ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १६

[ऋषि- मेधातिथि काण्व। देवता-इन्द्र।छन्द-गायत्री]
१५९.आ त्वा वहन्तु हरयो वृषणं सोमपीतये ।
इन्द्र त्वा सूरचक्षसः ॥१॥
हे बलवान इन्द्रदेव! आपके तेजस्वी घोड़े सोमरस पीने के लिये आपको यज्ञस्थल पर लाएँ तथा सूर्य के समान प्रकाशयुक्त ऋत्विज् मन्त्रो द्वारा आपकी स्तुति करें॥१॥
१६०.इमा धाना घृतस्नुवो हरी इहोप वक्षतः ।
इन्द्रं सुखतमे रथे ॥२॥
अत्यन्त सुखकारी रथ मे नियोजित इन्द्रदेव के दोनो हरि (घोड़े) उन्हे (इन्द्रदेव को) घृत से स्निग्ध हवि रूप धाना(भुने हुये जौ) ग्रहण करने के लिये यहाँ ले आएँ॥२॥
१६१.इन्द्रं प्रातर्हवामह इन्द्रं प्रयत्यध्वरे ।
इन्द्रं सोमस्य पीतये ॥३॥
हम प्रातःकाल यज्ञ प्रारम्भ करते समय मध्याह्नकालीन सोमयाग प्रारम्भ होने पर तथा सांयकाल यज्ञ की समाप्ति पर भी सोमरस पीने के निमित्त इन्द्रदेव का आवाहन करते है॥३॥
१६२.उप नः सुतमा गहि हरिभिरिन्द्र केशिभिः ।
सुते हि त्वा हवामहे ॥४॥
हे इन्द्रदेव! आप अपने केसर युक्त अश्‍वो से सोम के अभिषव स्थान के पास् आएँ। सोम के अभिषुत होने पर हम आपका आवाहन करते है॥४॥
१६३.सेमं न स्तोममा गह्युपेदं सवनं सुतम् ।
गौरो न तृषितः पिब ॥५॥
हे इन्द्रदेव! हमारे स्तोत्रो का श्रवण कर आप यहाँ आएँ। प्यासे गौर मृग के सदृश व्याकुल मन से सोम के अभिषव स्थान के समीप आकर सोम का पान करें॥५॥
१६४.इमे सोमास इन्दवः सुतासो अधि बर्हिषि ।
ताँ इन्द्र सहसे पिब ॥६॥
हे इन्द्रदेव! यह दीप्तिमान् सोम निष्पादित होकर कुशाआसन पर सुशोभित है। शक्ति वर्धन के निमित्त आप इसका पान करें॥६॥
१६५.अयं ते स्तोमो अग्रियो हृदिस्पृगस्तु शंतमः ।
अथा सोमं सुतं पिब ॥७॥
हे इन्द्रदेव ! यह स्तोत्र श्रेष्ठ, मर्मस्पर्शी और अत्यन्य सुखकारी है। अब आप इसे सुनकर अभिषुत सोमरस का पान करें॥७॥
१६६.विश्वमित्सवनं सुतमिन्द्रो मदाय गच्छति ।
वृत्रहा सोमपीतये ॥८॥
सोम के सभी अभिषव स्थानो की ओर् इन्द्रदेव अवश्य जाते है। दुष्टो का हनन करने वाले इन्द्रदेव सोमरस पीकर अपना हर्ष बढाते है॥८॥
१६७.सेमं नः काममा पृण गोभिरश्वैः शतक्रतो ।
स्तवाम त्वा स्वाध्यः ॥९॥
हे शतकर्मा इन्द्रदेव! आप हमारी गौओ और अश्वो सम्बन्धी कामनाये पूर्ण करे। हम मनोयोग पूर्वक आपकी स्तुति करते है॥९॥

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