[ऋषि - कण्व धौर । देवता - ब्रह्मणस्पति । छन्द बाहर्त प्रगाध(विषमा बृहती, समासतो बृहती)।]
४८२.उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते देवयन्तस्त्वेमहे ।उप प्र यन्तु मरुतः सुदानव इन्द्र प्राशूर्भवा सचा ॥१॥
हे ब्रह्मणस्पते! आप उठें, देवो की कामना करने वाले हम आपकी स्तुति करते है। कल्याणकारी मरुद्गण हमारे पास आयें। हे इन्द्रदेव। आप ब्रह्मणस्पति के साथ मिलकर सोमपान करें॥१॥
४८३.त्वामिद्धि सहसस्पुत्र मर्त्य उपब्रूते धने हिते ।
सुवीर्यं मरुत आ स्वश्व्यं दधीत यो व आचके ॥२॥
साहसिक कार्यो के लिये समर्पित हे ब्रह्मणस्पते! युद्ध मे मनुष्य आपका आवाहन करतें है। हे मरुतो! जो धनार्थी मनुष्य ब्रह्मणस्पति सहित आपकी स्तुति करता है, वह उत्तम अश्वो के साथ श्रेष्ठ पराक्रम एवं वैभव से सम्पन्न हो॥२॥
४८४.प्रैतु ब्रह्मणस्पतिः प्र देव्येतु सूनृता ।
अच्छा वीरं नर्यं पङ्क्तिराधसं देवा यज्ञं नयन्तु नः ॥३॥
ब्रह्मणस्पति हमारे अनुकूल होकर यज्ञ मे आगमन करें। हमे सत्यरूप दिव्यवाणी प्राप्त हो। मनुष्यो के हितकरी देवगण हमारे यज्ञ मे पंक्तिबद्ध होकर अधिष्ठित हों तथा शत्रुओं का विनाश करें॥३॥
४८५.यो वाघते ददाति सूनरं वसु स धत्ते अक्षिति श्रवः ।
तस्मा इळां सुवीरामा यजामहे सुप्रतूर्तिमनेहसम् ॥४॥
जो यजमान ऋत्विजो को उत्तम धन देते है,वे अक्षय यश को पाते है, उनके निमित्त हम (ऋत्विग्गण) उत्तम पराक्रमी, शत्रु नाशक, अपराजेय, मातृभूमि की वन्दना करते हैं॥४॥
४८६.प्र नूनं ब्रह्मणस्पतिर्मन्त्रं वदत्युक्थ्यम् ।
यस्मिन्निन्द्रो वरुणो मित्रो अर्यमा देवा ओकांसि चक्रिरे ॥५॥
ब्रह्मणस्पति निश्चय ही स्तुति योग्य (उन) मंत्रो को विधि से उच्चारित कराते हैं, जिन मंत्रो मे इन्द्र, वरुण, मित्र और अर्यमा आदि देवगण निवास करते हैं॥५॥
४८७.तमिद्वोचेमा विदथेषु शम्भुवं मन्त्रं देवा अनेहसम् ।
इमां च वाचं प्रतिहर्यथा नरो विश्वेद्वामा वो अश्नवत् ॥६॥
हे नेतृत्व करने वालो! (देवताओ!) हम सुखप्रद, विघ्ननाशक मंत्र का यज्ञ मे उच्चारण करते है। हे नेतृत्व करने वाले देवो! यदि आप इस मन्त्र रूप वाणी की कामना करते हैं,(सम्मानपूर्वक अपनाते है) तो यह सभी सुन्दर स्तोत्र आपको निश्चय ही प्राप्त हों॥६॥
४८८.को देवयन्तमश्नवज्जनं को वृक्तबर्हिषम् ।
प्रप्र दाश्वान्पस्त्याभिरस्थितान्तर्वावत्क्षयं दधे ॥७॥
देवत्व की कामना करनेवालो के पास भला कौन आयेंगे?(ब्रह्मणस्पति आयेंगें।) कुश-आसन बिछाने वाले के पास कौन आयेंगे ? (ब्रह्मणस्पति आयेंगें।) आपके द्वारा हविदाता याजक अपनी संतानो, पशुओ आदि के निमित्त उत्तम घर का आश्रय पाते है॥७॥
४८९.उप क्षत्रं पृञ्चीत हन्ति राजभिर्भये चित्सुक्षितिं दधे ।
नास्य वर्ता न तरुता महाधने नार्भे अस्ति वज्रिणः ॥८॥
ब्रह्मणस्पतिदेव, क्षात्रबल की अभिवृद्धि कर राजाओ की सहायता से शत्रुओं को मारते है। भय के सम्मुख वे उत्तम धैर्य को धारण करते है। ये वज्रधारी बड़े युद्धो या छोटे युद्धो मे किसी से पराजित नही होते॥८॥
1 टिप्पणियाँ:
मुझे वेद व सत्यार्थ प्रकाश से बेहद लगाव है,
आपकी मेहनत सर आंखों पर,
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