ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ४५


[ऋषि- प्रस्कण्व काण्व । देवता - अग्नि, १० उत्तरार्ध- देवगण । छन्द अनुष्टुप् ]

५३२.त्वमग्ने वसूँरिह रुद्राँ आदित्याँ उत ।
यजा स्वध्वरं जनं मनुजातं घृतप्रुषम् ॥१॥
वसु रुद्र और आदित्य आदि देवताओं की प्रसन्नता के निमित्त यज्ञ करने वाले हे अग्निदेव! आप घृताहुति से श्रेष्ठ यज्ञ सम्पन्न करने वाले मनु संतानो का सत्कार करें॥१॥

५३३.श्रुष्टीवानो हि दाशुषे देवा अग्ने विचेतसः ।
तान्रोहिदश्व गिर्वणस्त्रयस्त्रिंशतमा वह ॥२॥
हे अग्निदेव! विशिष्ट ज्ञान सम्पन्न देवगण, हविदाता के लिए उत्तम सुख देते हैं। हे रोहित वर्ण अश्व वाके(अर्थात रक्तवर्ण की ज्वालाओं से सुशोभित) स्तुत्य अग्निदेव! उन तैंतीस कोटि देवों को यहाँ यज्ञस्थल पर लेकर आयें॥२॥

५३४.प्रियमेधवदत्रिवज्जातवेदो विरूपवत् ।
अङ्गिरस्वन्महिव्रत प्रस्कण्वस्य श्रुधी हवम् ॥३॥
हे श्रेष्ठकर्मा ज्ञान सम्पन्न अग्निदेव! जैसे आपने प्रियमेधा, अत्रि, विरूप और अंगिरा के आवाहनो को सुना था वैसे ही अब प्रस्कण्व के आवाहन को भी सुनें॥३॥

५३५.महिकेरव ऊतये प्रियमेधा अहूषत ।
राजन्तमध्वराणामग्निं शुक्रेण शोचिषा ॥४॥
दिव्य प्रकाश से युक्त अग्निदेव यज्ञ मे तेजस्वी रूप मे प्रदिप्त हुए। महान कर्मवाले प्रियमेधा ऋषियों ने अपनी रक्षा के निमित्त अग्निदेव का आवाहन किया॥४॥

५३६.घृताहवन सन्त्येमा उ षु श्रुधी गिरः ।
याभिः कण्वस्य सूनवो हवन्तेऽवसे त्वा ॥५॥
घृत आहुति भक्षक हे अग्निदेव! कण्व के वंशज, अपनी रक्षा के लिए जो स्तुतियाँ करते है, उन्ही स्तुतियों को आप सम्यक रूप से सुने॥।५॥

५३७.त्वां चित्रश्रवस्तम हवन्ते विक्षु जन्तवः ।
शोचिष्केशं पुरुप्रियाग्ने हव्याय वोळ्हवे ॥६॥
प्रेमपूर्वक हविष्य को ग्रहण करने वाले हे यशस्वी अग्निदेव! आप आश्चर्यजनक वैभव से सम्पन्न हैं। सम्पूर्ण मनुष्य एवं ऋत्विग्गण यज्ञ सम्पादन के निमित्त आपका आवाहन करते हुए हवि समर्पित करते हैं॥६॥

५३८.नि त्वा होतारमृत्विजं दधिरे वसुवित्तमम् ।
श्रुत्कर्णं सप्रथस्तमं विप्रा अग्ने दिविष्टिषु ॥७॥
हे अग्निदेव! होता रूप,ऋत्विजरूप, धन को धारण करने वाले स्तुति सुनने वाले, महान यशस्वी आपको विद्वज्जन स्वर्ग की कामना से यज्ञा मे स्थापित करते हैं॥७॥

५३९.आ त्वा विप्रा अचुच्यवुः सुतसोमा अभि प्रयः ।
बृहद्भा बिभ्रतो हविरग्ने मर्ताय दाशुषे ॥८॥
हे अग्निदेव! हविष्यान्न और सोम को तैयार रखने वाले विद्वान, दानशील याजक के लिये महान तेजस्वी आपको स्थापित करते है॥८॥

५४०.प्रातर्याव्णः सहस्कृत सोमपेयाय सन्त्य ।
इहाद्य दैव्यं जनं बर्हिरा सादया वसो ॥९॥
हे बल उत्पादक अग्निदेव! आप धनो के स्वामी और दानशील हैं। आज प्रातःकाल सोमपान के निमित्त यहाँ यज्ञस्थल पर आने को उद्यत देवो को बुलाकर कुश के आसनो पर बिठायें॥९॥

५४१.अर्वाञ्चं दैव्यं जनमग्ने यक्ष्व सहूतिभिः ।
अयं सोमः सुदानवस्तं पात तिरोअह्न्यम् ॥१०॥
हे अग्निदेव! यज्ञ के सम्क्ष प्रत्यक्ष उपस्थित देवगणो का उत्तम वचनो से अभिवादन कर यजन करें। हे श्रेष्ठ देवो! यह सोम आपके लिए प्रस्तुत है, इसका पान करें॥१०॥

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