी हार गये। उनकी वही स्थिति हो गयी, जो शक्तिशाली वीर से युद्ध करने पर नपुंसक की होती है। अपनी निर्बलता स्वीकार करते हुये वे सब इन्द्रदेव से दूर चले गये॥६॥

३९०.त्वमेतान्रुदतो जक्षतश्चायोधयो रजस इन्द्र पारे ।
अवादहो दिव आ दस्युमुच्चा प्र सुन्वत स्तुवतः शंसमावः ॥७॥
हे इन्द्रदेव! आपने रोने या हंसने वाले इन शत्रुओ को युद्ध करके मार दिया, दस्यु वृत्र को ऊंचा उठाकर आकाश से नीचे गिराकर जला दिया। आपने सोमयज्ञ करनेवालो और प्रशंसक स्तोताओ की रक्षा की॥७॥

३९१.चक्राणासः परीणहं पृथिव्या हिरण्येन मणिना शुम्भमानाः ।
न हिन्वानासस्तितिरुस्त इन्द्रं परि स्पशो अदधात्सूर्येण ॥८॥
उन शत्रुओ ने पृथ्वी के उपर पना आधिपत्य स्थापित किता और स्वार्ण-रत्नादि से सम्पन्न हो गये, परन्तु वे इन्द्रदेव के साथ युद्ध मे ठहर ना सके। सूर्यदेव के द्वारा उन्हे दूर कर दिया गया॥८॥

३९२.परि यदिन्द्र रोदसी उभे अबुभोजीर्महिना विश्वतः सीम् ।
अमन्यमानाँ अभि मन्यमानैर्निर्ब्रह्मभिरधमो दस्युमिन्द्र ॥९॥
हे इन्द्रदेव! आपने अपनी सामर्थ्य से द्युलोक और भूलोक का चारो ओर से उपयोह किया। हे इन्द्रदेव~ आपने अपने अनुचरो द्वारा विरोधियों पर विजय प्राप्त की। आपने मन्त्र शक्ति से(ज्ञान पूर्वक किये गये प्रयासो से) शत्रु पर विजय प्राप्त की॥९॥

३९३.न ये दिवः पृथिव्या अन्तमापुर्न मायाभिर्धनदां पर्यभूवन् ।
युजं वज्रं वृषभश्चक्र इन्द्रो निर्ज्योतिषा तमसो गा अदुक्षत् ॥१०॥
मेघ रूप वृत्र के द्वारा रोक लिये जाने के कारण जो जल द्युलोक से पृथ्वी पर नहीं बरस सके एवं जलो के अभाव से भूमी श्स्यश्यामला न हो सकी, तब इन्द्रदेव ने अपने जाज्वल्यमान वज्र से अन्धकार रूपी मेघ को भेदकर गौ के समान जल का दोहन किया॥१०॥

३९४.अनु स्वधामक्षरन्नापो अस्यावर्धत मध्य आ नाव्यानाम् ।
सध्रीचीनेन मनसा तमिन्द्र ओजिष्ठेन हन्मनाहन्नभि द्यून् ॥११॥
जल इन ब्रीहि यवादि रूप अन्न वृद्धि के लिये (मेघो से) बरसने लगे। उस समय नौकाओ के मार्ग पर (जलो मे) वृत्र बढ़ता रहा। इन्द्रदेव ने अपने शक्ति साधनो द्वारा एकाग्र मन से अल्प समयावधि मे ही उस वृत्र को मार गिराया॥११॥

३९५.न्याविध्यदिलीबिशस्य दृळ्हा वि शृङ्गिणमभिनच्छुष्णमिन्द्रः ।
यावत्तरो मघवन्यावदोजो वज्रेण शत्रुमवधीः पृतन्युम् ॥१२॥
इन्द्रदेव ने गुफा मे सोये हुए वृत्र के किलो को ध्वस्त करके उस सींगवाले शोषक वृत्र को क्षत-विक्षत कर दिया। हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! आपने सम्पूर्ण वेग और बल से शत्रु सेना का विनाश किया॥१२॥

३९६.अभि सिध्मो अजिगादस्य शत्रून्वि तिग्मेन वृषभेणा पुरोऽभेत् ।
सं वज्रेणासृजद्वृत्रमिन्द्रः प्र स्वां मतिमतिरच्छाशदानः ॥१३॥
इन्द्रदेव का तीक्ष्ण और शक्तिशाली वज्र शत्रुओ को लक्ष्य बनाकर उनके किलों को ध्वस्त करता है। शत्रुओ को वज्र से मारकर इन्द्रदेव स्वयं अतीव उत्साहित हुए॥१३॥

३९७.आवः कुत्समिन्द्र यस्मिञ्चाकन्प्रावो युध्यन्तं वृषभं दशद्युम् ।
शफच्युतो रेणुर्नक्षत द्यामुच्छ्वैत्रेयो नृषाह्याय तस्थौ ॥१४॥
हे इन्द्रदेव! ’कुत्स’ ऋषि के प्रति सेन्ह होने से आपने उनकी रक्षा की और अपने शत्रुओ के साथ युद्ध करबे वाले श्रेष्ठ गुणवान ’दशद्यु’ ऋषि की भी आपने रक्षा की। उस सहमय अश्वो के खुरो से धूल आकाश तक फैल गई, तब शत्रुभय से जल मे छिपने वाले ’श्वैत्रेय’ नामक पुरुष की रक्षाकर आपने उसे जल से बाहर निकाला॥१४॥

३९८.आवः शमं वृषभं तुग्र्यासु क्षेत्रजेषे मघवञ्छ्वित्र्यं गाम् ।
ज्योक्चिदत्र तस्थिवांसो अक्रञ्छत्रूयतामधरा वेदनाकः ॥१५॥
हे धनवान इन्द्रदेव ! क्षेत्र प्राप्ति की इच्छा से सशक्त जल-प्रवाहो मे घिरने वाले ’श्वित्र्य’(व्यक्तिविशेष) की आपने रक्षा की। वहीं जलो मे ठहरकर अधिक समय तक आप शत्रुओ से युद्ध करते रहे। उन शत्रुओ को जलो के नीचे गिराकर आपने मार्मिक पीड़ा पहुंचायी॥१५॥

1 टिप्पणियाँ:

Unknown ने कहा…

भावार्थ के साथ शब्दार्थ भी रहे तो अर्थ स्पष्ट होगा

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