ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ४९


[ऋषि- प्रस्कण्व काण्व । देवता - उषा । छन्द - अनुष्टुप् ]
५८३.उषो भद्रेभिरा गहि दिवश्चिद्रोचनादधि ।
वहन्त्वरुणप्सव उप त्वा सोमिनो गृहम् ॥१॥
हे देवी उषे! द्युलोक के दीप्तिमान स्थान से कल्याणकारी मार्गो द्वारा आप यहाँ आयें। अरुणिम वर्ण के अश्व आपको सोमयाग करनेवाले के घर पहुँचाएँ॥१॥

५८४.सुपेशसं सुखं रथं यमध्यस्था उषस्त्वम् ।
तेना सुश्रवसं जनं प्रावाद्य दुहितर्दिवः ॥२॥
हे आकाशपुत्री उषे ! आप जिस सुन्दर सुखप्रद रथ पर आरूढ़ है, उसी रथ से उत्तम हवि देने वाले याजक की सब प्रकार से रक्षा करें॥२॥

५८५.वयश्चित्ते पतत्रिणो द्विपच्चतुष्पदर्जुनि ।
उषः प्रारन्नृतूँरनु दिवो अन्तेभ्यस्परि ॥३॥
हे देदीप्यमान उषादेवि! आपके आकाशमण्डल पर उदित होने के बाद मानव पशु एवं पक्षी अन्तरिक्ष मे दूर दूर तक स्वेच्छानुसार विचरण करते हुए दिखायी देते हैं॥३॥

५८६.व्युच्छन्ती हि रश्मिभिर्विश्वमाभासि रोचनम् ।
तां त्वामुषर्वसूयवो गीर्भिः कण्वा अहूषत ॥४॥
हे उषादेवी ! उदित होते हुए आप अपनी किरणो से सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित करती हैं। धन की कामना वाले कण्व वंशज आपका आवाहन करते हैं॥४॥

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें