ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १०

[ऋषि- मधुच्छन्दा वैश्वामित्र। देवता-इन्द्र । छन्द- अनुष्टुप्]


९१.गायन्ति त्वा गायत्रिणो ऽर्चन्त्यर्कमर्किण: । ब्रह्माणस्त्वा शतक्रत उद्वंशमिव येमिरे॥१॥

हे शतक्रतो (सौ यज्ञ या श्रेष्ठ कर्म करने वाले) इन्द्रदेव ।उद्‍गातागण आपका आवाहन करते है। स्तोतागण पूज्य इन्द्रदेव का मंत्रोच्चारण द्वारा आदर करते है। बाँस के ऊपर कला प्रदर्शन करने वाले नट के समान ब्रम्हा नामक ऋत्विज श्रेष्ठ स्तुतियो द्वारा इन्द्रदेव को प्रोत्साहित करते हैं॥१॥

९२. यत्सानो: सानुमारुहद् भूर्यस्पष्ट कर्त्वम् तदिन्द्रो अर्थं चेतति यूथेन वृष्णिरेजति ॥२॥

जब यजमान सोमवल्ली , समिधादि के निमित्त एक पर्वत शिखर से दूसरे पर्वत शिखर पर जाते है और् यजन कर्म करते है, तब उनके मनोरथ को जानने वाले इष्टप्रदायक इन्द्रदेव यज्ञ मे जाने को उद्यत होते है॥२॥
९३. युक्ष्वा हि केशिना हरी वृषणा कक्ष्यप्रा। अथा न इन्द्र सोमपा गिरामुअपश्रुतिं चर ॥३॥

हे सोमरस ग्रहिता इन्द्रदेव। आप लम्बे केशयुक्त,शक्तिमान, गन्तव्य तक ले जाने वाले दोनो घोड़ो को रथ मे नियोजित करें। तपश्चात् सोमपान से तृप्त होकर हमारे द्वारा की गयी प्रार्थनायेँ सुने ॥३॥
९४. एहि स्तोमाँ अभि स्वराभि गृणीह्या रुव। ब्रम्ह च नो वसो सचेन्द्र यज्ञं च वर्धय॥४॥

हे सर्वनिवासक इन्द्रदेव । हमारी स्तुतियो का श्रवण कर आप उद्‍गाताओं, होताओ एवं अध्वर्युवो को प्रशंसा से प्रोत्साहित करें॥४॥
९५. उक्थमिन्द्राय शंस्यं वर्धनं पुतुनिष्षिधे। शक्रो यथा सुतेषु णो रारणत् सख्येषु च ॥५॥

हे स्तोताओ। आप शत्रुसंहारक, सामर्थ्यवान् इन्द्रदेव के लिये , उनके यश को बढ़ाने वाले उत्तम स्तोत्रो का पाठ करे जिससे उनकी कृपा हमारी सन्तानो एवं मित्रो पर सदैव बनी रहे ॥५॥
९६. तमित् सखित्व ईमहे तं राते त्ं सुवीर्ये । स शक्र उत न्: शकदिन्द्रो वसु गयमानः ॥६॥

हम उन इन्द्रदेव के पास मित्रता के लिये धनप्राप्ति और उत्तमबल वृद्धि के किये स्तुति करने जाते है। वे इन्द्रदेव बल एवं धन प्रदान करते हुये हमे संरक्षित करते है॥६॥
९७. सुविवृत्तं सुनिरजमिन्द्र त्वादातमिद्यशः। गवामप व्रजं वृधि कृणुष्व राधो अद्रिवः ॥७॥

हे इन्द्रदेव। आपके द्वारा प्रदत्त यश सब दिशाओ मे सुविस्तृत हुवा है । हे वज्रधारक इन्द्रदेव। गौओ को बाड़े से छोड़ने के समान हमारे लिये धन को प्रसारित करें ॥७॥
९८. नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः। जेषः स्वर्वतीरपः सं गा अस्मभ्यं धूनुहि॥८॥

हे इन्द्रदेव! युद्ध के समय आपके यश का विस्तार पृथ्वी और् द्युलोक तक होता है। दिव्य जल प्रवाहो पर आपका ही अधिकार है। उनसे अभिषिक्त कर हमे तृप्त करें ॥८॥
९९. आशुत्कर्ण श्रुधी हवं नू चिद्दधिष्व मे गिरः। इन्द्र स्तोममिमं मम कृष्वा युजश्चिदन्तरम्॥९॥

भक्तो की स्तुति सुनने वाले हे इन्द्रदेव। हमारे आवाहन को सुने। हमारी वाणियो को चित्त मे धारण करें। हमारे स्तोत्रो को अपने मित्र के वचनो से भी अधिक प्रीतिपूर्वक धारण करें॥९॥
१००. विद्मा हि त्वा वृषन्तमं वाजेषु हवनश्रुतम् । वृषन्तमस्य हूमह ऊर्तिं सहस्त्रासातमाम्॥१०॥

हे इन्द्रदेव। हम जानते है कि आप बल सम्पन्न हैं तथा युद्धो मे हमारे आवाहन को आप सुनते हैं। हे बलशाली इन्द्रदेव ! आपके सहस्त्रो प्रकार के धन के साथ हम आपका संरक्षण भी चाहते है ॥१०॥
१०१ . आ तू न इन्द्र कौशिक मन्दसानः सुतं पिब। नव्यमायुः प्र सू तिर कृधी सहस्त्रासामृषिम् ॥११॥

हे कुशिक के पुत्र इन्द्रदेव। आप इस निष्पादित सोम का पान करने के लिये हमारे पास शीघ्र आयें। हमे कर्म करने की सामर्थ्य के साथ नविन आयु भी दे। इस ऋषि को सहस्त्र धनो से पूर्ण करें॥१॥
[कुशिक पुत्र विश्वामित्र के समान उत्त्पत्ति के कारण इन्द्र को कुशिक पुत्र सम्बोधन दिया गया है।]
१०२. परि त्वा गिर्वणो गिर इमा भवन्तु विश्वतः। वृद्धायुमनु वृद्द्यो जुष्ता भवन्तु जुष्टयः॥१२॥

हे स्तुत्य इन्द्रदेव। हमारे द्वारा की गई स्तुतियां सब ओर् से आपकी आयु को बढाने वाली सिद्ध हो ॥१२॥

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