ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २७

[ऋषि- शुन:शेप आजीगर्ति। देवता १-१२अग्नि, १३ देवतागण। छन्द १-१२ गायत्री,१३ त्रिष्टुप।]

३००.अश्वं न त्वा वारवन्तं वन्दध्या अग्निं नमोभिः। सम्राजन्तमध्वराणाम्॥१॥
तमोनाशक, यज्ञो के सम्राट स्वरूप हे अग्निदेव! हम स्तुतियो ले द्वारा आपकी वंदना करते है। जिस प्रकार अश्व अपनी पूँछ के बालो से मक्खी मच्छर दूर भगाता है, उसी प्रकार आप भी ज्वालाओ से हमारे विरोधियों को दूर भगायें॥१॥
३०१.स घा नः सूनुः शवसा पृथुप्रगामा सुशेवः। मीढ्वाँ अस्माकं बभूयात्॥२॥
हम इन अग्निदेव की उत्तम विधि से उपासना करते है। वे बल से उत्पन्न, शीघ्र गतिशील अग्निदेव हमे अभिष्ट सुखो को प्रदान करें॥२॥
३०२.स नो दूराच्चासाच्च नि मर्त्यादघायोः। पाहि सदमिद्विश्वायुः॥३॥
हे अग्निदेव! सब मनुष्यो के हितचिंतक आप दूर से और निकट से, अनिष्ट चिंतको से सदैव हमारी रक्षा करें॥३॥
३०३.इममू षु त्वमस्माकं सनिं गायत्रं नव्यांसम्। अग्ने देवेषु प्र वोचः॥४॥
हे अग्निदेव! आप हमारे गायत्री परक प्राण पोषक स्तोत्रो एवं नवीन अन्न(हव्य) को देवो रक (देव वृत्तियों के पोषण हेतु) पहुँचाये॥४॥
३०४.आ नो भज परमेष्वा वाजेषु मध्यमेषु। शिक्षा वस्वो अन्तमस्य॥५॥
हे अग्निदेव! आप हमे श्रेष्ठ (आध्यात्मिक), मध्यम(आधिदैविक) एवं कनिष्ठ(आधिभौतिक) अर्थात सभी प्रकार की धन सम्पदा प्रदान करें॥५॥
३०५.विभक्तासि चित्रभानो सिन्धोरूर्मा उपाक आ। सद्यो दाशुषे क्षरसि॥६॥
सात ज्वालाओ से दीप्तिमान हे अग्निदेव! आप धनदायक है। नदी के पास आने वाली जल तरंगो ले सदृश आप हविष्यान्न दाता को तत्क्षण (श्रेष्ठ) कर्म फल प्रदान करतें है॥६॥
३०६.यमग्ने पृत्सु मर्त्यमवा वाजेषु यं जुनाः। स यन्ता शश्वतीरिषः॥७॥
हे अग्निदेव ! आप जीवन संग्राम मे जिस पुरुष को प्रेरित करते हैं, उनकी रक्षा आप स्व्यं करते हैं। साथ ही उसके लिये पोषक अन्नो की पूर्ति भी करते हैं॥७॥
३०७.नकिरस्य सहन्त्य पर्येता कयस्य चित्। वाजो अस्ति श्रवाय्यः॥८॥
हे शत्रु विजेता अग्निदेव! आपके उपासक को कोई पराजित नही कर सकता, क्योंकि उसकी(आपके द्वारा प्रदत्त) तेजस्विता प्रसिद्ध है॥८॥
३०८.स वाजं विश्वचर्षणिरर्वद्भिरस्तु तरुता। विप्रेभिरस्तु सनिता॥९॥
सब मनुष्यो के कल्याणकारक वे अग्निदेव जीवन-संग्राम मे अश्व रूपी इन्द्रियो द्वारा विजयी बनाने वाले हो। मेधावी पुरुषो द्वारा प्रशंसित वे अग्निदेव हमे अभीष्ट फल प्रदान करें॥९॥
३०९.जराबोध तद्विविड्ढि विशेविशे यज्ञियाय। स्तोमं रुद्राय दृशीकम्॥१०॥
स्तुतियो से देवो को प्रबोधित करने वाले हे अग्निदेव! ये यजमान, पुनीत यज्ञ स्थल पर दुष्टता विनाश हेतु आपका आवाहन करते है॥१०॥
३१०.स नो महाँ अनिमानो धूमकेतुः पुरुश्चन्द्रः। धिये वाजाय हिन्वतु॥११॥
अपरिमिर्त धूम्र-ध्वजा से युक्त, आनन्दप्रदम महान वे अग्निदेव हमे ज्ञान और वैभव की ओर प्रेरित करें॥११॥
३११.स रेवाँ इव विश्पतिर्दैव्यः केतुः शृणोतु नः। उक्थैरग्निर्बृहद्भानुः॥१२॥
विश्वपालक, अत्यन्त तेजस्वी और ध्वजा सदृश गुणो से युक्त दूरदर्शी वे अग्निदेव वैभवशाली राजा के समान हमारी स्तवन रूपी वाणियो को ग्रहण करें॥१२॥
३१२.नमो महद्भ्यो नमो अर्भकेभ्यो नमो युवभ्यो नम आशिनेभ्यः।
यजाम देवान्यदि शक्नवाम मा ज्यायसः शंसमा वृक्षि देवाः॥१३॥
बड़ो, छोटोम युवको और वृद्धो को हम नमस्कार करते है। सामर्थ्य के अनुसार हम देवो का यजन करें। हे देवो! अपने से बड़ो के सम्मान मे हमारे द्वारा कोई त्रुटी न हो॥१३॥

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