ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १३

[ऋषि - मेधातिथि काण्व। देवता १-इध्म अथवा समिद्ध अग्नि, २-तनूनपात्, ३-नराशंस, ४-इळा, ५-बर्हि, ६-दिव्यद्वार्, ७-उषासानक्ता, ८ दिव्यहोता प्रचेतस, ९- तीन देवियाँ- सरस्वती, इळा , भारती, १०-त्वष्टा, ११ वनस्पति, १२ स्वाहाकृति । छन्द-गायत्री।]


१२३.सुसमिद्धो न आ वह देवाँ अग्ने हविष्मते । होतः पावक यक्षि च॥१॥
पवित्रकर्ता यज्ञ सम्पादन कर्ता हे अग्निदेव। आप अच्छी तरह प्रज्वलित होकर यजमान के कल्याण के लिये देवताओ का आवाहन करें और उनको लक्ष्य करके यज्ञ सम्पन्न करे अर्थात देवो के पोषण के लिये हविष्यान्न ग्रहण करें ॥१॥

१२४.मधुमन्तं तनूनपाद् यज्ञं देवेषु नः कवे । अद्या कृणुहि वीतये॥२॥
उर्ध्वगामी, मेधावी हे अग्निदेव ! हमारी रक्षा के लिये प्राणवर्धक-मधुर् हवियो को देवो के निमित्त प्राप्त करें और उन तक पहुँचायेँ ॥२॥

१२५.नराशंसमिह प्रियमस्मिन्यज्ञ उप ह्वये । मधुजिह्वं हविष्कृतम्॥३॥

हम इस यज्ञ मे देवताओ के प्रिय और् आह्लादक (मदुजिह्ल) अग्निदेव का आवाहन करते है। वह हमारी हवियो को देवताओं तक पहुँचाने वाले है, अस्तु , वे स्तुत्य हैं॥३॥

१२६.अग्ने सुखतमे रथे देवाँ ईळित आ वह । असि होता मनुर्हितः॥४॥
मानवमात्र के हितैषी हे अग्निदेव! आप अपने श्रेष्ठ-सुखदायी रथ से देवताओ को लेकर (यज्ञस्थल पर) पधारे। हम आपकी वन्दना करते है।

१२७.स्तृणीत बर्हिरानुषग्घृतपृष्ठं मनीषिणः । यत्रामृतस्य चक्षणम्॥५॥

हे मेधावी पुरुषो ! आप इस यज्ञ मे कुशा के आसनो को परस्पर मिलाकर इस तरह से बिछाये कि उस पर घृतपात्र को भली प्रकार से रखा जा सके, जिससे अमृततुल्य घृत का सम्यक् दर्शन हो सके॥५॥

१२८.वि श्रयन्तामृतावृधो द्वारो देवीरसश्चतः । अद्या नूनं च यष्टवे॥६॥

आज यज्ञ करने के लिये निश्चित रूप से ऋत(यज्ञीय वातावरण) की वृद्धि करने वाले अविनाशी दिव्यद्वार खुल जाएँ॥६॥

१२९.नक्तोषासा सुपेशसास्मिन्यज्ञ उप ह्वये । इदं नो बर्हिरासदे॥७॥

सुन्दर रूपवती रात्रि और उषा का हम इस यज्ञ मे आवाहन करते है। हमारी ओर से आसन रूप मे यह बर्हि (कुश) प्रस्तुत है॥७॥

१३०.ता सुजिह्वा उप ह्वये होतारा दैव्या कवी । यज्ञं नो यक्षतामिमम्॥८॥
उन उत्तम वचन वाले और मेधावी दोनो(अग्नियो) दिव्य होताओ को यज्ञ मे यजन के निमित्त हम बुलाते हैं॥८॥

१३१.इळा सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुवः । बर्हिः सीदन्त्वस्रिधः॥९॥
इळा सरस्वती और मही ये तीनो देवियाँ सुखकारी और क्षयरहित है! ये तीनो बिछे हुए दीप्तिमान कुश के आसनो पर विराजमान् हों॥९॥

१३२.इह त्वष्टारमग्रियं विश्वरूपमुप ह्वये । अस्माकमस्तु केवलः॥१०॥

प्रथम पूज्य, विविध रूप वाले त्वष्टादेव का इस यज्ञ मे आवाहन करते है, वे देव केवल हमारे ही हो॥१०॥

१३३.अव सृजा वनस्पते देव देवेभ्यो हविः । प्र दातुरस्तु चेतनम्॥११॥

हे वनस्पतिदेव! आप देवो के लिये नित्य हविष्यान्न प्रदान करने वाले दाता को प्राणरूप उत्साह प्रदान करें॥११॥

१३४.स्वाहा यज्ञं कृणोतनेन्द्राय यज्वनो गृहे । तत्र देवाँ उप ह्वये॥१२॥

(हे अध्वर्यु !) आप याजको के घर मे इन्द्रदेव की तुष्टी के लिये आहुतियाँ समर्पित करें। हम होता वहाँ देवो को आमन्त्रित करते है॥१२॥

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें