[ऋषि - कण्व धौर । देवता - वरुण, मित्र एवं अर्यमा; ४-६ आदित्यगण । छन्द- गायत्री।]
४९०.यं रक्षन्ति प्रचेतसो वरुणो मित्रो अर्यमा ।
नू चित्स दभ्यते जनः ॥१॥
जिस याजक को, ज्ञान सम्पन्न वरुण,मित्र और अर्यमा आदि देवो का संरक्षण प्राप्त है, उसे कोई भी नहीं दबा सकता॥१॥
४९१.यं बाहुतेव पिप्रति पान्ति मर्त्यं रिषः ।
अरिष्टः सर्व एधते ॥२॥
अपने बाहुओं से विविध धनो को देते हुए, वरुणादि देवगण जिस मनुष्य की रक्षा करते हैं, शत्रुओ से अंहिसित होता हुआ वह वृद्धि पाता है॥२॥
४९२.वि दुर्गा वि द्विषः पुरो घ्नन्ति राजान एषाम् ।
नयन्ति दुरिता तिरः ॥३॥
राजा के सदृश वरुणादि देवगण, शत्रुओ के नगरो और किलो को विशेष रूप से नष्ट करते है। वे याजकों को दुःख के मूलभूत कारणो (पापो) से दूरे ले जाते हैं॥३॥
४९३.सुगः पन्था अनृक्षर आदित्यास ऋतं यते ।
नात्रावखादो अस्ति वः ॥४॥
हे आदित्यो! आप के यज्ञ मे आने के मार्ग अति सुगम और कण्टकहीन हैं। इस यज्ञ मे आपके लिए श्रेष्ठ हविष्यान समर्पित हैं॥४॥
४९४.यं यज्ञं नयथा नर आदित्या ऋजुना पथा ।
प्र वः स धीतये नशत् ॥५॥
हे आदित्यो! जिस यज्ञ को आप सरल मार्ग से सम्पादित करते है, वह यज्ञ आपके ध्यान मे विशेष रूप से रहता है। वह भला कैसे विस्मृत हो सकता है?॥५॥
४९५.स रत्नं मर्त्यो वसु विश्वं तोकमुत त्मना ।
अच्छा गच्छत्यस्तृतः ॥६॥
हे आदित्यो! आपका याजक किसी से पराजित नही होता। वह धनादि रत्न और सन्तानो को प्राप्त करता हुआ प्रगति करता है॥६॥
४९६.कथा राधाम सखाय स्तोमं मित्रस्यार्यम्णः ।
महि प्सरो वरुणस्य ॥७॥
हे मित्रो! मित्र, अर्यमा और वरुण देवो के महान ऐश्वर्य साधनो का किस प्रकार वर्णन करें ? अर्थात इनकी महिमा अपार है॥७॥
४९७.मा वो घ्नन्तं मा शपन्तं प्रति वोचे देवयन्तम् ।
सुम्नैरिद्व आ विवासे ॥८॥
हे देवो! देवत्व प्राप्ति की कामना वाले साधको को कोई कटुवचनो से और क्रोधयुक्त वचनो से प्रताड़ित न करने पाये। हम स्तुति वचनो द्वारा आपको प्रसन्न करते हैं॥८॥
४९८.चतुरश्चिद्ददमानाद्बिभीयादा निधातोः ।
न दुरुक्ताय स्पृहयेत् ॥९॥
जैसे जुआ खेलने मे चार पांसे गिरने तक भय रहता है, उसी प्रकार बुरे वचन कहने से भी डरना चाहिये। उससे स्नेह नहीं करना चाहिए॥९॥
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