ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २८

[ऋषि- शुन:शेप आजीगर्ति। देवता १-४ इन्द्र,५-६ उलूखल,७-८ उलूखल-मूसल,९ प्रजापति,हरिश्चन्द्रः,अधिषवणचर्म अथवा सोम छन्द १-६ अनुष्टुप,७-९ गायत्री।]

३१३.यत्र ग्रावा पृथुबुध्न ऊर्ध्वो भवति सोतवे। उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः॥१॥
हे इन्द्रदेव! जहाँ (सोमवल्ली) कूटने के लिए बड़ा मूसल उठाया जाता है(अर्थात सोमरस तैयार किया जाता है), वहाँ(यज्ञशाला मे) उलूखल से निष्पन्न सोमरस का पान करें॥१॥
३१४.यत्र द्वाविव जघनाधिषवण्या कृता। उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः॥२॥
हे इन्द्रदेव! जहाँ दो जंघाओ के समान विस्तृत,सोम कुटने के दो फलक रखे है, वहाँ (यज्ञशाला मे) उलूखल से निष्पन्न सोमरस का पान करें॥२॥
३१५.यत्र नार्यपच्यवमुपच्यवं च शिक्षते। उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः॥३॥
हे इन्द्रदेव! जहाँ गृहिणी सोमरस कुटने का अभ्यास करती है, वहाँ (यज्ञशाला मे) उलूखल से निष्पन्न सोमरस का पान करें॥३॥
३१६.यत्र मन्थां विबध्नते रश्मीन्यमितवा इव। उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः॥४॥
हे इन्द्रदेव! जहाँ सारथी द्वारा घोड़े को लगाम लगाने के समान (मथनी को) रस्सी से बाँधकर मन्थन लरते है, वहाँ (यज्ञशाला मे) उलूखल से निष्पन्न सोमरस का पान करें॥४॥
३१७.यच्चिद्धि त्वं गृहेगृह उलूखलक युज्यसे। इह द्युमत्तमं वद जयतामिव दुन्दुभिः॥५॥
हे उलूखल! यद्यपि घर घर मे तुमसे काम लिया जाता है, फिर भी हमारे घर मे विजय दुन्दुभि के समान उच्च शब्द करो॥५॥
३१८.उत स्म ते वनस्पते वातो वि वात्यग्रमित्। अथो इन्द्राय पातवे सुनु सोममुलूखल॥६॥
हे उलूखल - मूसल रूपे वनस्पति! तुम्हारे सामने वायु विशेष गति से बहती है। हे उलूखल! अब इन्द्रदेव के सेवनार्थ सोमरस का निष्पादन करो॥६॥
३१९.आयजी वाजसातमा ता ह्युच्चा विजर्भृतः। हरी इवान्धांसि बप्सता॥७॥
यज्ञ के साधन रूप पूजन योग्य वे उलूखल और मूसल दोनो, अन्न(चने) खाते हुये इन्द्रदेव के दोनो अश्वो के समान उच्च स्वर से शब्द करते हैं॥७॥
३२०.ता नो अद्य वनस्पती ऋष्वावृष्वेभिः सोतृभिः। इन्द्राय मधुमत्सुतम्॥८॥
दर्शनीय उलूखल एवं मूसल रूपे वनस्पते! आप दोनो सोमयाग करने वालों के साथ इन्द्रदेव के लिये मधुर सोमरस का निष्पादन करो॥८॥
३२१.उच्छिष्टं चम्वोर्भर सोमं पवित्र आ सृज। नि धेहि गोरधि त्वचि॥९॥
उलूखल और मूसल द्वारा निष्पादित सोम को पात्र से निकाल कर पवित्र कुशा के आसन पर रखें और अवशिष्ट को छानने के लिये पवित्र चर्म पर रखें॥९॥

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