ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २९

[ऋषि- शुन:शेप आजीगर्ति। देवता इन्द्र।छन्द पंक्ति।]

३२२.यच्चिद्धि सत्य सोमपा अनाशस्ता इव स्मसि। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥१॥
हे सत्य स्वरूप सोमपायी इन्द्रदेव! यद्यपि हम प्रशंसा के पात्र तो नही है, तथापि हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! हमे सहस्त्रो श्रेष्ठ गौंएँ और घोड़े प्रदान करके संपन्न बनायें॥१॥
३२३.शिप्रिन्वाजानां पते शचीवस्तव दंसना। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥२॥
हे इन्द्रदेव ! आप शक्तिशाली, शिरस्त्राण धारण करने वाले, बलो के अधीश्वर और ऐश्वर्यशाली है। आपका सदैव हम पर अनुग्रह बना रहे। हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! हमे सहस्त्रो श्रेष्ठ गौंएँ और घोड़े प्रदान करके संपन्न बनायें॥२॥
३२४.नि ष्वापया मिथूदृशा सस्तामबुध्यमाने। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥३॥
हे इन्द्रदेव! दोनो दुर्गतियाँ (विपत्ति और दरिद्रता) परस्पर एक दूसरे को देखती हुई सो जायें। वे कभी न जागें, वे अचेत पड़ी रहें।हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! हमे सहस्त्रो श्रेष्ठ गौंएँ और घोड़े प्रदान करके संपन्न बनायें॥३॥
३२५.ससन्तु त्या अरातयो बोधन्तु शूर रातयः। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥४॥
हे इन्द्रदेव! हमारे शत्रु सोते रहें और हमारे विर मित्र जागते रहे। हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! हमे सहस्त्रो श्रेष्ठ गौंएँ और घोड़े प्रदान करके संपन्न बनायें॥४॥
३२६.समिन्द्र गर्दभं मृण नुवन्तं पापयामुया। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥५॥
हे इन्द्रदेव ! कपटपूर्ण वाणी बोलनेवाले शत्रु रूप गधे को मार डालें। हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! हमे सहस्त्रो श्रेष्ठ गौंएँ और घोड़े प्रदान करके संपन्न बनायें॥५॥
३२७.पताति कुण्डृणाच्या दूरं वातो वनादधि। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥६॥
हे इन्द्रदेव ! विध्वंशकारी बवंडर वनो से दूर जाकर गिरें। हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! हमे सहस्त्रो श्रेष्ठ गौंएँ और घोड़े प्रदान करके संपन्न बनायें॥६॥
३२८.सर्वं परिक्रोशं जहि जम्भया कृकदाश्वम्। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ ॥७॥
हे इन्द्रदेव ! हम पर आक्रोश करने वाले सब शत्रुओ को विनष्ट करें। हिंसको का नाश करें। हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! हमे सहस्त्रो श्रेष्ठ गौंएँ और घोड़े प्रदान करके संपन्न बनायें॥ ७॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २८

[ऋषि- शुन:शेप आजीगर्ति। देवता १-४ इन्द्र,५-६ उलूखल,७-८ उलूखल-मूसल,९ प्रजापति,हरिश्चन्द्रः,अधिषवणचर्म अथवा सोम छन्द १-६ अनुष्टुप,७-९ गायत्री।]

३१३.यत्र ग्रावा पृथुबुध्न ऊर्ध्वो भवति सोतवे। उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः॥१॥
हे इन्द्रदेव! जहाँ (सोमवल्ली) कूटने के लिए बड़ा मूसल उठाया जाता है(अर्थात सोमरस तैयार किया जाता है), वहाँ(यज्ञशाला मे) उलूखल से निष्पन्न सोमरस का पान करें॥१॥
३१४.यत्र द्वाविव जघनाधिषवण्या कृता। उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः॥२॥
हे इन्द्रदेव! जहाँ दो जंघाओ के समान विस्तृत,सोम कुटने के दो फलक रखे है, वहाँ (यज्ञशाला मे) उलूखल से निष्पन्न सोमरस का पान करें॥२॥
३१५.यत्र नार्यपच्यवमुपच्यवं च शिक्षते। उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः॥३॥
हे इन्द्रदेव! जहाँ गृहिणी सोमरस कुटने का अभ्यास करती है, वहाँ (यज्ञशाला मे) उलूखल से निष्पन्न सोमरस का पान करें॥३॥
३१६.यत्र मन्थां विबध्नते रश्मीन्यमितवा इव। उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः॥४॥
हे इन्द्रदेव! जहाँ सारथी द्वारा घोड़े को लगाम लगाने के समान (मथनी को) रस्सी से बाँधकर मन्थन लरते है, वहाँ (यज्ञशाला मे) उलूखल से निष्पन्न सोमरस का पान करें॥४॥
३१७.यच्चिद्धि त्वं गृहेगृह उलूखलक युज्यसे। इह द्युमत्तमं वद जयतामिव दुन्दुभिः॥५॥
हे उलूखल! यद्यपि घर घर मे तुमसे काम लिया जाता है, फिर भी हमारे घर मे विजय दुन्दुभि के समान उच्च शब्द करो॥५॥
३१८.उत स्म ते वनस्पते वातो वि वात्यग्रमित्। अथो इन्द्राय पातवे सुनु सोममुलूखल॥६॥
हे उलूखल - मूसल रूपे वनस्पति! तुम्हारे सामने वायु विशेष गति से बहती है। हे उलूखल! अब इन्द्रदेव के सेवनार्थ सोमरस का निष्पादन करो॥६॥
३१९.आयजी वाजसातमा ता ह्युच्चा विजर्भृतः। हरी इवान्धांसि बप्सता॥७॥
यज्ञ के साधन रूप पूजन योग्य वे उलूखल और मूसल दोनो, अन्न(चने) खाते हुये इन्द्रदेव के दोनो अश्वो के समान उच्च स्वर से शब्द करते हैं॥७॥
३२०.ता नो अद्य वनस्पती ऋष्वावृष्वेभिः सोतृभिः। इन्द्राय मधुमत्सुतम्॥८॥
दर्शनीय उलूखल एवं मूसल रूपे वनस्पते! आप दोनो सोमयाग करने वालों के साथ इन्द्रदेव के लिये मधुर सोमरस का निष्पादन करो॥८॥
३२१.उच्छिष्टं चम्वोर्भर सोमं पवित्र आ सृज। नि धेहि गोरधि त्वचि॥९॥
उलूखल और मूसल द्वारा निष्पादित सोम को पात्र से निकाल कर पवित्र कुशा के आसन पर रखें और अवशिष्ट को छानने के लिये पवित्र चर्म पर रखें॥९॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २७

[ऋषि- शुन:शेप आजीगर्ति। देवता १-१२अग्नि, १३ देवतागण। छन्द १-१२ गायत्री,१३ त्रिष्टुप।]

३००.अश्वं न त्वा वारवन्तं वन्दध्या अग्निं नमोभिः। सम्राजन्तमध्वराणाम्॥१॥
तमोनाशक, यज्ञो के सम्राट स्वरूप हे अग्निदेव! हम स्तुतियो ले द्वारा आपकी वंदना करते है। जिस प्रकार अश्व अपनी पूँछ के बालो से मक्खी मच्छर दूर भगाता है, उसी प्रकार आप भी ज्वालाओ से हमारे विरोधियों को दूर भगायें॥१॥
३०१.स घा नः सूनुः शवसा पृथुप्रगामा सुशेवः। मीढ्वाँ अस्माकं बभूयात्॥२॥
हम इन अग्निदेव की उत्तम विधि से उपासना करते है। वे बल से उत्पन्न, शीघ्र गतिशील अग्निदेव हमे अभिष्ट सुखो को प्रदान करें॥२॥
३०२.स नो दूराच्चासाच्च नि मर्त्यादघायोः। पाहि सदमिद्विश्वायुः॥३॥
हे अग्निदेव! सब मनुष्यो के हितचिंतक आप दूर से और निकट से, अनिष्ट चिंतको से सदैव हमारी रक्षा करें॥३॥
३०३.इममू षु त्वमस्माकं सनिं गायत्रं नव्यांसम्। अग्ने देवेषु प्र वोचः॥४॥
हे अग्निदेव! आप हमारे गायत्री परक प्राण पोषक स्तोत्रो एवं नवीन अन्न(हव्य) को देवो रक (देव वृत्तियों के पोषण हेतु) पहुँचाये॥४॥
३०४.आ नो भज परमेष्वा वाजेषु मध्यमेषु। शिक्षा वस्वो अन्तमस्य॥५॥
हे अग्निदेव! आप हमे श्रेष्ठ (आध्यात्मिक), मध्यम(आधिदैविक) एवं कनिष्ठ(आधिभौतिक) अर्थात सभी प्रकार की धन सम्पदा प्रदान करें॥५॥
३०५.विभक्तासि चित्रभानो सिन्धोरूर्मा उपाक आ। सद्यो दाशुषे क्षरसि॥६॥
सात ज्वालाओ से दीप्तिमान हे अग्निदेव! आप धनदायक है। नदी के पास आने वाली जल तरंगो ले सदृश आप हविष्यान्न दाता को तत्क्षण (श्रेष्ठ) कर्म फल प्रदान करतें है॥६॥
३०६.यमग्ने पृत्सु मर्त्यमवा वाजेषु यं जुनाः। स यन्ता शश्वतीरिषः॥७॥
हे अग्निदेव ! आप जीवन संग्राम मे जिस पुरुष को प्रेरित करते हैं, उनकी रक्षा आप स्व्यं करते हैं। साथ ही उसके लिये पोषक अन्नो की पूर्ति भी करते हैं॥७॥
३०७.नकिरस्य सहन्त्य पर्येता कयस्य चित्। वाजो अस्ति श्रवाय्यः॥८॥
हे शत्रु विजेता अग्निदेव! आपके उपासक को कोई पराजित नही कर सकता, क्योंकि उसकी(आपके द्वारा प्रदत्त) तेजस्विता प्रसिद्ध है॥८॥
३०८.स वाजं विश्वचर्षणिरर्वद्भिरस्तु तरुता। विप्रेभिरस्तु सनिता॥९॥
सब मनुष्यो के कल्याणकारक वे अग्निदेव जीवन-संग्राम मे अश्व रूपी इन्द्रियो द्वारा विजयी बनाने वाले हो। मेधावी पुरुषो द्वारा प्रशंसित वे अग्निदेव हमे अभीष्ट फल प्रदान करें॥९॥
३०९.जराबोध तद्विविड्ढि विशेविशे यज्ञियाय। स्तोमं रुद्राय दृशीकम्॥१०॥
स्तुतियो से देवो को प्रबोधित करने वाले हे अग्निदेव! ये यजमान, पुनीत यज्ञ स्थल पर दुष्टता विनाश हेतु आपका आवाहन करते है॥१०॥
३१०.स नो महाँ अनिमानो धूमकेतुः पुरुश्चन्द्रः। धिये वाजाय हिन्वतु॥११॥
अपरिमिर्त धूम्र-ध्वजा से युक्त, आनन्दप्रदम महान वे अग्निदेव हमे ज्ञान और वैभव की ओर प्रेरित करें॥११॥
३११.स रेवाँ इव विश्पतिर्दैव्यः केतुः शृणोतु नः। उक्थैरग्निर्बृहद्भानुः॥१२॥
विश्वपालक, अत्यन्त तेजस्वी और ध्वजा सदृश गुणो से युक्त दूरदर्शी वे अग्निदेव वैभवशाली राजा के समान हमारी स्तवन रूपी वाणियो को ग्रहण करें॥१२॥
३१२.नमो महद्भ्यो नमो अर्भकेभ्यो नमो युवभ्यो नम आशिनेभ्यः।
यजाम देवान्यदि शक्नवाम मा ज्यायसः शंसमा वृक्षि देवाः॥१३॥
बड़ो, छोटोम युवको और वृद्धो को हम नमस्कार करते है। सामर्थ्य के अनुसार हम देवो का यजन करें। हे देवो! अपने से बड़ो के सम्मान मे हमारे द्वारा कोई त्रुटी न हो॥१३॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २६

[ऋषि- शुन:शेप आजीगर्ति। देवता अग्नि।छन्द गायत्री।]

वसिष्वा हि मियेध्य वस्त्राण्यूर्जां पते। सेमं नो अध्वरं यज॥१॥
हे यज्ञ योग्य अन्नो के पालक अग्निदेव! आप अपने तेजरूप वस्त्रो को पहनकर हमारे यज्ञ को सम्पादित करें॥१॥
नि नो होता वरेण्यः सदा यविष्ठ मन्मभिः। अग्ने दिवित्मता वचः॥२॥
सदा तरुण रहने वाले हे अग्निदेव! आप सर्वोत्तम होता(यज्ञ सम्पन्न कर्ता) के रूप मे यज्ञकुण्ड मे स्थापित होकर स्तुति वचनो का श्रवण करें॥२॥
आ हि ष्मा सूनवे पितापिर्यजत्यापये। सखा सख्ये वरेण्यः॥३॥
हे वरण करने योग्य अग्निदेव! जैसे पिता अपने पुत्र के,भाई अपने भाई के और मित्र अपने मित्र के सहायक होते है, वैसे ही आप हमारी सहायता करें॥३॥
आ नो बर्ही रिशादसो वरुणो मित्रो अर्यमा। सीदन्तु मनुषो यथा॥४॥
जिस प्रकार प्रजापति के यज्ञ मे "मनु " आकर शोभा बढा़ते हैं, उसी प्रकार शत्रुनाशक वरुणदेव, मित्र-देव एवं अर्यमादेव हमारे यज्ञ मे आकर विराजमान हो॥४॥
पूर्व्य होतरस्य नो मन्दस्व सख्यस्य च। इमा उ षु श्रुधी गिरः॥५॥
पुरातन होता हे अग्निदेव! आप हमारे इस यज्ञ से और हमारे मित्रभाव से प्रसन्न हों और हमारी स्तुतियों को भली प्रकार से सुने॥५॥
यच्चिद्धि शश्वता तना देवंदेवं यजामहे। त्वे इद्धूयते हविः॥६॥
हे अग्निदेव! इन्द्र, वरुण आदि अन्य देवताओ के लिये प्रतिदिन विस्तृत आहुतियाँ अर्पित करने पर भी सभी हविष्यमान आपको ही प्राप्त होते है॥६॥
प्रियो नो अस्तु विश्पतिर्होता मन्द्रो वरेण्यः। प्रियाः स्वग्नयो वयम्॥७॥
यज्ञ समपन्न करने वाले प्रजापालक, आनदवर्धक,वरण करने योग्य हे अग्निदेव आप हमे प्रिय हो तथा श्रेष्ठ विधि से यज्ञाग्नि की रक्षा करते हुये हम सदैव आपके प्रिय रहें॥७॥
स्वग्नयो हि वार्यं देवासो दधिरे च नः। स्वग्नयो मनामहे॥८॥
उत्तम अग्नि से युक्त हो कर दैदीप्यमान ऋत्विजो के हमारे लिये ऐश्वर्य को धारण किया है, वैसे जी हम उत्तम अग्नि से युक्त होकर इनका (ऋत्विज) का स्वागत करते है॥८॥
अथा न उभयेषाममृत मर्त्यानाम्। मिथः सन्तु प्रशस्तयः॥९॥
अमरत्व को धारण करने वाले हे अग्निदेव! आपके और हम मरणशील मनुष्यो के बीच स्नेहयुक्त और प्रशंसनीय वाणियो का आदान प्रदान होता रहे॥९॥
विश्वेभिरग्ने अग्निभिरिमं यज्ञमिदं वचः। चनो धाः सहसो यहो॥१०॥
बल के पुत्र(अरणि मन्थन के रूप शक्ति से उत्पन्न) भे अग्निदेव! आप(आहवनीयादि) अग्नियो के साथ यज्ञ मे पधारें और स्तुतियों को सुनते हुये अन्न(पोषण) प्रदान करें॥१०॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २५

[ऋषि- शुन:शेप आजीगर्ति। देवता वरुण।छन्द गायत्री।]

२६९.यच्चिद्धि ते विशो यथा प्र देव वरुण व्रतम्। मिनीमसि द्यविद्यवि॥१॥
हे वरुणदेव! जैसे अन्य मनुष्य आपके व्रत अनुष्ठान मे प्रमाद करते है,वैसे ही हमसे भी आपके नियमो मे कभी कभी प्रमाद हो जाता है।(कृपया इसे क्षमा करें)॥१॥
२७०.मा नो वधाय हत्नवे जिहीळानस्य रीरधः। मा हृणानस्य मन्यवे॥२॥
हे वरुणदेव! आपने अपने निरादर करने वाले का वध करने के लिये धारण किये गये शस्त्र के सम्मुख हमे प्रस्तुत न करें। अपनी क्रुद्ध अवस्था मे भी हम पर कृपा कर क्रोध ना करें॥२॥
२७१.वि मृळीकाय ते मनो रथीरश्वं न संदितम्। गीर्भिर्वरुण सीमहि॥३॥
हे वरुणदेव! जिस प्रकार रथी अपने थके घोड़ो की परिचर्या करते हैं, उसी प्रकार आपके मन को हर्षित करने के लिये हम स्तुतियो का गान करते हैं॥३॥
२७२.परा हि मे विमन्यवः पतन्ति वस्यइष्टये। वयो न वसतीरुप॥४॥
हे वरुणदेव! जिस प्रकार पक्षी अपने घोसलो की ओर दौड़ते हुये गमन करते है,उसी प्रकार हमारी चंचल बुद्धियाँ धन प्राप्ति के लिये दूर दूर तक दौड़ती है॥४॥
२७३.कदा क्षत्रश्रियं नरमा वरुणं करामहे। मृळीकायोरुचक्षसम्॥५॥
बल ऐश्वर्य के अधिपति सर्वद्रष्टा वरुणदेव को कल्याण के निमित्त हम यहाँ (यज्ञस्थल मे) कब बुलायेंगे?(अर्थात यह अवसर कब मिलेगा?)॥५॥
२७४.तदित्समानमाशाते वेनन्ता न प्र युच्छतः। धृतव्रताय दाशुषे॥६॥
व्रत धारण करने वाले(हविष्यमान)दाता यजमान के मंगल के निमित्त ये मित्र और वरुण देव हविष्यान की इच्छा करते है, वे कभी उसका त्याग नही करते। वे हमे बन्धन से मुक्त करें॥६॥
२७५.वेदा यो वीनां पदमन्तरिक्षेण पतताम्। वेद नावः समुद्रियः॥७॥
हे वरुण देव! आकाश मे उड़ने वाले पक्षियो के मार्ग को और समुद्र मे संचार करने वाली नौकाओ के मार्ग को भी आप जानते है॥७॥
२७६.वेद मासो धृतव्रतो द्वादश प्रजावतः। वेदा य उपजायते॥८॥
नियम धारक वरुणदेव प्रजा के उपयोगी बारह महिनो को जानते है और तेरहवे मास(पुरुषोत्तम मास) को भी जानते है॥८॥
२७७.वेद वातस्य वर्तनिमुरोरृष्वस्य बृहतः। वेदा ये अध्यासते॥९॥
वे वरुणदेव अत्यन्त विस्तृत,दर्शनिय और अधिक गुणवान वायु के मार्ग को जानते है। वे उपर द्युलोक मे रहने वाले देवो को भी जानते हैं॥९॥
२७८.नि षसाद धृतव्रतो वरुणः पस्त्यास्वा। साम्राज्याय सुक्रतुः॥१०॥
प्रकृति के नियमो का विधिवत पालन कराने वाले,श्रेष्ठ कर्मो मे सदैव निरत रहने वाले वरुणदेव प्रजाओ मे साम्राज्य स्थापित करने के लिये बैठते है॥१०॥
२७९.अतो विश्वान्यद्भुता चिकित्वाँ अभि पश्यति। कृतानि या च कर्त्वा॥११॥
सब अद्‍भुत कर्मो की क्रिया विधि जानने वाले वरुणदेव, जो मर्म संपादित हो चुके है और जो किये जाने वाले है, उन सबको भली-भांति देखते है॥११॥
२८०.स नो विश्वाहा सुक्रतुरादित्यः सुपथा करत्। प्र ण आयूंषि तारिषत्॥१२॥
वे उत्तम कर्मशील अदिति पुत्र वरुणदेव हमे सदा श्रेष्ठ मार्ग की ओर प्रेरित करें और हमारी आयु को बढा़यें॥१२॥
२८१.बिभ्रद्द्रापिं हिरण्ययं वरुणो वस्त निर्णिजम्। परि स्पशो नि षेदिरे॥१३॥
सुवर्णमय कवच धारण करके वरुणदेव अपने हस्ट-पुष्ट शरीर को सुसज्जित करते है। शुभ्र प्रकाश किरणे उनके चारो ओर विस्तीर्ण होती है॥१३॥
२८२.न यं दिप्सन्ति दिप्सवो न द्रुह्वाणो जनानाम्। न देवमभिमातयः॥१४॥
हिंसा करने की इच्छा वाले शत्रु-जन(भयाक्रान्त होकर) जिनकी हिंसा नही कर पाते, लोगो के प्रति द्वेष रखने वाले , जिनसे द्वेष नही कर पाते ऐसे वरुणदेव को पापीजन स्पर्श तक नही कर पाते॥१४॥
२८३.उत यो मानुषेष्वा यशश्चक्रे असाम्या। अस्माकमुदरेष्वा॥१५॥
जिन वरुणदेव ने मनुष्यो के लिये विपुल अन्न भंडार उत्पन्न किया है;उन्होने ही हमारे उदर मे पाचन सामर्थ्य भी स्थापित की है॥१५॥
२८४.परा मे यन्ति धीतयो गावो न गव्यूतीरनु। इच्छन्तीरुरुचक्षसम्॥१६॥
उस सर्वद्रष्टा वरुणदेव की कामना करने वाली हमारी बुद्धीयाँ, वैसे ही उन तक पहुंचती है जैसे गौएँ श्रेष्ठ बाड़े की ओर जाती है॥१६॥
२८५.सं नु वोचावहै पुनर्यतो मे मध्वाभृतम्। होतेव क्षदसे प्रियम्॥१७॥
होता (अग्निदेव) के समान हमारे द्वारे लाकर समर्पित की गई हवियो का आप अग्निदेव के समान भक्षण करे, फिर हम दोनो वार्ता करेंगे॥१७॥
२८६.दर्शं नु विश्वदर्शतं दर्शं रथमधि क्षमि। एता जुषत मे गिरः॥१८॥
दर्शनिय वरुण को उनके रथ के साथ हमने भूमि पर देखा है। उन्होने हमारी स्तुतियाँ स्वीकारी हैं॥१८॥
२८७.इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय। त्वामवस्युरा चके॥१९॥
हे वरुणदेव! आप हमारी प्रार्थना पर ध्यान दें, हमे सुखी बनायें। अपनी रक्षा के लिये हम आपकी स्तुति करते है॥१९॥
२८८.त्वं विश्वस्य मेधिर दिवश्च ग्मश्च राजसि। स यामनि प्रति श्रुधि॥२०॥
हे मेधावी वरुणदेव ! आप द्युलोक, भूलोक और सारे विश्व पर आधिपत्य रखते है, आप हमारे आवाहन को स्वीकार कर ’ हम रक्षा करेंगे’ ऐसा प्रत्युत्तर दे॥२०॥
२८९.उदुत्तमं मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यमं चृत। अवाधमानि जीवसे॥२१॥
हे वरुणदेव! हमारे उत्तम(उपर के) पाश को खोल दे, हमारे मध्यम पाश काट दे और हमारे नीचे के पाश को हटाकर हमे उत्तम जीवन प्रदान करें॥२१॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २४

[ऋषि- शुन:शेप आजीगर्ति(कृत्रिम देवरात वैश्वामित्र)। देवता १-प्रजापति,२अग्नि,३-४ सविता, ५ सविता अथवा भग,६-१५ वरुण।छन्द १,२,६-१५-त्रिष्टुप, ३-५ गायत्री।]

२५४.कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम। को नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च॥१॥
हम अमरदेवो मे से किस देव के सुन्दर नाम का स्मरण करें ? कौन से देव हमे महती अदिति पृथ्वी को प्राप्त करायेंगे? जिअससे हम अपने पिता और माता को देख सकेंगे॥१॥
२५५.अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम। स नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च॥२॥
हम अमरदेवो मे प्रथम अग्निदेव के सुन्दर नाम का मनन करें। वह हमे महती अदिति को प्राप्त करायेंगे, जिससे हम अपने माता-पिता को देख सकेंगे॥२॥
२५६.अभि त्वा देव सवितरीशानं वार्याणाम्। सदावन्भागमीमहे॥३॥
हे सर्वदा रक्षणशील सवितादेव! आप वरण करने वाले योग्य धनो के स्वामी है, अतः हम आपसे ऐश्वर्यो के उत्तम भाग को मांगते है॥३॥
२५७.यश्चिद्धि त इत्था भगः शशमानः पुरा निदः। अद्वेषो हस्तयोर्दधे॥४॥
हे सवितादेव! आप तेजस्विता युक्त निन्दा रहित,द्वेष रहित,वरण करने योग्य धनो को दोनो हाथो से धारण करने वाले हैं॥४॥
२५८.भगभक्तस्य ते वयमुदशेम तवावसा। मूर्धानं राय आरभे॥५॥
हे सवितादेव! हम आपके ऐश्वर्य की छाया मे रहकर संरक्षण को प्राप्त करें। उन्नति करते हुये सफलताओ के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचकर भी अपने कर्तव्यो को पूरा करते रहे॥५॥
२५९.नहि ते क्षत्रं न सहो न मन्युं वयश्चनामी पतयन्त आपुः। नेमा आपो अनिमिषं चरन्तीर्न ये वातस्य प्रमिनन्त्यभ्वम्॥६॥
हे वरुणदेव! ये उड़ने वाले पक्षी आपके पराक्रम ,आपके बल और सुनिति युक्त क्रोध(मन्युं) को नही जान पाते। सतत गमनशील जलप्रवाह आपकी गति को नही जान सकते और प्रबल वायु के वेग भी आपको नही रोक सकते॥६॥
२६०.अबुध्ने राजा वरुणो वनस्योर्ध्वं स्तूपं ददते पूतदक्षः। नीचीना स्थुरुपरि बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः केतवः स्युः॥७॥
पवित्र पराक्रम युक्त राजा वरुण(सबको आच्छादित करने वाले) दिव्त तेज पुञ्ज सूर्यदेव को आधारहित आकाश मे धारण करते है। इस तेज पुञ्ज सूर्यदेव का मुख नीचे की ओर और मूल ऊपर की ओर है। इसले मध्य मे दिव्य किरणे विस्तीर्ण होती चलती हैं॥७॥
२६१.उरुं हि राजा वरुणश्चकार सूर्याय पन्थामन्वेतवा उ। अपदे पादा प्रतिधातवेऽकरुतापवक्ता हृदयाविधश्चित्॥८॥
राजा वरुणदेव ने सूर्य गमन के लिये विस्तृतमार्ग निर्धारित किया है, जहाँ पैर भी स्थापित न हो, ऐसे अंतरिक्ष स्थान पर भी चलने के लिये मार्ग विनिर्मित करदेते है। और वे हृदय की पीड़ा का निवारण करने वाले हैं॥८॥
२६२.शतं ते राजन्भिषजः सहस्रमुर्वी गभीरा सुमतिष्टे अस्तु। बाधस्व दूरे निरृतिं पराचैः कृतं चिदेनः प्र मुमुग्ध्यस्मत्॥९॥
हे वरुणदेव! आपके पास असंख्य उपाय है। आपकी उत्तम बुद्धि अत्यन्त व्यापक और गम्भीर है। आप हमारी पाप वृत्तियो को हमसे दूर करें। किये हुए पापो से हमे विमुक्त करें॥९॥
२६३.अमी य ऋक्षा निहितास उच्चा नक्तं ददृश्रे कुह चिद्दिवेयुः।अदब्धानि वरुणस्य व्रतानि विचाकशच्चन्द्रमा नक्तमेति॥१०॥
ये नक्षत्रगण आकाश मे रात्रि के समय दिखते हौ, परन्तु दिन मे कहाँ विलीन होते हैं? विशेष प्रकाशित चन्द्रमा रात मे आता है। वरुण राजा के नियम कभी नष्ट नही होते है॥१०॥
२६४.तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः। अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा न आयुः प्र मोषीः॥११॥
हे वरुणदेव! मन्त्ररूप वाणी से आपकी स्तुति करते हुये आपसे याचना करते है। यजमान हविस्यात्र अर्पित करते हुये कहता है - हे बहुप्रशंसित देव! हमारी उपेक्षा न करें, हमारी स्तुतियो को जाने। हमारी आयु को क्षीण न करें॥११॥
२६५.तदिन्नक्तं तद्दिवा मह्यमाहुस्तदयं केतो हृद आ वि चष्टे। शुनःशेपो यमह्वद्गृभीतः सो अस्मान्राजा वरुणो मुमोक्तु॥१२॥
रातदिन मे (अनवरत) ज्ञानियो के कहे अनुसार यही ज्ञान(चिन्तन) हमारे हृदय मे होते रहता है कि बन्धन मे पड़े शुनःशेप ने जिस वरुणदेव को बुलाकर मुक्ति को प्राप्त किया, वही वरुणदेव हमे भी बन्धनो से मुक्त करें॥१२॥
२६६.शुनःशेपो ह्यह्वद्गृभीतस्त्रिष्वादित्यं द्रुपदेषु बद्धः। अवैनं राजा वरुणः ससृज्याद्विद्वाँ अदब्धो वि मुमोक्तु पाशान्॥१३॥
तीन स्तम्भो मे बधेँ हुये शुनःशेप ने अदिति पुत्र वरुणदेव का आवाहन करके उनसे निवेदन किया कि वे ज्ञानी और अटल वरुणदेव हमारे पाशो को काटकर हमे मुक्त करें॥१३॥
२६७.अव ते हेळो वरुण नमोभिरव यज्ञेभिरीमहे हविर्भिः। क्षयन्नस्मभ्यमसुर प्रचेता राजन्नेनांसि शिश्रथः कृतानि॥१४॥
हे वरुणदेव! आपके क्रोध को शान्त करने के लिये हम स्तुति रूप वचनो को सुनाते है। हविर्द्रव्यो के द्वारा यज्ञ मे सन्तुष्ट होकर हे प्रखर बुद्धि वाले राजन! आप हमारे यहाँ वास करते हुये हमे पापो के बन्धन से मुक्त करें॥१४॥
२६८.उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय। अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम॥१५॥

हे वरुणदेव! आप तीनो तापो रूपी बन्धनो से हमे मुक्त करे। आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक पाश हमसे दूर हों तथा मध्य के एवं नीचे के बन्धन अलग करें! हे सूर्यपुत्र! पापो से रहित होकर हम आपके कर्मफल सिद्धांत मे अनुशासित हो, दयनीय स्थिति मे हम न रहें॥१५॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २३

[ऋषि- मेधातिथि काण्व। देवता १-वायु,२-३ इन्द्रवायु,४-६ मित्रावरुण, ७-९ इन्द्र-मरुत्वान,१०-१२ विश्वेदेवा,१३-१५ पूषा,१६-२३ आपः देवता, २३-२४ अग्नि। छन्द १-१८-अग्नि, १९ पुर उष्णिक्, २१ प्रतिष्ठा तथा २२-२४ अनुष्टुप।]

२३०.तीव्राः सोमास आ गह्याशीर्वन्तः सुता इमे। वायो तान्प्रस्थितान्पिब॥१॥
हे वायुदेव! अभिषुत सोमरस तीखा होने से दुग्ध मिश्रित करके तैयार किया गया है, आप आएँ और उत्तर वेदी के पास लाये गये इस सोम रस का पान करें॥१॥
२३१.उभा देवा दिविस्पृशेन्द्रवायू हवामहे। अस्य सोमस्य पीतये॥२॥
जिनका यश दिव्यलोक तक विस्तृत है,ऐसे इन्द्र और वायुदेवो को हम सोमरस पीने के लिये आमंत्रित करते है॥२॥
२३२.इन्द्रवायू मनोजुवा विप्रा हवन्त ऊतये। सहस्राक्षा धियस्पती॥३॥
मन के तुल्य वेग वाले, सहस्त्र चक्षु वाले,बुद्धि के अधीश्वर इन्द्र एवं वायु देवो का ज्ञानीजन अपनी सुरक्षा के लिये आवाहन करते हैं॥३॥
२३३.मित्रं वयं हवामहे वरुणं सोमपीतये। जज्ञाना पूतदक्षसा॥४॥
सोमरस पीने के लिये यज्ञ स्थल पर प्रकट होने वाले परमपवित्र एवं बलशाली मित्र और वरुणदेवो का हम आवाहन करते है॥४॥
२३४.ऋतेन यावृतावृधावृतस्य ज्योतिषस्पती। ता मित्रावरुणा हुवे॥५॥
सत्यमार्ग पर चलनेवालो का उत्साह बढाने वाले, तेजस्वी मित्रावरुणो का हम आवाहन करते है॥५॥
२३५.वरुणः प्राविता भुवन्मित्रो विश्वाभिरूतिभिः। करतां नः सुराधसः॥६॥
वरुण एवं मित्र देवता अपने समस्त रक्षा साधनो से हम सबकी रक्षा करते है। वे हमे महान वैभव सम्पन्न करें॥६॥
२३६.मरुत्वन्तं हवामह इन्द्रमा सोमपीतये। सजूर्गणेन तृम्पतु॥७॥
मरुद्‍गणो के सहित इन्द्रदेव को सोमपान के निमित्त बुलाते है। वे मतुद्‍गणो के साथ आकर तृप्त हों॥७॥
२३७.इन्द्रज्येष्ठा मरुद्गणा देवासः पूषरातयः। विश्वे मम श्रुता हवम्॥८॥
दानी पूषादेव के समान इन्द्रदेव दान देने मे श्रेष्ठ है। वे सब मरुद्‍गणो के साथ हमारे आवाहन को सुने॥८॥
२३८.हत वृत्रं सुदानव इन्द्रेण सहसा युजा। मा नो दुःशंस ईशत॥९॥
हे उत्तम दानदाता मरुतो ! आप अपने उत्तम साथी और् बलवान इन्द्र के साथ दुष्टो का हनन करें। दुष्टता हमारा अतिक्रमण न कर सके॥९।
२३९.विश्वान्देवान्हवामहे मरुतः सोमपीतये। उग्रा हि पृश्निमातरः॥१०॥
सभी मरुद्‍गणो को हम सोमपान के निमित बुलाते है। वे सभी अनेक रंगो वाली पृथ्वी के पुत्र महान् वीर एवं पराक्रमी है॥१०॥
२४०.जयतामिव तन्यतुर्मरुतामेति धृष्णुया। यच्छुभं याथना नरः॥११॥
वेग से प्रवाहित होने वाले मरुतो का शब्द विजयवाद के सदृश गुन्जित होता है, उससे सभी मनुष्यो का मंगल होता है॥११॥
२४१.हस्काराद्विद्युतस्पर्यतो जाता अवन्तु नः। मरुतो मृळयन्तु नः॥१२॥
चमकने वाली विद्युतसे उप्पन्न मरुद्‍गण हमारी रक्षा करें और् प्रसन्नता प्रदान करें॥१२॥
२४२.आ पूषञ्चित्रबर्हिषमाघृणे धरुणं दिवः। आजा नष्टं यथा पशुम्॥१३॥
हे दिप्तीमान पूषादेव आप अद्भूत तेजो से युक्त एवं धारण शक्ति से सम्पन्न है। अत: सोम को द्युलोक से वैसे ही लायें जैसे खोये हुये पशु को ढुंढकर लाते है॥१३॥
२४३.पूषा राजानमाघृणिरपगूळ्हं गुहा हितम्। अविन्दच्चित्रबर्हिषम्॥१४॥
दीप्तिमान पूषादेव ने अंतरिक्ष गुहा मे छिपे हुये शुभ्र तेजो से युक्त सोमराजा को प्राप्त किया॥१४॥
२४४.उतो स मह्यमिन्दुभिः षड्युक्ताँ अनुसेषिधत्। गोभिर्यवं न चर्कृषत्॥१५॥
वे पूषादेव हमारे लिये याग के हेतुभूत सोमो के साथ वसंतादि षट्‍ऋतुओ को क्रमशः वैसे ही प्राप्त कराते है, जैसे यवो (अनाजो) के लिये कृषक बार-बार खेत जोतता है॥१५॥
२४५.अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो अध्वरीयताम्। पृञ्चतीर्मधुना पयः॥१६॥
यज्ञ की इच्छा करनेवालो के सहायक, मधुर रसरूप जलप्रवाह माताओ के सदृश पुष्टिप्रद है। वे दुग्ध को पुष्ट करते हुये यज्ञमार्ग से गमन करते है॥१६॥
[यज्ञ द्वारा पुष्टि प्रदायक रस प्रवाहो के विस्तार का उल्लेख है।]
२४६.अमूर्या उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह। ता नो हिन्वन्त्वध्वरम्॥१७॥
जो ये जल सूर्य मे (सूर्य किरणो मे) समाहित है, अथवा जिन जलो के साथ सूर्य का सान्निध्य है, ऐसे वे पवित्र जल हमारे यज्ञ को उपलब्ध हों॥१७॥
[उक्त दो मंत्रो मे अंतरिक्ष किरणो द्वारा कृषि का वर्णन है। खेत मे अन्न दिखता नही, किन्तु उससे उत्पन्न होता है। पूषा-पोषण देने वाले देवो (यज्ञ एवं सूर्प आदि) द्वारा सोम (सूक्षम पोषक तत्व) बोया और उपजाया जाता है।]
२४७.अपो देवीरुप ह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः। सिन्धुभ्यः कर्त्वं हविः॥१८॥
हमारी गायें जिस जल का सेवन करती है, उन जलो का हम स्तुतिगान करते है। (अंतरिक्ष एवं भूमी पर) प्रवाहमान उन जलो के निमित्त हम हवि अर्पण करते है॥१८॥
२४८.अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये। देवा भवत वाजिनः॥१९॥
जल मे अमृतोपम गुण है। जल मे औषधीय गुण है। हे देवो! ऐसे जल की प्रशंसा से आप उत्साह प्राप्त करें॥१९॥
२४९.अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा। अग्निं च विश्वशम्भुवमापश्च विश्वभेषजीः॥२०॥
मुझ (मंत्र द्रष्टा मुनि) से सोमदेव ने कहा है कि जल समूह मे सभी औषधियाँ समाहित हैं। जल मे ही सर्व सुख प्रदायक अग्नितत्व समाहित है। सभी औषधियाँ जलोसे ही प्राप्त होती हैं॥२०॥
२५०.आपः पृणीत भेषजं वरूथं तन्वे मम। ज्योक्च सूर्यं दृशे॥२१॥
हे जल समूह! जीवन रक्षक औषधियो को हमारे शरीर मे स्थित करें, जिससे हम निरोग होकर चिरकाल तक सूर्यदेव का दर्शन करते रहें॥२१॥
२५१.इदमापः प्र वहत यत्किं च दुरितं मयि। यद्वाहमभिदुद्रोह यद्वा शेप उतानृतम्॥२२॥
हे जलदेवो! हम याजको ने अज्ञानवश जो दुष्कृत्य किये हो, जानबुझकर किसी से द्रोह किया हो, सत्पुरुषो पर आक्रोश किया हो या असत्य आचरण किया हो तथा इस प्रकार के हमारे हो भी दोष हो, उन सबको बहाकर दूर करें॥२२॥
२५२.आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगस्महि। पयस्वानग्न आ गहि तं मा सं सृज वर्चसा॥२३॥
आज हमने जल मे प्रविष्ट होकर अवभृथ स्नान किया है, इस प्रकार जल मे प्रवेश करके हम रस से आप्लावित हुये है! हे पयस्वान ! हे अग्निदेव! आप हमे वर्चस्वी बनाएँ, हम आपका स्वागत करते है॥२३॥
२५३.सं माग्ने वर्चसा सृज सं प्रजया समायुषा। विद्युर्मे अस्य देवा इन्द्रो विद्यात्सह ऋषिभिः॥२४॥
हे अग्निदेव! आप हमे तेजस्विता प्रदान करें। हमे प्रजा और दीर्घ आयु से युक्त करें। देवगण हमारे अनुष्ठान को जाने और् इन्द्रदेव ऋषियो के साथ इसे जाने॥२४॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २२

[ऋषि-मेधातिथि काण्व। देवता- १-४ अश्‍विनी कुमार,५-८ सविता,९-१० अग्नि,११ देवियाँ, १२ इन्द्राणी, वरुणानी,अग्यानी,१३-१४ द्यावा-पृथ्वी,१६ विष्णु(देवगण) १७-२१ विष्णु। छन्द -गायत्री]
२०९.प्रातर्युजा वि बोधयाश्विनावेह गच्छताम् । अस्य सोमस्य पीतये॥१॥
हे अध्वर्युगण! प्रातःकाल चेतनता को प्राप्त होने वाले अश्‍विनीकुमारो को जगायें। वे हमारे इस यज्ञ मे सोमपान करने के निमित्त पधारें॥१॥
२१०.या सुरथा रथीतमोभा देवा दिविस्पृशा । अश्विना ता हवामहे ॥२॥
ये दोनो अश्‍विनीकुमार सुसज्जित रथो से युक्त महान रथी है। ये आकाश मे गमन करते है। इन दोनो का हम आवाहन करते है॥२॥
[यहाँ मंत्र शक्ति से चालित, आकाश मार्ग से चलने वाले यान (रथ) का उल्लेख किया गया है।]
२११.या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती । तया यज्ञं मिमिक्षतम्॥३॥
हे अश्‍विनीकुमारो। आपकी जो मधुर सत्यवचन युक्त कशा (चाबुक वाणी) है, उससे यज्ञ को सिंचित करने की कृपा करें॥३॥
[वाणी रूपी चाबुक से स्पष्ट होता है कि अश्‍विनीकुमारो के यान मंत्र चालित है। मधुर एवं सत्यवचनो से यज्ञ का सिंचन भी किया जाता है। कशा - चाबुक से यज्ञ के सिंचन का भाव अटपटा लगते हुये भी युक्ति संगत है।]
२१२.नहि वामस्ति दूरके यत्रा रथेन गच्छथः । अश्विना सोमिनो गृहम् ॥४॥
हे अश्‍विनीकुमारो। आप रथ पर आरूढ होकर जिस मार्ग से जाते है वहाँ सोमयाग करने वाले जातक का घर दूर नही है॥४॥
[पूर्वोक्त मंत्र मे वर्णित यान के तिव्र वेग का वर्णन है।]
२१३.हिरण्यपाणिमूतये सवितारमुप ह्वये । स चेत्ता देवता पदम् ॥५॥
यजमान को (प्रकाश-उर्जा आदि) देने वाले हिरण्यगर्भ(हाथ मे सुवर्ण धारण करने वाले या सुनहरी किरणो वाले) सवितादेव का हम अपनी रक्षा के लिये आवाहन करते है। वे ही यजमान के द्वारा प्राप्तव्य(गन्तव्य) स्थान को विज्ञापित करनेवाले हैं॥५॥
२१४.अपां नपातमवसे सवितारमुप स्तुहि । तस्य व्रतान्युश्मसि ॥६॥
हे ऋत्विज! आप हमारी रक्षा के लिये सविता देवता की स्तुति करे। हम उनके लिये सोमयागादि लर्म सम्पन्न करना चाहते है। वे सवितादेव जलो को सुखा कर पुनः सहस्त्रो गुणा बरसाने वाले है॥६॥
[सौर शक्ति से जल के शोधन,वर्षण एवं शोचन की प्रक्रिया का वर्णन इस ऋचा मे है।]
२१५.विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधसः । सवितारं नृचक्षसम् ॥७॥
समस्त प्राणियो के आश्रयभूत,विविध धनो के प्रदाता,मानवमात्र के प्रकाशक सूर्यदेव का हम आवाहन करते हैं॥७॥
२१६.सखाय आ नि षीदत सविता स्तोम्यो नु नः । दाता राधांसि शुम्भति॥८॥
हे मित्रो! हम सब बैठकर सवितादेव की स्तुति करें। धन-ऐश्वर्य के दाता सूर्यदेव अत्यन्त शोभायमान है॥८॥
२१७.अग्ने पत्नीरिहा वह देवानामुशतीरुप । त्वष्टारं सोमपीतये ॥९॥
हे अग्निदेव! यहाँ आने की अभिलाषा रखनेवाली देवो की पत्नियो को यहाँ ले आएँ और त्वष्टादेव को भी सोमपान के निमित्त बुलायेँ॥९॥
२१८. आ ग्ना अग्न इहावसे होत्रां यविष्ठ भारतीम् । वरूत्रीं धिषणां वह ॥१०॥
हे अग्निदेव! देवपत्नियो को हमारी सुरक्षा के निमित्त यहाँ ले आयेँ। आप हमारी रक्षा के लिये अग्निपत्नि होत्रा, आदित्यपत्नि भारती, वरणीय वाग्देवी धिवणा आदि देवियो को भी यहाँ ले आयें॥१०॥
२१९.अभि नो देवीरवसा महः शर्मणा नृपत्नीः । अच्छिन्नपत्राः सचन्ताम् ॥११॥
अनवरुद्ध मार्ग वाली देवपत्नियाँ मनुष्यो को ऐश्वर्य देने मे समर्थ है। वे महान सुखो एवं रक्षण सामर्थ्यो से युक्त होकर हमारी ओर अभिमुख हो॥११॥
२२०.इहेन्द्राणीमुप ह्वये वरुणानीं स्वस्तये । अग्नायीं सोमपीतये॥१२॥
अपने कल्याण के लिए सोमपान के लिए हम इन्द्राणी, वरुणानी, और अग्नायी का आवाहन करते है॥१२॥
२२१.मही द्यौः पृथिवी च न इमं यज्ञं मिमिक्षताम् । पिपृतां नो भरीमभिः ॥१३॥
अति विस्तारयुक्त पृथ्वी और द्युलोक हमारे इस यज्ञकर्म को अपने अपने अंशो द्वारा परिपूर्ण करें। वे भरण-पोषण करनेवाली सामग्रीयो(सुख-साधनो) से हम सभी को तृप्त करें॥१३॥
२२२.तयोरिद्‍घृतवत्पयो विप्रा रिहन्ति धीतिभिः । गन्धर्वस्य ध्रुवे पदे ॥१४॥
गंधर्वलोक के ध्रुवस्थान मे आकाश और पृथ्वी के मध्य मे अवस्थित घृत के समान(सार रूप) जलो (पोषक प्रवाहो) को ज्ञानी जन अपने विवेकयुक्त कर्मो (प्रयासो) द्वारा प्राप्त करते है॥१४॥
२२३.स्योना पृथिवि भवानृक्षरा निवेशनी । यच्छा नः शर्म सप्रथः॥१५॥
हे पृथ्वी देवी! आप सुख देने वाली, बाधा हरने वाली और उत्तमवास देने वाली है। आप हमे विपुल परिमाण मे सुख प्रदान करें॥१५॥
२२४.अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे । पृथिव्याः सप्त धामभिः ॥१६॥
जहाँ से (यज्ञ स्थल या पृथ्वी से) विष्णुदेव ने (पोषण परक) पराक्रम दिखाया, वहाँ (उस यज्ञीय क्रम से) पृथ्वी से सप्तधामो से देवतागण हमारी रक्षा करें॥१६॥
२२५.इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम् । समूळ्हमस्य पांसुरे ॥१७॥
यह सब विष्णुदेव का पराक्रम है,तीन प्रकार के (त्रिविध-त्रियामी) उनके चरण है। इसका मर्म धूलि भरे प्रदेश मे निहित है॥१७॥
[त्रिआयामी सृष्टि के पोषण का जो पराक्रम दिखाता है। उसका रहस्य अंतरिक्ष धूलि (सुक्ष्म कणो) के प्रवाह मे सन्निहित है। उसी प्रवाह से सभी प्रकार के पोषक पदार्थ बनते बदलते रहते है।]
२२६.त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः । अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥
विश्वरक्षक, अविनाशी, विष्णुदेव तीनो लोको मे यज्ञादि कर्मो को पोषित करते हुये तीन चरणोसे जग मे व्याप्त है अर्थात तीन शक्ति धाराओ (सृजन, पोषण और परिवर्तन) द्वारा विश्व का संचालन करते है॥१८॥
२२७.विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे । इन्द्रस्य युज्यः सखा॥१९॥
हे याजको! सर्वव्यापक भगवान विष्णु के सृष्टि संचालन संबंधी कार्यो(सृजन, पोषण और परिवर्तन) ध्यान से देखो। इसमे अनेकोनेक व्रतो(नियमो,अनुशासनो) का दर्शन किया जा सकता है। इन्द्र(आत्मा) के योग्य मित्र उस परम सत्ता के अनुकूल बनकर रहे।(ईश्वरीय अनुशासनो का पालन करें)॥१९॥
२२८.तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ॥२०॥
जिस प्रकार सामान्य नेत्रो से आकाश मे स्थित सूर्यदेव को सहजता से देखा जाता है, उसी प्रकार विद्वज्जन अपने ज्ञान चक्षुओ से विष्णुदेव(देवत्व के परमपद) के श्रेष्ठ स्थान को देखते हैं॥२०॥
[ईश्वर दृष्टिमय भले ही न हो, अनुभूतिजन्य अवश्य है।]
२२९.तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते । विष्णोर्यत्परमं पदम्॥२१॥
जागरूक विद्वान स्तोतागण विष्णूदेव के उस परमपद को प्रकाशित करते हैं,अर्थात जन सामान्य के लिये प्रकट करते है॥ २१॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २१

[ऋषि-मेधातिथि काण्व। देवता- इन्द्राग्नि। छन्द -गायत्री]

२०३.इहेन्द्राग्नी उप ह्वये तयोरित्स्तोममुश्मसि । ता सोमं ओमापातामा ॥१॥


इस यज्ञ स्थल पर हम इन्द्र एवं अग्निदेवो का आवाहन करते हैं, सोमपान के उन अभिलाषियो की स्तुति करते हुए सोमरस पीने का निवेदन करते हैं॥१॥

२०४.ता यज्ञेषु प्र शंसतेन्द्राग्नी शुम्भता नरः । ता गायत्रेषु गायत ॥२॥


हे ऋत्विजो! आप यज्ञानुष्ठान करते हुये इन्द्र एवं अग्निदेवो की शस्त्रो (स्तोत्रो) से स्तुति करे, विविध अंलकारो से उन्हे विभूषित करे तथा गायत्री छन्दवाले सामगान (गायत्र साम) करते हुये उन्हे प्रसन्न करें॥२॥

२०५.ता मित्रस्य प्रशस्तय इन्द्राग्नी ता हवामहे । सोमपा सोमपीतये ॥३॥


सोमपान की इच्छा करनेवाले मित्रता एवं प्रशंसा के योग्य उन इन्द्र एवं अग्निदेवो को हम सोमरस पीने के लिये बुलाते हैं॥३॥

२०६.उग्रा सन्ता हवामह उपेदं सवनं सुतम् । इन्द्राग्नी एह गच्छताम् ॥४॥

अति उग्र देवगण एवं अग्निदेवो को सोम के अभिषव स्थान(यज्ञस्थल) पर आमन्त्रित करते हैं, वे यहाँ पधारें॥४॥Justify Full

२०७.ता महान्ता सदस्पती इन्द्राग्नी रक्ष उब्जतम् । अप्रजाः सन्त्वत्रिणः॥५॥


देवो मे महान वे इन्द्र अग्निदेव सत्पुरुषो के स्वामी(रक्षक) हैं। वे राक्षसो को वशीभूत कर सरल स्वभाव वाला बनाएँ और मनुष्य भक्षक राक्षसो को मित्र-बांधवो से रहित करके निर्बल बनाएँ॥५॥

२०८.तेन सत्येन जागृतमधि प्रचेतुने पदे । इन्द्राग्नी शर्म यच्छतम् ॥६॥


हे इन्द्राग्ने! सत्य और चैतन्य रूप यज्ञस्थान पर आप संरक्षक के रूप मे जागते रहें और हमे सुख प्रदान करें॥६॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २०

[ऋषि-मेधातिथि काण्व। देवता- ऋभुगण। छन्द -गायत्री]

१९५.अयं देवाय जन्मने स्तोमो विप्रेभिरासया । अकारि रत्नधातमः॥१॥

ऋभुदेवो के निमित्त ज्ञानियो ने अपने मुख से इन रमणीय स्तोत्रो की रचना की तथा उनका पाठ किया॥१॥
१९६.य इन्द्राय वचोयुजा ततक्षुर्मनसा हरी । शमीभिर्यज्ञमाशत ॥२॥

जिन ऋभुदेवो ने अतिकुशलतापूर्वक इन्द्रदेव के लिये वचन मात्र से नियोजित होकर चलनेवाले अश्‍वो की रचना की, ये शमी आदि यज्ञ (यज्ञ पात्र अथवा पाप शमन करने वाले देवों) के साथ यज्ञ मे सुशोभित होते हैं॥२॥
[चमस एक प्रकार के पात्र का नाम है, जिसे भी देव भाव से सम्बोधित् किया गया है।]
१९७.तक्षन्नासत्याभ्यां परिज्मानं सुखं रथम् । तक्षन्धेनुं सबर्दुघाम्॥३॥

जिन ऋभुदेवो ने अश्‍विनीकुमारो के लिये अति सुखप्रद सर्वत्र गमनशील रथ का निर्माण किया और गौओ को उत्तम दूध देने वाली बनाया॥३॥
१९८. युवाना पितरा पुनः सत्यमन्त्रा ऋजूयवः । ऋभवो विष्ट्यक्रत ॥४॥

अमोघ मन्त्र सामर्थ्य से युक्त, सर्वत्र व्याप्त रहनेवाले ऋभुदेवो ने मातापिता मे स्नेहभाव संचरित कर उन्हे पुनः जवान बनाया॥४॥
[यहाँ जरावस्था दूर करने की मन्त्र विद्या का संकेत है।]
१९९.सं वो मदासो अग्मतेन्द्रेण च मरुत्वता । आदित्येभिश्च राजभिः॥५॥

हे ऋभुदेवो! यह हर्षप्रद सोमरस इन्द्रदेव, मरुतो और दीप्तिमान् आदित्यो के साथ आपको अर्पित किया जाता है॥५॥
२००. उत त्यं चमसं नवं त्वष्टुर्देवस्य निष्कृतम् । अकर्त चतुरः पुनः ॥६॥

त्वष्टादेव के द्वारा एक ही चमस तैयार किया गया था, ऋभुदेवो ने उसे चार प्रकार का बनाकर प्रयुक्त किया॥६॥
२०१.ते नो रत्नानि धत्तन त्रिरा साप्तानि सुन्वते । एकमेकं सुशस्तिभिः ॥७॥

वे उत्तम स्तुतियो से प्रशंसित होने वाले ऋभुदेव! सोमयाग करने वाले प्रत्येक याजक को तीनो कोटि के सप्तरत्नो अर्थात इक्कीस प्रकार के रत्नो (विशिष्ट कर्मो) को प्रदान करें। (यज्ञ के तीन विभाग है - हविर्यज्ञ, पाकयज्ञ एवं सोमयज्ञ। तीनो के सात-सात प्रकार है। इस प्रकार यज्ञ के इक्कीस प्रकार कहे गये हैं।)।७॥
२०२.अधारयन्त वह्नयोऽभजन्त सुकृत्यया । भागं देवेषु यज्ञियम् ॥८॥

तेजस्वी ऋभुदेवो ने अपने उत्तम कर्मो से देवो के स्थान पर अधिष्ठित होकर यज्ञ के भाग को धारण कर् उसका सेवन किया॥८॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १९

[ऋषि-मेधातिथि काण्व। देवता- अग्नि और मरुद्‍गण। छन्द -गायत्री]
१८६.प्रति त्यं चारुमध्वरं गोपीथाय प्र हूयसे । मरुद्भिरग्न आ गहि॥१॥
हे अग्निदेव! श्रेष्ठ यज्ञो की गरिमा के संरक्षण के लिये हम आपका आवाहन करते हैं, आपको मरुतो के साथ आमंत्रित करते हौ, अतः देवताओ के इस यज्ञ मे आप पधारे॥१॥
१८७. नहि देवो न मर्त्यो महस्तव क्रतुं परः । मरुद्भिरग्न आ गहि॥२॥
हे अग्निदेव! ऐसा न कोइ देव है, न ही कोई मनुष्य, जो आपके द्वारा सम्पादित महान् कर्म को कर सके। ऐसे समर्थ आप मरुद्‍गणो से साथ आप इस यज्ञ मे पधारे॥२॥
१८८.ये महो रजसो विदुर्विश्वे देवासो अद्रुहः । मरुद्भिरग्न आ गहि॥३॥

जो मरुद्‍गण पृथ्वी पर श्रेष्ठ जल वृष्टि की विधि जानते है या क्षमता से सम्पन्न है। हे अग्निदेव आप उन द्रोह रहित मरुद्‍गणो के साथ इस यज्ञ मे पधारें॥३॥
१८९. य उग्रा अर्कमानृचुरनाधृष्टास ओजसा । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥४॥

हे अग्निदेव! जो अतिबलशाली, अजेय और अत्यन्त प्रचण्ड सूर्य के सदृश प्रकाशक है। आप उन मरुद्‍गणो के साथ यहाँ पधारें॥४॥
१९०.ये शुभ्रा घोरवर्पसः सुक्षत्रासो रिशादसः । मरुद्भिरग्न आ गहि॥५॥

जो शुभ्र तेजो से युक्त तीक्ष्ण,वेधक रूप वाले, श्रेष्ठ बल-सम्पन्न और शत्रु का संहार करने वाले है। हे अग्निदेव! आप उन मरुतो के साथ यहाँ पधारें॥५॥
१९१.ये नाकस्याधि रोचने दिवि देवास आसते । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥६॥

हे अग्निदेव! ये जो मरुद्‍गण सबके उपर अधिष्ठित,प्रकाशक,द्युलोक के निवासी है, आप उन मरुदगणो के साथ पधारें॥७॥
१९२.य ईङ्खयन्ति पर्वतान्तिरः समुद्रमर्णवम् । मरुद्भिरग्न आ गहि॥७॥

हे अग्निदेव! जो पर्वत सदृश विशाल मेघो को एक स्थान से दूसरे सुदूरस्थ दूसरे स्थान पर ले जाते हैं तथा जो शान्त समुद्रो मे भी ज्वार पैदा कर देते है(हलचल पैदा कर देते है), ऐसे उन मरुद्‍गणो ले साथ आप इस यज्ञ मे पधारे॥७॥
१९३. आ ये तन्वन्ति रश्मिभिस्तिरः समुद्रमोजसा । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥८॥

हे अग्निदेव! जो सूर्य की रश्मियो के साथ सर्व व्याप्त होकर समुद्र को अपने ओज से प्रभावित करते हैं उन मरुतो के साथ आप यहाँ पधारें॥८॥
१९४. अभि त्वा पूर्वपीतये सृजामि सोम्यं मधु । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥९॥
हे अग्निदेव! सर्वप्रथम आपके सेवनार्थ यह मधुर सोमरस हम अर्पित करते हैं, अतः आप मरउतो के साथ यहाँ पधारें॥९॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १८

[ऋषि-मेधातिथी काण्व। देवता- १-३ ब्रह्मणस्पति, ४ इन्द्र,ब्रह्मणस्पति,सोम ५-ब्रह्मणस्पति,दक्षिणा, ६-८ सदसस्पति,९,नराशंस। छन्द -गायत्री]

सोमानं स्वरणं कृणुहि ब्रह्मणस्पते । कक्षीवन्तं य औशिजः ॥१॥


हे सम्पूर्ण ज्ञान के अधिपति ब्रह्मणस्पति देव! सोम का सेवन करने वाले यजमान को आप उशिज् के पुत्र कक्षीवान की तरह श्रेष्ठ प्रकाश से युक्त करें॥१॥

यो रेवान्यो अमीवहा वसुवित्पुष्टिवर्धनः । स नः सिषक्तु यस्तुरः ॥२॥


ऐश्वर्यवान, रोगो का नाश करने वाले,धन प्रदाता और् पुष्टिवर्धक तथा जो शीघ्रफलदायक है, वे ब्रह्मणस्पति देव हम पर कृपा करें॥२॥

मा नः शंसो अररुषो धूर्तिः प्रणङ्मर्त्यस्य । रक्षा णो ब्रह्मणस्पते ॥३॥


हे ब्रह्मणस्पति देव! यज्ञ न करनेवाले तथा अनिष्ट चिन्तन करनेवाले दुष्ट शत्रु का हिंसक, दुष्ट प्रभाव हम पर न पड़े। आप हमारी रक्षा करें॥३॥

स घा वीरो न रिष्यति यमिन्द्रो ब्रह्मणस्पतिः । सोमो हिनोति मर्त्यम् ॥४॥

जिस मनुष्य को इन्द्रदेव,ब्रह्मणस्पतिदेव और सोमदेव प्रेरित करते है, वह वीर कभी नष्ट नही होता॥४॥
[इन्द्र से संगठन की, ब्रह्मणस्पतिदेव से श्रेष्ठ मार्गदर्शन की एव सोम से पोषण की प्राप्ति होती है। इनसे युक्त मनुष्य क्षीण नही होता। ये तीनो देव यज्ञ मे एकत्रित होते हैं। यज्ञ से प्रेरित मनुष्य दुःखी नही होता वरन् देवत्व प्राप्त करता है।

त्वं तं ब्रह्मणस्पते सोम इन्द्रश्च मर्त्यम् । दक्षिणा पात्वंहसः॥५॥


हे ब्रह्मणस्पतिदेव। आप सोमदेव, इन्द्रदेव और दक्षिणादेवी के साथ मिलकर् यज्ञादि अनुष्ठान करने वाले मनुष्य़ की पापो से रक्षा करें॥५॥

सदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम् । सनिं मेधामयासिषम् ॥६॥


इन्द्रदेव के प्रिय मित्र, अभीष्ट पदार्थो को देने मे समर्थ, लोको का मर्म समझने मे सक्षम सदसस्पतिदेव (सत्प्रवृत्तियो के स्वामी) से हम अद्‍भूत मेधा प्राप्त करना चाहते है॥६॥

यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन । स धीनां योगमिन्वति ॥७॥

जिनकी कृपा के बिना ज्ञानी का भी यज्ञ पूर्ण नही होता, वे सदसस्पतिदेव हमारी बुद्धि को उत्तम प्रेरणाओ से युक्त करते है॥७॥
[सदाशयता जिनमे नही, ऐसे विद्वानो द्वारा यज्ञीय प्रयोजनो की पूर्ति नही होती।]

आदृध्नोति हविष्कृतिं प्राञ्चं कृणोत्यध्वरम् । होत्रा देवेषु गच्छति॥८॥


वे सदसस्पतिदेव हविष्यान्न तैयार करने वाले साधको तथा यज्ञ को प्रवृद्ध करते है और वे ही हमारी स्तुतियों को देवो तक पहुंचाते हौ॥८॥

नराशंसं सुधृष्टममपश्यं सप्रथस्तमम् । दिवो न सद्ममखसम् ॥९॥


द्युलोक से सदृश अतिदीप्तिमान्, तेजवान,यशस्वी और् मनुष्यो द्वारा प्रशंसित वे सदसस्पतिदेव को हमने देखा है॥९॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १७

[ऋषि-मेधातिथि काण्व। देवता-इन्द्रावरुण। छन्द-गायत्री।]

१६८.इन्द्रावरुणयोरहं सम्राजोरव आ वृणे । ता नो मृळात ईदृशे ॥१॥

हम इन्द्र और वरुण दोनो प्रतापी देवो से अपनी सुरक्षा की कामना करते हैं। वे दोनो हम पर इस प्रकार अनुकम्पा करें, जिससे कि हम सुखी रहें॥१॥
१६९.गन्तारा हि स्थोऽवसे हवं विप्रस्य मावतः । धर्तारा चर्षणीनाम् ॥२॥

हे इन्द्रदेव और वरुणदेवो! आप दोनो मनुष्यो के सम्राट, धारक एवं पोषक हैं। हम जैसे ब्राह्मणो के आवाहन पर सुरक्षा ले लिये आप निश्चय ही आने को उद्यत रहते हैं॥२॥
१७०.अनुकामं तर्पयेथामिन्द्रावरुण राय आ । ता वां नेदिष्ठमीमहे॥३॥
हे इन्द्रदेव और वरुणदेवो! हमारी कामनाओ के अनुरूप धन देकर हमें संतुष्ट करें। आप दोनो के समीप पहुचँकर हम प्रार्थना करते हैं॥३॥
१७१.युवाकु हि शचीनां युवाकु सुमतीनाम् । भूयाम वाजदाव्नाम् ॥४॥
हमारे कर्म संगठित हो, हमारी सद्‍बुद्धीयाँ संगठित हो, हम अग्रगण्य होकर दान करने वाले बनें॥४॥
१७२.इन्द्रः सहस्रदाव्नां वरुणः शंस्यानाम् । क्रतुर्भवत्युक्थ्यः॥५॥
इन्द्रदेव सहस्त्रो दाताओ मे सर्वश्रेष्ठ है और् वरुणदेव सहस्त्रो प्रशंसनीय देवो मे सर्वश्रेष्ठ हैं॥५॥
१७३.तयोरिदवसा वयं सनेम नि च धीमहि । स्यादुत प्ररेचनम्॥६॥
आपके द्वारा सुरक्षित धन को प्राप्त कर हम उसका श्रेष्ठतम उपयोग करें। वह धन हमे विपुल मात्रा मे प्राप्त हो॥‍६॥
१७४.इन्द्रावरुण वामहं हुवे चित्राय राधसे । अस्मान्सु जिग्युषस्कृतम्॥७॥

हे इन्द्रावरुण देवो! विविध प्रकार के धन की कामना से हम आपका आवाहन करते है। आप हमे उत्तम विजय प्राप्त कराएँ॥७॥
१७५.इन्द्रावरुण नू नु वां सिषासन्तीषु धीष्वा । अस्मभ्यं शर्म यच्छतम्॥८॥
हे इन्द्रावरुण देवो! हमारी बुद्धियाँ सम्यक् रूप से आपकी सेवा करने की इच्छा करती है, अतः हमे शीघ्र ही निश्‍चयपूर्वक सुख प्रदान करें॥८॥
१७६.प्र वामश्नोतु सुष्टुतिरिन्द्रावरुण यां हुवे । यामृधाथे सधस्तुतिम्॥९॥

हे इन्द्रावरुण देवो! जिन उत्तम स्तुतियों के लिये हम आप दोनो का आवाहन करते हैं एवं जिन स्तुतियो को साथ साथ प्राप्त करके आप दोनो पुष्ट होते हैं, वे स्तुतियाँ आपको प्राप्त हों॥९॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १६

[ऋषि- मेधातिथि काण्व। देवता-इन्द्र।छन्द-गायत्री]
१५९.आ त्वा वहन्तु हरयो वृषणं सोमपीतये ।
इन्द्र त्वा सूरचक्षसः ॥१॥
हे बलवान इन्द्रदेव! आपके तेजस्वी घोड़े सोमरस पीने के लिये आपको यज्ञस्थल पर लाएँ तथा सूर्य के समान प्रकाशयुक्त ऋत्विज् मन्त्रो द्वारा आपकी स्तुति करें॥१॥
१६०.इमा धाना घृतस्नुवो हरी इहोप वक्षतः ।
इन्द्रं सुखतमे रथे ॥२॥
अत्यन्त सुखकारी रथ मे नियोजित इन्द्रदेव के दोनो हरि (घोड़े) उन्हे (इन्द्रदेव को) घृत से स्निग्ध हवि रूप धाना(भुने हुये जौ) ग्रहण करने के लिये यहाँ ले आएँ॥२॥
१६१.इन्द्रं प्रातर्हवामह इन्द्रं प्रयत्यध्वरे ।
इन्द्रं सोमस्य पीतये ॥३॥
हम प्रातःकाल यज्ञ प्रारम्भ करते समय मध्याह्नकालीन सोमयाग प्रारम्भ होने पर तथा सांयकाल यज्ञ की समाप्ति पर भी सोमरस पीने के निमित्त इन्द्रदेव का आवाहन करते है॥३॥
१६२.उप नः सुतमा गहि हरिभिरिन्द्र केशिभिः ।
सुते हि त्वा हवामहे ॥४॥
हे इन्द्रदेव! आप अपने केसर युक्त अश्‍वो से सोम के अभिषव स्थान के पास् आएँ। सोम के अभिषुत होने पर हम आपका आवाहन करते है॥४॥
१६३.सेमं न स्तोममा गह्युपेदं सवनं सुतम् ।
गौरो न तृषितः पिब ॥५॥
हे इन्द्रदेव! हमारे स्तोत्रो का श्रवण कर आप यहाँ आएँ। प्यासे गौर मृग के सदृश व्याकुल मन से सोम के अभिषव स्थान के समीप आकर सोम का पान करें॥५॥
१६४.इमे सोमास इन्दवः सुतासो अधि बर्हिषि ।
ताँ इन्द्र सहसे पिब ॥६॥
हे इन्द्रदेव! यह दीप्तिमान् सोम निष्पादित होकर कुशाआसन पर सुशोभित है। शक्ति वर्धन के निमित्त आप इसका पान करें॥६॥
१६५.अयं ते स्तोमो अग्रियो हृदिस्पृगस्तु शंतमः ।
अथा सोमं सुतं पिब ॥७॥
हे इन्द्रदेव ! यह स्तोत्र श्रेष्ठ, मर्मस्पर्शी और अत्यन्य सुखकारी है। अब आप इसे सुनकर अभिषुत सोमरस का पान करें॥७॥
१६६.विश्वमित्सवनं सुतमिन्द्रो मदाय गच्छति ।
वृत्रहा सोमपीतये ॥८॥
सोम के सभी अभिषव स्थानो की ओर् इन्द्रदेव अवश्य जाते है। दुष्टो का हनन करने वाले इन्द्रदेव सोमरस पीकर अपना हर्ष बढाते है॥८॥
१६७.सेमं नः काममा पृण गोभिरश्वैः शतक्रतो ।
स्तवाम त्वा स्वाध्यः ॥९॥
हे शतकर्मा इन्द्रदेव! आप हमारी गौओ और अश्वो सम्बन्धी कामनाये पूर्ण करे। हम मनोयोग पूर्वक आपकी स्तुति करते है॥९॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १५

[ऋषि - मेधातिथि काण्व। देवता-(प्रतिदेवता ऋतु सहित) १-५ इन्द्रदेव, २ मरुद्‍गण,३ त्वष्टा, ४,१२ अग्नि,६ मित्रावरुण, ७,१० द्रविणोदा,११ अश्‍विनीकुमार। छन्द-गायत्री।]

१४७.इन्द्र सोमं पिब ऋतुना त्वा विशन्त्विन्दवः । मत्सरासस्तदोकसः॥१॥


हे इन्द्रदेव! ऋतुओ के अनुकूल सोमरस का पान करें, ये सोमरस आपके शरीर मे प्रविष्ट हो; क्योंकि आपकी तृप्ति का आश्रयभूत साधन यही सोम है ॥१॥

१४८.मरुतः पिबत ऋतुना पोत्राद्यज्ञं पुनीतन । यूयं हि ष्ठा सुदानवः॥२॥


दानियो मे श्रेष्ठ हे मरुतो! आप पोता नामक ऋत्विज् के पात्र से ऋतु के अनुकूल सोमरस का पान करें एवं हमारे इस यज्ञ को पवित्रता प्रदान करें ॥२॥

१४९.अभि यज्ञं गृणीहि नो ग्नावो नेष्टः पिब ऋतुना । त्वं हि रत्नधा असि॥३॥

हे त्वष्टादेव! आप पत्नि सहित हमारे यज्ञ की प्रशंसा करे, ऋतु के अनुकूल सोमरस का पान करें! आप निश्‍चय ही रत्नो को देनेवाले है॥३॥

१५०.अग्ने देवाँ इहा वह सादया योनिषु त्रिषु । परि भूष पिब ऋतुना॥४॥

हे अग्निदेव! आप देवो को यहाँ बुलाकर उन्हे यज्ञ के तीनो सवनो (प्रातः, माध्यन्दिन एवं सांय) मे आसीन करें। उन्हे विभूषित करके ऋतु के अनुकूल सोम का पान करें ॥४॥

१५१.ब्राह्मणादिन्द्र राधसः पिबा सोममृतूँरनु । तवेद्धि सख्यमस्तृतम्॥५॥

हे इन्द्रदेव! आप ब्रह्मा को जानने वाले साधक के पात्र से सोमरस का पान करे, क्योंकि उनके साथ आपकी अविच्छिन्न मित्रता है॥५॥

१५२.युवं दक्षं धृतव्रत मित्रावरुण दूळभम् । ऋतुना यज्ञमाशाथे ॥६॥


हे अटल व्रत वाले मित्रावरुण! आप दोनो ऋतु के अनुसार बल प्रदान करने वाले है। आप कठिनाई से सिद्ध होने वाले इस यज्ञ को सम्पन्न करते हैं॥६॥

१५३.द्रविणोदा द्रविणसो ग्रावहस्तासो अध्वरे । यज्ञेषु देवमीळते॥७॥


धन की कामना वाले याजक सोमरस तैयार करने के निमित्त हाथ मे पत्थर धारण् करके पवित्र यज्ञ मे धनप्रदायक अग्निदेव की स्तुति करते है॥७॥

१५४.द्रविणोदा ददातु नो वसूनि यानि शृण्विरे । देवेषु ता वनामहे॥८॥

हे धन प्रदायक अग्निदेव! हमे वे सभी धन प्रदान करे, जिनके विषय मे हमने श्रवण किया है। वे समस्त धन हम देवगणो को ही अर्पित करते हैं॥८॥
[देव शक्तियो से प्राप्त विभूतियो का उपयोग देवकार्यो के लिये ही करने का भाव व्यक्त किया गया है।]

१५५.द्रविणोदाः पिपीषति जुहोत प्र च तिष्ठत । नेष्ट्रादृतुभिरिष्यत॥९॥

हे धन प्रदायक अग्निदेव! नेष्टापात्र (नेष्टधिष्ण्या स्थान-यज्ञ कुण्ड) से ऋतु के अनुसार सोमरस पीने की इच्छा करते है। अतः हे याजक गण! आप वहाँ जाकर यज्ञ करें और पुन: अपने निवास स्थान के लिये प्रस्थान करें ॥९॥

१५६.यत्त्वा तुरीयमृतुभिर्द्रविणोदो यजामहे । अध स्मा नो ददिर्भव॥१०॥

हे धन प्रदायक अग्निदेव! ऋतुओ के अनुगुत होकर हम आपके निमित्त सोम के चौथे भाग को अर्पित करते है, इसलिये आप हमारे लिये धन प्रदान करने वाले हो ॥१०॥

१५७.अश्विना पिबतं मधु दीद्यग्नी शुचिव्रता । ऋतुना यज्ञवाहसा॥११॥


दिप्तिमान, शुद्ध कर्म करने वाले, ऋतु के अनुसार यज्ञवाहक हे अश्‍विनीकुमारो! आप इस मधुर सोमरस का पान करें॥११॥

१५८.गार्हपत्येन सन्त्य ऋतुना यज्ञनीरसि । देवान्देवयते यज ॥१२॥


हे इष्टप्रद अग्निदेव! आप गार्हपत्य के नियमन मे ऋतुओ के अनुगत यज्ञ का निर्वाह करने वाले हैं, अतः देवत्व प्राप्ति की कामना वाले याजको के निमित्त देवो का यजन करें॥१२॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १४

[ऋषि - मेधातिथि काण्व। देवता विश्वेदेवता। छन्द-गायत्री।]

१३५.ऐभिरग्ने दुवो गिरो विश्वेभिः सोमपीतये । देवेभिर्याहि यक्षि च ॥१॥
हे अग्निदेव! आप समस्त देवो के साथ इस यज्ञ मे सोम पीने के लिये आएँ एव हमारी परिचर्या उअर् स्तुतियो को ग्रहण करके यज्ञ कार्य सम्पन्न करें ॥१॥
१३६. आ त्वा कण्वा अहूषत गृणन्ति विप्र ते धियः । देवेभिरग्न आ गहि ॥२॥
हे मेधावी अग्निदेव! कण्व ऋषि आपको बुला रहे हैं, वे आपके कार्यो की प्रशंसा करते हौ। अतः आप देवो के साथ यहाँ पधारे ॥२॥
१३७.इन्द्रवायू बृहस्पतिं मित्राग्निं पूषणं भगम् । आदित्यान्मारुतं गणम् ॥३॥
यज्ञशाला मे हम इन्द्र, वायु, बृहस्पति,मित्र, अग्नि, पूषा,भग, आदित्यगण और मरुद्‍गण आदि देवो का आवाहन करते है॥३॥
१३८.प्र वो भ्रियन्त इन्दवो मत्सरा मादयिष्णवः । द्रप्सा मध्वश्चमूषदः ॥४॥
कूटपीसकर तैयार किया हुआ, आनन्द और हर्ष बढा़ने वाला यह मधुर सोमरस अग्निदेव के लिये चमसादि पात्रो मे भरा हुआ है॥४॥
१३९.ईळते त्वामवस्यवः कण्वासो वृक्तबर्हिषः । हविष्मन्तो अरंकृतः ॥५॥
कण्व ऋषि के वंशज अपनी सुरक्षा की कामना से, कुश आसन बिछाकर हविष्यान्न व अलंकारो से युक्त होकर अग्निदेव की स्तुति करते हैं॥५॥
१४०.घृतपृष्ठा मनोयुजो ये त्वा वहन्ति वह्नयः । आ देवान्सोमपीतये ॥६॥
अतिदीप्तिमान पृष्ठभाग वाले, मन के संकल्प मात्र से ही रथ मे नियोजित हो जाने वाले अश्वो(से नियोजित रथ) द्वारा आप सोमपान के निमित्त देवो को ले आएँ॥६॥
१४१.तान्यजत्राँ ऋतावृधोऽग्ने पत्नीवतस्कृधि । मध्वः सुजिह्व पायय ॥७॥
हे अग्निदेव! आप यज्ञ की समृद्धी एंव शोभा बढा़ने वाले पूजनीय इन्द्रादि देव को सपत्‍नीक इस यज्ञ मे बुलायें तथा उन्हे मधुर् सोमरस का पान करायें॥७॥
१४२.ये यजत्रा य ईड्यास्ते ते पिबन्तु जिह्वया । मधोरग्ने वषट्कृति ॥८॥
हे अग्निदेव! यजन किये जाने योग्य और् स्तुति किये जाने योग्य जो देवगण है, वे यज्ञ मे आपकी जिह्वा से आनन्दपूर्वक मधुर सोमरस का पान करें ॥८॥
१४३.आकीं सूर्यस्य रोचनाद्विश्वान्देवाँ उषर्बुधः । विप्रो होतेह वक्षति ॥९॥
हे मेधावी होतारूप अग्निदेव! आप प्रातः काल मे जागने वाले विश्वदेवि को सूर्य रश्मियो से युक्त करके हमारे पास लाते है॥९॥
१४४.विश्वेभिः सोम्यं मध्वग्न इन्द्रेण वायुना । पिबा मित्रस्य धामभिः ॥१०॥
हे अग्निदेव ! आप इन्द्र वायु मित्र आदि देवो के सम्पूर्ण तेजो के साथ मधुर् सोमरस का पान करें ॥१०॥
१४५.त्वं होता मनुर्हितोऽग्ने यज्ञेषु सीदसि । सेमं नो अध्वरं यज ॥११॥
हे मनुष्यो के हितैषी अग्निदेव! आप होता के रूप मे यज्ञ मे प्रतिष्ठ हों और हमारे इस् हिंसारहित यज्ञ हि सम्पन्न करें॥११॥
१४६.युक्ष्वा ह्यरुषी रथे हरितो देव रोहितः । ताभिर्देवाँ इहा वह ॥१२॥
हे अग्निदेव ! आप रोहित नामक रथ को ले जाने मे सक्षम, तेजगति वाली घोड़ीयो को रथ मे जोते एवं उनके द्वारा देवताओ को इस यज्ञ मे लाएँ॥१२॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १३

[ऋषि - मेधातिथि काण्व। देवता १-इध्म अथवा समिद्ध अग्नि, २-तनूनपात्, ३-नराशंस, ४-इळा, ५-बर्हि, ६-दिव्यद्वार्, ७-उषासानक्ता, ८ दिव्यहोता प्रचेतस, ९- तीन देवियाँ- सरस्वती, इळा , भारती, १०-त्वष्टा, ११ वनस्पति, १२ स्वाहाकृति । छन्द-गायत्री।]


१२३.सुसमिद्धो न आ वह देवाँ अग्ने हविष्मते । होतः पावक यक्षि च॥१॥
पवित्रकर्ता यज्ञ सम्पादन कर्ता हे अग्निदेव। आप अच्छी तरह प्रज्वलित होकर यजमान के कल्याण के लिये देवताओ का आवाहन करें और उनको लक्ष्य करके यज्ञ सम्पन्न करे अर्थात देवो के पोषण के लिये हविष्यान्न ग्रहण करें ॥१॥

१२४.मधुमन्तं तनूनपाद् यज्ञं देवेषु नः कवे । अद्या कृणुहि वीतये॥२॥
उर्ध्वगामी, मेधावी हे अग्निदेव ! हमारी रक्षा के लिये प्राणवर्धक-मधुर् हवियो को देवो के निमित्त प्राप्त करें और उन तक पहुँचायेँ ॥२॥

१२५.नराशंसमिह प्रियमस्मिन्यज्ञ उप ह्वये । मधुजिह्वं हविष्कृतम्॥३॥

हम इस यज्ञ मे देवताओ के प्रिय और् आह्लादक (मदुजिह्ल) अग्निदेव का आवाहन करते है। वह हमारी हवियो को देवताओं तक पहुँचाने वाले है, अस्तु , वे स्तुत्य हैं॥३॥

१२६.अग्ने सुखतमे रथे देवाँ ईळित आ वह । असि होता मनुर्हितः॥४॥
मानवमात्र के हितैषी हे अग्निदेव! आप अपने श्रेष्ठ-सुखदायी रथ से देवताओ को लेकर (यज्ञस्थल पर) पधारे। हम आपकी वन्दना करते है।

१२७.स्तृणीत बर्हिरानुषग्घृतपृष्ठं मनीषिणः । यत्रामृतस्य चक्षणम्॥५॥

हे मेधावी पुरुषो ! आप इस यज्ञ मे कुशा के आसनो को परस्पर मिलाकर इस तरह से बिछाये कि उस पर घृतपात्र को भली प्रकार से रखा जा सके, जिससे अमृततुल्य घृत का सम्यक् दर्शन हो सके॥५॥

१२८.वि श्रयन्तामृतावृधो द्वारो देवीरसश्चतः । अद्या नूनं च यष्टवे॥६॥

आज यज्ञ करने के लिये निश्चित रूप से ऋत(यज्ञीय वातावरण) की वृद्धि करने वाले अविनाशी दिव्यद्वार खुल जाएँ॥६॥

१२९.नक्तोषासा सुपेशसास्मिन्यज्ञ उप ह्वये । इदं नो बर्हिरासदे॥७॥

सुन्दर रूपवती रात्रि और उषा का हम इस यज्ञ मे आवाहन करते है। हमारी ओर से आसन रूप मे यह बर्हि (कुश) प्रस्तुत है॥७॥

१३०.ता सुजिह्वा उप ह्वये होतारा दैव्या कवी । यज्ञं नो यक्षतामिमम्॥८॥
उन उत्तम वचन वाले और मेधावी दोनो(अग्नियो) दिव्य होताओ को यज्ञ मे यजन के निमित्त हम बुलाते हैं॥८॥

१३१.इळा सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुवः । बर्हिः सीदन्त्वस्रिधः॥९॥
इळा सरस्वती और मही ये तीनो देवियाँ सुखकारी और क्षयरहित है! ये तीनो बिछे हुए दीप्तिमान कुश के आसनो पर विराजमान् हों॥९॥

१३२.इह त्वष्टारमग्रियं विश्वरूपमुप ह्वये । अस्माकमस्तु केवलः॥१०॥

प्रथम पूज्य, विविध रूप वाले त्वष्टादेव का इस यज्ञ मे आवाहन करते है, वे देव केवल हमारे ही हो॥१०॥

१३३.अव सृजा वनस्पते देव देवेभ्यो हविः । प्र दातुरस्तु चेतनम्॥११॥

हे वनस्पतिदेव! आप देवो के लिये नित्य हविष्यान्न प्रदान करने वाले दाता को प्राणरूप उत्साह प्रदान करें॥११॥

१३४.स्वाहा यज्ञं कृणोतनेन्द्राय यज्वनो गृहे । तत्र देवाँ उप ह्वये॥१२॥

(हे अध्वर्यु !) आप याजको के घर मे इन्द्रदेव की तुष्टी के लिये आहुतियाँ समर्पित करें। हम होता वहाँ देवो को आमन्त्रित करते है॥१२॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १२

[ऋषि-मेधातिथि काण्व । देवता -अग्नि, छटवी ऋचा के प्रथम पाद के देवता निर्मथ्य अग्नि और आहवनीय अग्नि। छन्द-गायत्री।]
१११.अग्निं दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् । अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम् ॥१॥
हे सर्वज्ञाता अग्निदेव! आप यज्ञ के विधाता है, समस्त देवशक्तियों को तुष्ट करने की सामर्थ्य रखते हैं। आप यज्ञ की विधि व्यवस्था के स्वामी है। ऐसे समर्थ आपको हम देव दूत रूप मे स्वीकार करते है॥१॥
११२.अग्निमग्निं हवीमभिः सदा हवन्त विश्पतिम् । हव्यवाहं पुरुप्रियम्॥२॥

प्रजापालक, देवो तक हवि पहुंचाने वाले, परमप्रिय, कुशल नेतृत्व प्रदान करने वाले हे अग्निदेव! हम याजक गण हवनीय मंत्रो से आपको सदा बुलाते है॥२॥
११३.अग्ने देवाँ इहा वह जज्ञानो वृक्तबर्हिषे । असि होता न ईड्यः॥३॥

हे स्तुत्य अग्निदेव ! आप अरणि मन्थन से उत्पन्न हुये है। आस्तीर्ण (बिछे हुये) कुशाओ पर बैठे हुये यजमान पर अनुग्रह करने हेतु आप (यज्ञ की) हवि ग्रहण करने वाले देवताओ को इस यज्ञ मे बुलायें॥३॥
११४.ताँ उशतो वि बोधय यदग्ने यासि दूत्यम् । देवैरा सत्सि बर्हिषि॥४॥

हे अग्निदेव! आप हवि की कामना करने वाले देवो को यहाँ बुलाएँ और इन कुशा के आसन पर देवो के साथ प्रतिष्ठित हों॥४॥
११५.घृताहवन दीदिवः प्रति ष्म रिषतो दह । अग्ने त्वं रक्षस्विनः॥५॥

घृत आहुतियो से प्रदीप्त हे अग्निदेव ! आप राक्षसी प्रवृत्तियो वाले शत्रुओं को सम्यक रूप से भस्म करे॥५॥
११६.अग्निनाग्निः समिध्यते कविर्गृहपतिर्युवा । हव्यवाड्जुह्वास्यः॥६॥

यज्ञ स्थल के रक्षक, दूरदर्शी, चिरयुवा, आहुतियो को देवो तक पहुंचाने वाले, ज्वालायुक्त आहवनीय यज्ञाग्नि को अरणि मन्थन द्वारा उत्पन्न अग्नि से प्रज्वलित किया जाता है॥६॥
११७.कविमग्निमुप स्तुहि सत्यधर्माणमध्वरे । देवममीवचातनम्॥७॥

हे ऋत्विजो ! लोक हितकारी यज्ञ मे रोगो को नष्ट करने वाले, ज्ञानवान अग्निदेव की स्तुति आप सब विशेष रूप से करें॥७॥
११८.यस्त्वामग्ने हविष्पतिर्दूतं देव सपर्यति । तस्य स्म प्राविता भव॥८॥

देवगणो तक हविष्यान्न पहुँचाने वाले हे अग्निदेव ! जो याजक, आप (देवदूत० की उत्तम विधि से अर्चना करते हौ, आप उनकी भली भाँति रक्षा करें॥८॥
११९.यो अग्निं देववीतये हविष्माँ आविवासति । तस्मै पावक मृळय॥९॥

हे शोधक अग्निदेव! देवो के लिए हवि प्रदान करने वाले जो यजमान आपकी प्रार्थना करते है, आप उन्हे सुखी बनाये॥९॥
१२०.स नः पावक दीदिवोऽग्ने देवाँ इहा वह । उप यज्ञं हविश्च नः॥१०॥

हे पवित्र दीप्तिमान अग्निदेव ! आप देवो को हमारे यज्ञ मे हवि ग्रहण करने के निमित्त ले आएँ॥१०॥
१२१.स न स्तवान आ भर गायत्रेण नवीयसा । रयिं वीरवतीमिषम्॥११॥

हे अग्निदेव! नवीनतम गायत्री छन्द वाले सूक्त से स्तुति किये जाते हुये आप हमारे लिये पुत्रादि ऐश्वर्य और् बलयुक्त् अन्नो को भरपूर प्रदान करें॥११॥
१२२.अग्ने शुक्रेण शोचिषा विश्वाभिर्देवहूतिभिः । इमं स्तोमं जुषस्व नः॥१२॥
हे अग्निदेव! अपनि कान्तिमान् दीप्तियो से देवो को बुलाने निमित्त हमारी स्तुतियो को स्वीकार् करें॥१२॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ११

[ऋषि-जेतामाधुच्छन्दस । देवता - इन्द्र। छन्द- अनुष्टुप्।]

१०३. इन्द्रं विश्वा अवीवृधन्त्समुद्रव्यचसं गिरः। रथीतमं रथीनां वाजानां
सतपर्ति पतिम्॥१॥

समुद्र के तुल्य व्यापक, सब रथियो मे महानतम, अन्नो के स्वामी और सत्प्रवृत्तियो के पालक इन्द्रदेव को समस्त स्तुतियां अभिवृद्धि प्रदान करती हैं ॥१॥
१०४. सख्ये त इन्द्र वाजिनो मा भेम शवसस्पते। त्वामभि प्र णोनुमो
जेतारमपराजितम्॥२॥

हे बलरक्षक इन्द्रदेव! आपकी मित्रता से हम बलशाली होकर किसी से न डरें। हे अपराजेय - विजयी इन्द्रदेव! हम साधक गण आपको प्रणाम करते हैं ॥२॥
१०५. पूर्वीरिन्द्रस्य रातयो न वि दस्तन्त्यूतयः। यदी वाजस्य गोमतः
स्तोतृभ्यो मंहते मघम्॥३॥

देवराज इन्द्र की दानशिलता सनातन है। ऐसी स्थिति मे आज के यजमान भी स्तोताओ को गवादि सहित अन्न दान करते है तो इन्द्रदेव द्वारा की गई सुरक्षा अक्षुण्ण रहती है ॥३॥
१०६. पुरां भिन्दुर्युवा कविरमितौजा अजायत। इन्द्रो विश्वस्य कर्मणो धर्ता
वज्री पुरुष्टुतः॥४॥

शत्रु के नगरो को विनष्ट करने वाले हे इन्द्रदेव युवा ज्ञाता, अतिशक्तिशाली, शुभ कार्यो के आश्रयदाता तथा सर्वाधिक कीर्ति-युक्त होकर विविधगुण समपन्न हुये हैं॥४॥
१०७. त्वं वलस्य गोमतोऽपावरद्रिवो बिलम् । त्वा देवा अबिभ्युषस्तुज्यमानस
आविषुः॥५॥

हे वज्रधारी इन्द्रदेव। आपने गौओ (सूर्य किरणो) को चुराने वाले असुरो के व्युह को नष्ट किया, तब असुरो से पराजित हुये देवगण आपके साथ आकर संगठित हुए॥५॥
१०८. तवांह शूर रातिभिःप्रत्यायं सिन्धुमावदन्। उपातिष्ठन्त गिर्वणो
विदुष्टे तस्य कारवः ॥‍६॥
संग्रामशूर हे इन्द्रदेव आपकी दानशीलता से आकृष्ट होकर हम होतागण पुनः आपके पास आये है। हे स्तुत्य इन्द्रदेव! सोमयाग मे आपकी प्रशंसा करते हुये ये ऋत्विज एवं यजमान आपकी दानशिलता को जानते है ॥६॥
१०९. मायाभिरिन्द्र मायिनं त्वं शुष्णमवातिर:। विदुष्टे तस्य मेधिरास्तेषां
श्रवांस्युत्तिर॥७॥

हे इन्द्रदेव! अपनी माता द्वारा आपने ’शुष्ण’(एक राक्षस) को पराजित किया। जो बुद्धीमान आपकी इस माया को जानते है, उन्हे यश और बल देकर वृद्धि प्रदान करें ॥७॥
११० इन्द्रमीशानमोजसाभि स्तोमा अनूषत। सहस्त्र यस्य रातय उत वा सन्ति भूयसी: ॥८॥

स्तोतागण, असंख्यो अनुदान देनेवाले, ओजस् (बल प्राक्रम) के कारण जगत् के नियन्ता इन्द्रदेव की स्तुति करने लगे ॥८॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १०

[ऋषि- मधुच्छन्दा वैश्वामित्र। देवता-इन्द्र । छन्द- अनुष्टुप्]


९१.गायन्ति त्वा गायत्रिणो ऽर्चन्त्यर्कमर्किण: । ब्रह्माणस्त्वा शतक्रत उद्वंशमिव येमिरे॥१॥

हे शतक्रतो (सौ यज्ञ या श्रेष्ठ कर्म करने वाले) इन्द्रदेव ।उद्‍गातागण आपका आवाहन करते है। स्तोतागण पूज्य इन्द्रदेव का मंत्रोच्चारण द्वारा आदर करते है। बाँस के ऊपर कला प्रदर्शन करने वाले नट के समान ब्रम्हा नामक ऋत्विज श्रेष्ठ स्तुतियो द्वारा इन्द्रदेव को प्रोत्साहित करते हैं॥१॥

९२. यत्सानो: सानुमारुहद् भूर्यस्पष्ट कर्त्वम् तदिन्द्रो अर्थं चेतति यूथेन वृष्णिरेजति ॥२॥

जब यजमान सोमवल्ली , समिधादि के निमित्त एक पर्वत शिखर से दूसरे पर्वत शिखर पर जाते है और् यजन कर्म करते है, तब उनके मनोरथ को जानने वाले इष्टप्रदायक इन्द्रदेव यज्ञ मे जाने को उद्यत होते है॥२॥
९३. युक्ष्वा हि केशिना हरी वृषणा कक्ष्यप्रा। अथा न इन्द्र सोमपा गिरामुअपश्रुतिं चर ॥३॥

हे सोमरस ग्रहिता इन्द्रदेव। आप लम्बे केशयुक्त,शक्तिमान, गन्तव्य तक ले जाने वाले दोनो घोड़ो को रथ मे नियोजित करें। तपश्चात् सोमपान से तृप्त होकर हमारे द्वारा की गयी प्रार्थनायेँ सुने ॥३॥
९४. एहि स्तोमाँ अभि स्वराभि गृणीह्या रुव। ब्रम्ह च नो वसो सचेन्द्र यज्ञं च वर्धय॥४॥

हे सर्वनिवासक इन्द्रदेव । हमारी स्तुतियो का श्रवण कर आप उद्‍गाताओं, होताओ एवं अध्वर्युवो को प्रशंसा से प्रोत्साहित करें॥४॥
९५. उक्थमिन्द्राय शंस्यं वर्धनं पुतुनिष्षिधे। शक्रो यथा सुतेषु णो रारणत् सख्येषु च ॥५॥

हे स्तोताओ। आप शत्रुसंहारक, सामर्थ्यवान् इन्द्रदेव के लिये , उनके यश को बढ़ाने वाले उत्तम स्तोत्रो का पाठ करे जिससे उनकी कृपा हमारी सन्तानो एवं मित्रो पर सदैव बनी रहे ॥५॥
९६. तमित् सखित्व ईमहे तं राते त्ं सुवीर्ये । स शक्र उत न्: शकदिन्द्रो वसु गयमानः ॥६॥

हम उन इन्द्रदेव के पास मित्रता के लिये धनप्राप्ति और उत्तमबल वृद्धि के किये स्तुति करने जाते है। वे इन्द्रदेव बल एवं धन प्रदान करते हुये हमे संरक्षित करते है॥६॥
९७. सुविवृत्तं सुनिरजमिन्द्र त्वादातमिद्यशः। गवामप व्रजं वृधि कृणुष्व राधो अद्रिवः ॥७॥

हे इन्द्रदेव। आपके द्वारा प्रदत्त यश सब दिशाओ मे सुविस्तृत हुवा है । हे वज्रधारक इन्द्रदेव। गौओ को बाड़े से छोड़ने के समान हमारे लिये धन को प्रसारित करें ॥७॥
९८. नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः। जेषः स्वर्वतीरपः सं गा अस्मभ्यं धूनुहि॥८॥

हे इन्द्रदेव! युद्ध के समय आपके यश का विस्तार पृथ्वी और् द्युलोक तक होता है। दिव्य जल प्रवाहो पर आपका ही अधिकार है। उनसे अभिषिक्त कर हमे तृप्त करें ॥८॥
९९. आशुत्कर्ण श्रुधी हवं नू चिद्दधिष्व मे गिरः। इन्द्र स्तोममिमं मम कृष्वा युजश्चिदन्तरम्॥९॥

भक्तो की स्तुति सुनने वाले हे इन्द्रदेव। हमारे आवाहन को सुने। हमारी वाणियो को चित्त मे धारण करें। हमारे स्तोत्रो को अपने मित्र के वचनो से भी अधिक प्रीतिपूर्वक धारण करें॥९॥
१००. विद्मा हि त्वा वृषन्तमं वाजेषु हवनश्रुतम् । वृषन्तमस्य हूमह ऊर्तिं सहस्त्रासातमाम्॥१०॥

हे इन्द्रदेव। हम जानते है कि आप बल सम्पन्न हैं तथा युद्धो मे हमारे आवाहन को आप सुनते हैं। हे बलशाली इन्द्रदेव ! आपके सहस्त्रो प्रकार के धन के साथ हम आपका संरक्षण भी चाहते है ॥१०॥
१०१ . आ तू न इन्द्र कौशिक मन्दसानः सुतं पिब। नव्यमायुः प्र सू तिर कृधी सहस्त्रासामृषिम् ॥११॥

हे कुशिक के पुत्र इन्द्रदेव। आप इस निष्पादित सोम का पान करने के लिये हमारे पास शीघ्र आयें। हमे कर्म करने की सामर्थ्य के साथ नविन आयु भी दे। इस ऋषि को सहस्त्र धनो से पूर्ण करें॥१॥
[कुशिक पुत्र विश्वामित्र के समान उत्त्पत्ति के कारण इन्द्र को कुशिक पुत्र सम्बोधन दिया गया है।]
१०२. परि त्वा गिर्वणो गिर इमा भवन्तु विश्वतः। वृद्धायुमनु वृद्द्यो जुष्ता भवन्तु जुष्टयः॥१२॥

हे स्तुत्य इन्द्रदेव। हमारे द्वारा की गई स्तुतियां सब ओर् से आपकी आयु को बढाने वाली सिद्ध हो ॥१२॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ९

[ऋषि-मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता - इन्द्र। छन्द- गायत्री।]
८१. इन्द्रेहि ,मत्स्यन्धसो विश्वेभि: सोमपर्वभि:। महाँ अभिष्टिरोजसा ॥१॥

हे इन्द्रदेव! सोमरूपी अन्नो से आप प्रफुल्लित होते है, अत: अपनी शक्ति से दुर्दान्त शत्रुओ पर विजय श्री वरण करने की क्षमता प्राप्त करने हेतु आप (यज्ञशाला मे) पधारें ॥१॥
८२. एमेनं सृजता सुते मन्दिमिन्द्राय मन्दिने । चक्रिं विश्वानि चक्रये॥२॥

(हे याजको !) प्रसन्नता देने वाले सोमरस को निचोड़कर तैयार् करो तथा सम्पूरण कार्यो के कर्ता इन्द्र देव के सामर्थ्य बढ़ाने वाले इस सोम को अर्पित करो॥२॥
८३. मतस्वा सुशिप्र मन्दिभि: स्तोमेभिर्विश्वचर्षणे। सचैषु सवनेष्वा॥३॥
हे उत्तम शस्त्रो से सुसज्जित (अथवा शोभन नासिका वाले), इन्द्रदेव ! हमारे इन यज्ञो मे आकर प्रफुल्लता प्रदान करने वाले स्तोत्रो से आप आनन्दित हो ॥३॥
८४.असृग्रमिन्द्र ते गिर: प्रति त्वामुदहासत। अजोषा वृषभं पतिम्॥४॥

हे इन्द्रदेव । आपकी स्तुति के लिये हमने स्तोत्रो की रचना की है। हे बलशाली और पालनकर्ता इन्द्रदेव ! इन स्तुतियो द्वारा की गई प्रार्थना को आप स्वीकार करें ॥४॥
८५.सं चोदय चित्रमर्वाग्राध इन्द्र वरेण्यम् । असदित्ते विभु प्रभु॥५॥

हे इन्द्रदेव ! आप ही विपुल् ऐश्वर्यो के अधिपति हैं,अत: विविध प्रकार के श्रेष्ठ ऐश्वर्यो को हमारे पास प्रेरित् करें; अर्थात हमे श्रेष्ठ ऐश्वर्य प्रदान करें ॥५॥
८६.अस्मान्त्सु तत्र चोदयेन्द्र राते रभस्वत:। तुविद्युम्न यशस्वत:॥६॥

हे प्रभूत् ऐश्वर्य सम्पन्न इन्द्रदेव! आप वैभव की प्राप्ति के लिये हमे श्रेष्ठ कर्मो मे प्रेरित करें, जिससे हम परिश्रमी और यशस्वी हो सकें॥६॥
८७. सं गोमदिन्द्र वाजवदस्मे पृथु श्रवो बृहत्। विश्वायुर्धेह्याक्षितम्॥७॥

हे इन्द्रदेव ! आप हमे गौओ, धन धान्य से युक्त अपार वैभव एवं अक्षय पूर्णायु प्रदान करें॥७॥
८८. अस्मे धेहि श्रवो बृहद् द्युम्न सहस्रसातमम् । इन्द्र रा रथिनीरिष:॥८॥

हे इन्द्रदेव ! आप हमे प्रभूत यश एवं विपुल ऐश्वर्य प्रदान करें तथा बहुत से रथो मे भरकर अन्नादि प्रदान करें॥८॥
८९. वसोरिन्द्र वसुपतिं गीर्भिर्गृणन्त ऋग्मियम्।होम गन्तारमूतये॥९॥

धनो के अधिपति,ऐश्वर्यो के स्वामी,ऋचाओ से स्तुत्य इन्द्रदेव का हम स्तुतिपूर्वक आवाहन करते हैं। वे हमारे यज्ञ मे पधार कर, हमारे ऐश्वर्य की रक्षा करें॥९॥
९०.सुतेसुते न्योकसे बृहद् बृहत एदरि:। इन्द्राय शूषमर्चति ॥१०॥

सोम को सिद्ध(तैयार) करने के स्थान यज्ञस्थल पर यज्ञकर्ता, इन्द्रदेव के पराक्रम की प्रशंसा करते है॥१०॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ८

[ऋषि-मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता - इन्द्र। छन्द- गायत्री।]

७१। एन्द्र सानसिं रयिं सजित्वानं सदासहम् । वर्षिष्ठमूतये भर ॥१॥

हे इन्द्रदेव । आप हमारे जीवन संरक्षण के लिये तथा शत्रुओ को पराभूत करने के निमित्त हमे ऐश्वर्य से पूर्ण करें ॥१॥

७२. नि येन मुष्टिहत्यया नि वृत्रा रुणधामहै। त्वोतासो न्यवर्ता ॥२॥


उस ऐश्वर्य के प्रभाव और् आपके द्वारा रक्षित अश्वो के सहयोग से हम मुक्के का प्रहार् लर (शक्ति प्रयोअग द्वारा) शत्रुओ को भगा दे ॥२॥

७३. इन्द्र त्वोतास आ वयं वज्रं घना ददीमहि । जयेम सं युधि स्पृध: ॥३॥


हे इन्द्रदेव ! आपके द्वारा संरक्षित होकर तीक्ष्ण वज्रो को धारण् कर हम युद्ध मे स्पर्धा करने वाले शत्रुओ पर् विजय प्राप्त करें ॥३॥

७४. वयं शूरेबिरस्तृभिरिन्द्र त्व्या युजा वयम्। सासह्याम पृतन्यत: ॥४॥


हे इन्द्रदेव ! आपके द्वारा संरक्षित कुशल शस्त्रचालक वीरो के साथ हम अपने शत्रुओ को पराजित करे ॥४॥

७५. महाँ इन्द्र: परश्च नु महित्वमस्तु वज्रिणे। द्यौर्न प्रथिना शव: ॥५॥


हमारे इन्द्रदेव श्रेष्ठ और महान है। वज्रधारी इन्द्रदेव का यश द्युलोक् के समान व्यापक होकर फैले तथा इनके बल की चतुर्दिक प्रशंसा हो ॥५॥

७६.समोहे वा य आशत नरस्तोकस्य सनितौ। विप्रासो वा धियायव: ॥६॥


जो संग्राम मे जुटते है, जो पुत्र के निर्माण् मे जुटते है और् बुद्धीपूर्वक ज्ञान-प्राप्ति के लिये यत्न करते है, वे सब इन्द्रदेव जी स्तुति से इष्टफल पाते है॥६॥

७७. य: कुक्षि: सोमपातम: समुद्र इव पिन्वते। उर्वीरापो ब काकुद: ॥७॥


अत्याधिक सोमपान करने वाले इन्द्रदेव का उदर समुद्र की तरह विशाल हो जाता है । वह (सोमरस) जीभ से प्रवाहित होने वाले रसो की तरह सतत् द्रवित होता रहता है । सद आद्र बनाये रहता है ॥७॥

७८. एवा ह्यस्य सूनृता विरप्शी गोमती मही। पक्वा शाखा न दाशुषे॥८॥


इन्द्रदेव की अति मधुर और् सत्यवाणी उसी प्रकार सुख देती है, जिस प्रकार गो धन के दाता और पके फल वाली शाखाओ से युक्त वृक्ष यजमानो (हविदाता) को सुख देते है ॥८॥

७९. एवा हि ते विभूतय ऊतय इन्द्र मावते। सद्यश्चित् सन्ति दाशुषे॥९॥

हे इन्द्रदेव ! हमारे लिये इष्टदायी और संरक्षण प्रदान करने वाली जो आपकी विभूतियाँ है, वे सभी दान देने(श्रेष्ठ कार्य मे नियोजन करने) वालो को भी तत्काल प्राप्त होती है ॥९॥

८०. एवा ह्यस्य काम्या स्तोम् उक्थं च शंस्या। इन्द्राय सोमपीतये॥१०॥


दाता की स्तुतियाँ और उक्त वचन अति मनोरम एवं प्रशंसनीय है। ये सब सोमपान करने वाले इन्द्रदेव के लिये है ॥१०॥