ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ११

[ऋषि-जेतामाधुच्छन्दस । देवता - इन्द्र। छन्द- अनुष्टुप्।]

१०३. इन्द्रं विश्वा अवीवृधन्त्समुद्रव्यचसं गिरः। रथीतमं रथीनां वाजानां
सतपर्ति पतिम्॥१॥

समुद्र के तुल्य व्यापक, सब रथियो मे महानतम, अन्नो के स्वामी और सत्प्रवृत्तियो के पालक इन्द्रदेव को समस्त स्तुतियां अभिवृद्धि प्रदान करती हैं ॥१॥
१०४. सख्ये त इन्द्र वाजिनो मा भेम शवसस्पते। त्वामभि प्र णोनुमो
जेतारमपराजितम्॥२॥

हे बलरक्षक इन्द्रदेव! आपकी मित्रता से हम बलशाली होकर किसी से न डरें। हे अपराजेय - विजयी इन्द्रदेव! हम साधक गण आपको प्रणाम करते हैं ॥२॥
१०५. पूर्वीरिन्द्रस्य रातयो न वि दस्तन्त्यूतयः। यदी वाजस्य गोमतः
स्तोतृभ्यो मंहते मघम्॥३॥

देवराज इन्द्र की दानशिलता सनातन है। ऐसी स्थिति मे आज के यजमान भी स्तोताओ को गवादि सहित अन्न दान करते है तो इन्द्रदेव द्वारा की गई सुरक्षा अक्षुण्ण रहती है ॥३॥
१०६. पुरां भिन्दुर्युवा कविरमितौजा अजायत। इन्द्रो विश्वस्य कर्मणो धर्ता
वज्री पुरुष्टुतः॥४॥

शत्रु के नगरो को विनष्ट करने वाले हे इन्द्रदेव युवा ज्ञाता, अतिशक्तिशाली, शुभ कार्यो के आश्रयदाता तथा सर्वाधिक कीर्ति-युक्त होकर विविधगुण समपन्न हुये हैं॥४॥
१०७. त्वं वलस्य गोमतोऽपावरद्रिवो बिलम् । त्वा देवा अबिभ्युषस्तुज्यमानस
आविषुः॥५॥

हे वज्रधारी इन्द्रदेव। आपने गौओ (सूर्य किरणो) को चुराने वाले असुरो के व्युह को नष्ट किया, तब असुरो से पराजित हुये देवगण आपके साथ आकर संगठित हुए॥५॥
१०८. तवांह शूर रातिभिःप्रत्यायं सिन्धुमावदन्। उपातिष्ठन्त गिर्वणो
विदुष्टे तस्य कारवः ॥‍६॥
संग्रामशूर हे इन्द्रदेव आपकी दानशीलता से आकृष्ट होकर हम होतागण पुनः आपके पास आये है। हे स्तुत्य इन्द्रदेव! सोमयाग मे आपकी प्रशंसा करते हुये ये ऋत्विज एवं यजमान आपकी दानशिलता को जानते है ॥६॥
१०९. मायाभिरिन्द्र मायिनं त्वं शुष्णमवातिर:। विदुष्टे तस्य मेधिरास्तेषां
श्रवांस्युत्तिर॥७॥

हे इन्द्रदेव! अपनी माता द्वारा आपने ’शुष्ण’(एक राक्षस) को पराजित किया। जो बुद्धीमान आपकी इस माया को जानते है, उन्हे यश और बल देकर वृद्धि प्रदान करें ॥७॥
११० इन्द्रमीशानमोजसाभि स्तोमा अनूषत। सहस्त्र यस्य रातय उत वा सन्ति भूयसी: ॥८॥

स्तोतागण, असंख्यो अनुदान देनेवाले, ओजस् (बल प्राक्रम) के कारण जगत् के नियन्ता इन्द्रदेव की स्तुति करने लगे ॥८॥

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