ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ५०


[ऋषि- प्रस्कण्व काण्व । देवता - सूर्य (११-१३ रोगघ्न उपनिषद)। छन्द - गायत्री, १०-१३ अनुष्टुप् ]

५८७.उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः ।
दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥१॥
ये ज्योतिर्मयी रश्मियाँ सम्पूर्ण प्राणियो के ज्ञाता सूर्यदेव को एवं समस्त विश्व को दृष्टि प्रदान करने के लिए विशेष रूप से प्रकाशित होती हैं॥१॥

५८८.अप त्ये तायवो यथा नक्षत्रा यन्त्यक्तुभिः ।
सूराय विश्वचक्षसे ॥२॥
सबको प्रकाश देने वाले सूर्यदेव के उदित होते ही रात्रि के साथ तारा मण्डल वैसे ही छिप जाते है, जैसे चोर छिप जाते है॥२॥

५८९.अदृश्रमस्य केतवो वि रश्मयो जनाँ अनु ।
भ्राजन्तो अग्नयो यथा ॥३॥
प्रज्वलित हुई अग्नि की किरणों के समान सूर्यदेव की प्रकाश रश्मियाँ सम्पूर्ण जीव-जगत को प्रकाशित करती हैं॥३॥

५९०.तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य ।
विश्वमा भासि रोचनम् ॥४॥
हे सूर्यदेव ! आप साधको का उद्धार करने वाले हैं, समस्त संसार मे एक मात्र दर्शनीय प्रकाशक है तथा आप ही विस्तृत अंतरिक्ष को सभी ओर से प्रकाशित करते हैं॥४॥

५९१.प्रत्यङ्देवानां विशः प्रत्यङ्ङुदेषि मानुषान् ।
प्रत्यङ्विश्वं स्वर्दृशे ॥५॥
हे सूर्यदेव ! मरुद्गणो, देवगणो, मनुष्यो और स्वर्गलोक वासियों के सामने आप नियमित रूप से उदित होते हैं, ताकि तीन लोको के निवासी आपका दर्शन कर सकें॥५॥

५९२.येना पावक चक्षसा भुरण्यन्तं जनाँ अनु ।
त्वं वरुण पश्यसि ॥६॥
जिस दृष्टि अर्थात प्रकाश से आप प्राणियों को धारण-पोषण करने वाले इस लोक को प्रकाशित करते हैं, हम उस प्रकाश की स्तुति करतें हैं॥६॥

५९३.वि द्यामेषि रजस्पृथ्वहा मिमानो अक्तुभिः ।
पश्यञ्जन्मानि सूर्य ॥७॥
हे सूर्यदेव ! आप दिन एवं रात मे समय को विभाजित करते हुए अन्तरिक्ष एवं द्युलोक मे भ्रमण करते है, जिसमे सभी प्राणियों को लाभ प्राप्त होता है॥७॥

५९४.सप्त त्वा हरितो रथे वहन्ति देव सूर्य ।
शोचिष्केशं विचक्षण ॥८॥
हे सर्वद्रष्टा सूर्यदेव! आप तेजस्वी ज्वालाओ से युक्त दिव्यता को धारण करते हुए सप्तवर्णी किरणो रूपी अश्वो के रथ मे सुशोभित होते हैं॥८॥

५९५.अयुक्त सप्त शुन्ध्युवः सूरो रथस्य नप्त्यः ।
ताभिर्याति स्वयुक्तिभिः ॥९॥
पवित्रता प्रदान करने वाले ज्ञान सम्पन्न ऊधर्वगामी सूर्यदेव अपने सप्तवर्णी अश्वो से(किरणो से) सुशोभित रथ मे शोभायमान होते हैं॥९॥

५९६.उद्वयं तमसस्परि ज्योतिष्पश्यन्त उत्तरम् ।
देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम् ॥१०॥
तमिस्त्रा से दूर श्रेष्ठतम ज्योति को देखते हुए हम ज्योति स्वरूप और देवो मे उत्कृष्ठतम ज्योति(सूर्य) को प्राप्त हों॥१०॥

५९७.उद्यन्नद्य मित्रमह आरोहन्नुत्तरां दिवम् ।
हृद्रोगं मम सूर्य हरिमाणं च नाशय ॥११॥
हे मित्रो के मित्र सूर्यदेव! आप उदित होकर आकाश मे उठते हुए हृदयरोग, शरीर की कान्ति का हरण करने वाले रोगों को नष्ट करें॥११॥

५९८.शुकेषु मे हरिमाणं रोपणाकासु दध्मसि ।
अथो हारिद्रवेषु मे हरिमाणं नि दध्मसि ॥१२॥
हम अपने हरिमाण(शरीर को क्षीण करने वाले रोग) को शुको(तोतों), रोपणाका(वृक्षों) एवं हरिद्रवो (हरी वनस्पतियों) मे स्थापित करते हैं॥१२॥

५९९.उदगादयमादित्यो विश्वेन सहसा सह ।
द्विषन्तं मह्यं रन्धयन्मो अहं द्विषते रधम् ॥१३॥
हे सूर्यदेव अपने सम्पूर्ण तेजों से उदित होकर हमारे सभी रोगो को वशवर्ती करें। हम उन रोगो के वश मे कभी न आयें॥१३॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ४९


[ऋषि- प्रस्कण्व काण्व । देवता - उषा । छन्द - अनुष्टुप् ]
५८३.उषो भद्रेभिरा गहि दिवश्चिद्रोचनादधि ।
वहन्त्वरुणप्सव उप त्वा सोमिनो गृहम् ॥१॥
हे देवी उषे! द्युलोक के दीप्तिमान स्थान से कल्याणकारी मार्गो द्वारा आप यहाँ आयें। अरुणिम वर्ण के अश्व आपको सोमयाग करनेवाले के घर पहुँचाएँ॥१॥

५८४.सुपेशसं सुखं रथं यमध्यस्था उषस्त्वम् ।
तेना सुश्रवसं जनं प्रावाद्य दुहितर्दिवः ॥२॥
हे आकाशपुत्री उषे ! आप जिस सुन्दर सुखप्रद रथ पर आरूढ़ है, उसी रथ से उत्तम हवि देने वाले याजक की सब प्रकार से रक्षा करें॥२॥

५८५.वयश्चित्ते पतत्रिणो द्विपच्चतुष्पदर्जुनि ।
उषः प्रारन्नृतूँरनु दिवो अन्तेभ्यस्परि ॥३॥
हे देदीप्यमान उषादेवि! आपके आकाशमण्डल पर उदित होने के बाद मानव पशु एवं पक्षी अन्तरिक्ष मे दूर दूर तक स्वेच्छानुसार विचरण करते हुए दिखायी देते हैं॥३॥

५८६.व्युच्छन्ती हि रश्मिभिर्विश्वमाभासि रोचनम् ।
तां त्वामुषर्वसूयवो गीर्भिः कण्वा अहूषत ॥४॥
हे उषादेवी ! उदित होते हुए आप अपनी किरणो से सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित करती हैं। धन की कामना वाले कण्व वंशज आपका आवाहन करते हैं॥४॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ४८


[ऋषि - प्रस्कण्व काण्व । देवता - उषा। छन्द -  बाहर्त प्रगाथ (विषमा बृहती, समासतो बृहती)।]

५६७.सह वामेन न उषो व्युच्छा दुहितर्दिवः ।
सह द्युम्नेन बृहता विभावरि राया देवि दास्वती ॥१॥
हे आकाशपुत्री उषे! उत्तम तेजस्वी,दान देने वाली, धनो और महान ऐश्वर्यों से युक्त होकर आप हमारे सम्मुख प्रकट हों, अर्थात हमे आपका अनुदान- अनुग्रह होता रहे॥१॥

५६८.अश्वावतीर्गोमतीर्विश्वसुविदो भूरि च्यवन्त वस्तवे ।
उदीरय प्रति मा सूनृता उषश्चोद राधो मघोनाम् ॥२॥
अश्व, गौ आदि (पशुओं अथवा संचारित होने वाली एवं पोषक किरणों) से सम्पन्न धन्य धान्यों को प्रदान करने वाली उषाएँ प्राणिमात्र के कल्याण के लिए प्रकाशित हुई हैं। हे उषे! कल्याणकारी वचनो के साथ आप हमारे लिए उपयुक्त धन वैभव प्रदान करें॥२॥

५६९.उवासोषा उच्छाच्च नु देवी जीरा रथानाम् ।
ये अस्या आचरणेषु दध्रिरे समुद्रे न श्रवस्यवः ॥३॥
जो देवी उषा पहले भी निवास कर चुकी हैं, वह रथो को चलाती हुई अब भी प्रकट हो। जैसे रत्नो की कामना वाले मनुष्य समुद्र की ओर मन लगाये रहते हैं; वैसे ही हम देवी उषा के आगमन की प्रतिक्षा करते हैं॥३॥

५७०.उषो ये ते प्र यामेषु युञ्जते मनो दानाय सूरयः ।
अत्राह तत्कण्व एषां कण्वतमो नाम गृणाति नृणाम् ॥४॥
हे उषे! आपके आने के समय जो स्तोता अपना मन, धनादि दान करने मे लगाते है, उसी समय अत्यन्त मेधावी कण्व उन मनुष्यों के प्रशंसात्मक स्तोत्र गाते हैं॥४॥

५७१.आ घा योषेव सूनर्युषा याति प्रभुञ्जती ।
जरयन्ती वृजनं पद्वदीयत उत्पातयति पक्षिणः ॥५॥
उत्तम गृहिणी स्त्री के समान सभी का भलीप्रकार पालन करने वाली देवी उषा जब आयी है, तो निर्बलो को शक्तिशाली बना देती हैं, पाँव वाले जीवो को कर्म करने के लिए प्रेरित करती है और पक्षियों को सक्रिय होने की प्रेरणा देती है॥५॥


५७२.वि या सृजति समनं व्यर्थिनः पदं न वेत्योदती ।
वयो नकिष्टे पप्तिवांस आसते व्युष्टौ वाजिनीवति ॥६॥
देवी उषा सबके मन को कर्म करने के लिए प्रेरित करती हैं तथा धन इच्छुको को पुरुषार्थ के लिए भी प्रेरणा देती है। ये जीवन दात्री देवी उषा निरन्तर गतिशील रहती हैं। हे अन्नदात्री उषे! आपके प्रकाशित होने पर पक्षी अपने घोसलों मे बैठे नही रहते॥६॥

५७३.एषायुक्त परावतः सूर्यस्योदयनादधि ।
शतं रथेभिः सुभगोषा इयं वि यात्यभि मानुषान् ॥७॥
हे देवी उषा सूर्य के उदयस्थान से दूरस्थ देशो को भी जोड़ देती हैं। ये सौभाग्यशालिनी देवी उषा मनुष्य लोक की ओर सैंकड़ो रथो द्वारा गमन करती हैं॥७॥

५७४.विश्वमस्या नानाम चक्षसे जगज्ज्योतिष्कृणोति सूनरी ।
अप द्वेषो मघोनी दुहिता दिव उषा उच्छदप स्रिधः ॥८॥
सम्पूर्ण जगत इन देवी उषा के दर्शन करके झुककर उन्हे नमन करता है। प्रकाशिका, उत्तम मार्गदर्शिका, ऐश्वर्य सम्पन्न आकाश पुत्री देवी उषा, पीड़ा पहुँचाने वाले हमारे बैरियों को दूर हटाती हैं॥८॥

५७५.उष आ भाहि भानुना चन्द्रेण दुहितर्दिवः ।
आवहन्ती भूर्यस्मभ्यं सौभगं व्युच्छन्ती दिविष्टिषु ॥९॥
हे आकाशपुत्री उषे! आप आह्लादप्रद दीप्ती से सर्वत्र प्रकाशित हों। हमारे इच्छित स्वर्ग-सुख युक्त उत्त्म सौभाग्य को ले आयें और दुर्भाग्य रूपी तमिस्त्रा को दूर करें॥९॥

५७६.विश्वस्य हि प्राणनं जीवनं त्वे वि यदुच्छसि सूनरि ।
सा नो रथेन बृहता विभावरि श्रुधि चित्रामघे हवम् ॥१०॥
हे सुमार्ग प्रेरक उषे! उदित होने पर आप ही विश्व के प्राणियो का जीवन आधार बनती हैं। विलक्षण धन वाली, कान्तिमती हे उषे! आप अपने बृहत रथ से आकर हमारा आवाह्न सुनें॥१०॥

५७७.उषो वाजं हि वंस्व यश्चित्रो मानुषे जने ।
तेना वह सुकृतो अध्वराँ उप ये त्वा गृणन्ति वह्नयः ॥११॥
हे उषादेवि! मनुष्यो के लिये विविध अन्न-साधनो की वृद्धि करें। जो याजक आपकी स्तुतियाँ करते है, उनके इन उत्तम कर्मो से संतुष्ट होकर उन्हें यज्ञीय कर्मो की ओर प्रेरित करें॥११॥

५७८.विश्वान्देवाँ आ वह सोमपीतयेऽन्तरिक्षादुषस्त्वम् ।
सास्मासु धा गोमदश्वावदुक्थ्यमुषो वाजं सुवीर्यम् ॥१२॥
हे उषे! सोमपान के लिए अंतरिक्ष से सब देवों को यहाँ ले आयें। आप हमे अश्वों, गौओ से युक्त धन और पुष्टिप्रद अन्न प्रदान करें॥१२॥

५७९.यस्या रुशन्तो अर्चयः प्रति भद्रा अदृक्षत ।
सा नो रयिं विश्ववारं सुपेशसमुषा ददातु सुग्म्यम् ॥१३॥
जिन देवी उषा की दीप्तीमान किरणे मंगलकारी प्रतिलक्षित होती हैं, वे देवी उषा हम सबके लिए वरणीय, श्रेष्ठ, सुखप्रद धनो को प्राप्त करायें॥१३॥

५८०.ये चिद्धि त्वामृषयः पूर्व ऊतये जुहूरेऽवसे महि ।
सा न स्तोमाँ अभि गृणीहि राधसोषः शुक्रेण शोचिषा ॥१४॥
हे श्रेष्ठ उषादेवि! प्राचीन ऋषि आपको अन्न और संरक्षण प्राप्ति के लिये बुलाते थे। आप यश और तेजस्विता से युक्त होकर हमारे स्तोत्रो को स्वीकार करें॥१४॥

५८१.उषो यदद्य भानुना वि द्वारावृणवो दिवः ।
प्र नो यच्छतादवृकं पृथु च्छर्दिः प्र देवि गोमतीरिषः ॥१५॥
हे देवी उषे! आपने अपने प्रकाश से आकाश के दोनो द्वारों को खोल दिया है। अब आप हमे हिंसको से रक्षित, विशाल आवास और दुग्धादि युक्त अन्नो को प्रदान करें॥१५॥

५८२.सं नो राया बृहता विश्वपेशसा मिमिक्ष्वा समिळाभिरा ।
सं द्युम्नेन विश्वतुरोषो महि सं वाजैर्वाजिनीवति ॥१६॥
हे देवी उषे! आप हमें सम्पूर्ण पुष्टिप्रद महान धनो से युक्त करें, गौओं से युक्त करें। अन्न प्रदान करने वाली, श्रेष्ठ हे देवी उषे! आप हमे शत्रुओं का संहार करने वाला बल देकर अन्नो से संयुक्त करें॥१६॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ४७


[ऋषि- प्रस्कण्व काण्व । देवता - अश्‍विनीकुमार । छन्द - बाहर्त प्रगाथ (विषमा बृहती, समासतो बृहती)।]

५५७.अयं वां मधुमत्तमः सुतः सोम ऋतावृधा ।
तमश्विना पिबतं तिरोअह्न्यं धत्तं रत्नानि दाशुषे ॥१॥
हे यज्ञ कर्म का विस्तार करने वाले अश्‍विनीकुमारो ! अपने इस यज्ञ मे अत्यन्त मधुर तथा एक दिन पूर्व शोधित सोमरस का आप सेवन करें । यज्ञकर्ता यजमान को रत्न एवं ऐश्वर्य प्रदान करें॥१॥

५५८.त्रिवन्धुरेण त्रिवृता सुपेशसा रथेना यातमश्विना ।
कण्वासो वां ब्रह्म कृण्वन्त्यध्वरे तेषां सु शृणुतं हवम् ॥२॥
हे अश्‍विनीकुमारो ! तीन वृत्त युक्त(त्रिकोण), तीन अवलम्बन वाले अति सुशोभित रथ से यहाँ आयें। यज्ञ मे कण्व वंशज आप दोनो के लिए मंत्र युक्त स्तुतियाँ करते हैं, उनके आवाहन को सुनें॥२॥

५५९.अश्विना मधुमत्तमं पातं सोममृतावृधा ।
अथाद्य दस्रा वसु बिभ्रता रथे दाश्वांसमुप गच्छतम् ॥३॥
हे शत्रुनाशक, यज्ञ वर्द्धक अश्‍विनीकुमारो ! अत्यन्त मीठे सोमरस का पान करें। आज रथ मे धनो को धारण कर हविदाता यजमान के समीप आयें॥३॥

५६०.त्रिषधस्थे बर्हिषि विश्ववेदसा मध्वा यज्ञं मिमिक्षतम् ।
कण्वासो वां सुतसोमा अभिद्यवो युवां हवन्ते अश्विना ॥४॥
हे सर्वज्ञ अश्‍विनीकुमारो ! तीन स्थानो पर रखे हुए कुश-आसन पर अधिष्ठित होकर आप यज्ञ का सिंचन करें। स्वर्ग की कामना वाले कण्व वंशज सोम को अभिषुत कर आप दोनो को बुलातें हैं॥४॥

५६१.याभिः कण्वमभिष्टिभिः प्रावतं युवमश्विना ।
ताभिः ष्वस्माँ अवतं शुभस्पती पातं सोममृतावृधा ॥५॥
यज्ञ को बढ़ाने वाले शुभ कर्मो के पोषक हे अश्‍विनीकुमारो ! आप दोनो ने जिन इच्छित रक्षण-साधनो से कण्व की भली प्रकार रक्षा की, उन साधनो से हमारी भी भली प्रकार रक्षा करें और प्रस्तुत सोम रस का पान करें॥५॥

५६२.सुदासे दस्रा वसु बिभ्रता रथे पृक्षो वहतमश्विना ।
रयिं समुद्रादुत वा दिवस्पर्यस्मे धत्तं पुरुस्पृहम् ॥६॥
शत्रुओं के लिए उग्ररूप धारण करने वाले हे अश्‍विनीकुमारो !रथ मे धनो को धारण कर आपने सुदास को अन्न पहुँचाया। उसी प्रकार अन्तरिक्ष या सागरों से लाकर बहुतो द्वारा वाञ्छित धन हमारे लिए प्रदान करें॥६॥

५६३.यन्नासत्या परावति यद्वा स्थो अधि तुर्वशे ।
अतो रथेन सुवृता न आ गतं साकं सूर्यस्य रश्मिभिः ॥७॥
हे सत्य समर्थक अश्‍विनीकुमारो ! आप दूर हो या पास हों, वहाँ से उत्तम गतिमान रथ से सूर्य रश्मियों के साथ हमारे पास आयें॥७॥

५६४.अर्वाञ्चा वां सप्तयोऽध्वरश्रियो वहन्तु सवनेदुप ।
इषं पृञ्चन्ता सुकृते सुदानव आ बर्हिः सीदतं नरा ॥८॥
हे देवपुरुषो अश्‍विनीकुमारो ! यज्ञ की शोभा बढ़ाने वाले आपके अश्व आप दोनो को सोमयाग के समीप ले आयें। उत्तम कर्म करनेवाले और दान देने वाले याजको के लिये अन्नो की पूर्ति करते हुए आप दोनो कुश के आसनो पर बैठें॥८॥

५६५.तेन नासत्या गतं रथेन सूर्यत्वचा ।
येन शश्वदूहथुर्दाशुषे वसु मध्वः सोमस्य पीतये ॥९॥
हे सत्य समर्थक अश्‍विनीकुमारो ! सूर्य सदृश तेजस्वी जिस रथ से दाता याजको के लिए सदैव धन लाकर देते रहे हैं, उसी रथ से आप मीठे सोमरस पान के लिएं पधारें ॥९॥

५६६.उक्थेभिरर्वागवसे पुरूवसू अर्कैश्च नि ह्वयामहे ।
शश्वत्कण्वानां सदसि प्रिये हि कं सोमं पपथुरश्विना ॥१०॥
हे विपुल धन वाले अश्‍विनीकुमारो ! अपनी रक्षा के निमित्त हम स्तोत्रो और पूजा-अर्चनाओं से बार बार आपका आवाहन करते है। कण्व वंशको की यज्ञ सभा मे आप सर्वदा सोमपान करते रहे हैं॥१०॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ४६


[ऋषि- प्रस्कण्व काण्व । देवता - अश्‍विनीकुमार । छन्द - गायत्री]

५४२.एषो उषा अपूर्व्या व्युच्छति प्रिया दिवः ।
स्तुषे वामश्विना बृहत् ॥१॥
यह प्रिय अपूर्व(अलौकिक) देवी उषा आकाश के तम का नाश करती है। देवी उषा के कार्य मे सहयोगी हे अश्‍विनीकुमारो ! हम महान स्तोत्रो द्वारा आपकी स्तुति करते हैं॥१॥

५४३.या दस्रा सिन्धुमातरा मनोतरा रयीणाम् ।
धिया देवा वसुविदा ॥२॥
हे अश्‍विनीकुमारो! आप शत्रुओं के नाशक एवं नदियों के उत्पत्तिकर्ता है। आप विवेकपूर्वक कर्म करने वालो को अपार सम्पति देने वाले हैं॥२॥

५४४.वच्यन्ते वां ककुहासो जूर्णायामधि विष्टपि ।
यद्वां रथो विभिष्पतात् ॥३॥
हे अश्‍विनीकुमारो ! जब आपका रथ पक्षियों की तरह आकाश मे पहुँचता है, तब प्रशसनीय स्वर्गलोक मे भी आप के लिये स्तोत्रों का पाठ किया जाता है॥३॥

५४५.हविषा जारो अपां पिपर्ति पपुरिर्नरा ।
पिता कुटस्य चर्षणिः ॥४॥
हे देवपुरुषो ! जलों को सुखाने वाले, पितारूप, कार्यद्रष्टा सूर्यदेव (हमारे द्वारा प्रदत्त) हवि से आपको संतुष्ट करते हैं,अर्थात सूर्यदेव प्राणिमात्र ले पोषण ले लिए अन्नादि पदार्थ उत्पन्न करके प्रकृति के विराट यज्ञ मे आहुति दे रहे हैं॥४॥

५४६.आदारो वां मतीनां नासत्या मतवचसा ।
पातं सोमस्य धृष्णुया ॥५॥
असत्यहीन, मननपूर्वक वचन बोलने वाले हे अश्‍विनीकुमारों ! आप अपनी बुद्धि को प्रेरित करने वाले एवं संघर्ष शक्ति बढ़ाने वाले इस सोमरस का पान करें॥५॥

५४७.या नः पीपरदश्विना ज्योतिष्मती तमस्तिरः ।
तामस्मे रासाथामिषम् ॥६॥
हे अश्‍विनीकुमारों ! जो पोषक अन्न हमारे जीवन के अंधकार को दूर कर प्रकाशित करने वाला हो, वह हमे प्रदान करें॥६॥

५४८.आ नो नावा मतीनां यातं पाराय गन्तवे ।
युञ्जाथामश्विना रथम् ॥७॥
हे अश्‍विनीकुमारों ! आप दोनो अपना रथ नियोजितकर हमारे पास आयें। अपनी श्रेष्ठ बुद्धि से हमे दुःखो के सागर से पार ले चलें॥७॥

५४९.अरित्रं वां दिवस्पृथु तीर्थे सिन्धूनां रथः ।
धिया युयुज्र इन्दवः ॥८॥
हे अश्‍विनीकुमारों ! आपके आवागमन के साधन द्युलोक (की सीमा) से भी विस्तृत हैं। (तीनो लोकों मे आपकी गति है।) नदियों, तीर्थ प्रदेशो मे भी आपके साधन है,(पृथ्वी पर भी) आपके लिये रथ तैयार है। (आप किसी भी साधन से पहुँचने मे समर्थ हैं।) आप के लिये यहाँ विचारयुक्त कर्म द्वारा सोमरस तैयार किया गया है॥८॥

५५०.दिवस्कण्वास इन्दवो वसु सिन्धूनां पदे ।
स्वं वव्रिं कुह धित्सथः ॥९॥
कण्व वंशजो द्वारा तैयार सोम दिव्यता से परिपूर्ण है। नदियो के तट पर ऐश्वर्य रखा है। हे अश्‍विनीकुमारो ! अब आप अपना स्वरूप कहाँ प्रदर्शित करना चाहते हैं?॥९॥

५५१.अभूदु भा उ अंशवे हिरण्यं प्रति सूर्यः ।
व्यख्यज्जिह्वयासितः ॥१०॥
अमृतमयी किरणो वाले हे सूर्यदेव! अपनी आभा से स्वर्णतुल्य प्रकट हो रहे हैं। इसी समय श्यामल अग्निदेव, ज्वालारूप जिह्वा से विशेष प्रकाशित हो चुके हैं। हे अश्‍विनीकुमारो ! यही आपके शुभागमन का समय है॥१०॥

५५२.अभूदु पारमेतवे पन्था ऋतस्य साधुया ।
अदर्शि वि स्रुतिर्दिवः ॥११॥
द्युलोक से अंधकार को पार करती हुई, विशिष्ट प्रभा प्रकट होने लगी है, जिससे यज्ञ के मार्ग अच्छी तरह से प्रकाशित हुए हैं। अतः हे अश्‍विनीकुमारो ! आपको आना चाहिये॥११॥

५५३.तत्तदिदश्विनोरवो जरिता प्रति भूषति ।
मदे सोमस्य पिप्रतोः ॥१२॥
सोम के हर्ष से पूर्ण होने वाले अश्‍विनीकुमारो के उत्तम संरक्षण का स्तोतागण भली प्रकार वर्णन करते हैं॥१२॥

५५४.वावसाना विवस्वति सोमस्य पीत्या गिरा ।
मनुष्वच्छम्भू आ गतम् ॥१३॥
हे दीप्तीमान(यजमानो के) मन मे निवास करने वाले, सुखदायक अश्‍विनीकुमारो ! मनु के समान श्रेष्ठ परिचर्या करने वाले यजमान के समीप निवास करने वाले(सुखप्रदान करने वाले हे अश्‍विनीकुमारो !) आप दोनो सोमपान के निमित्त एवं स्तुतियों के निमित्त इस याग मे पधारें॥१३॥

५५५.युवोरुषा अनु श्रियं परिज्मनोरुपाचरत् ।
ऋता वनथो अक्तुभिः ॥१४॥
हे अश्‍विनीकुमारों ! चारो ओर गमन करने वाले आप दोनो की शोभा के पीछे पीछे देवी उषा अनुगमन कर रहीं हैं। आप रात्रि मे भी यज्ञों का सेवन करतें है॥१४॥

५५६.उभा पिबतमश्विनोभा नः शर्म यच्छतम् ।
अविद्रियाभिरूतिभिः ॥१५॥
हे अश्‍विनीकुमारो ! आप दोनो सोमरस का पान करें। आलस्य न करते हुये हमारी रक्षा करें तथा हमे सुख प्रदान करें॥१५॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ४५


[ऋषि- प्रस्कण्व काण्व । देवता - अग्नि, १० उत्तरार्ध- देवगण । छन्द अनुष्टुप् ]

५३२.त्वमग्ने वसूँरिह रुद्राँ आदित्याँ उत ।
यजा स्वध्वरं जनं मनुजातं घृतप्रुषम् ॥१॥
वसु रुद्र और आदित्य आदि देवताओं की प्रसन्नता के निमित्त यज्ञ करने वाले हे अग्निदेव! आप घृताहुति से श्रेष्ठ यज्ञ सम्पन्न करने वाले मनु संतानो का सत्कार करें॥१॥

५३३.श्रुष्टीवानो हि दाशुषे देवा अग्ने विचेतसः ।
तान्रोहिदश्व गिर्वणस्त्रयस्त्रिंशतमा वह ॥२॥
हे अग्निदेव! विशिष्ट ज्ञान सम्पन्न देवगण, हविदाता के लिए उत्तम सुख देते हैं। हे रोहित वर्ण अश्व वाके(अर्थात रक्तवर्ण की ज्वालाओं से सुशोभित) स्तुत्य अग्निदेव! उन तैंतीस कोटि देवों को यहाँ यज्ञस्थल पर लेकर आयें॥२॥

५३४.प्रियमेधवदत्रिवज्जातवेदो विरूपवत् ।
अङ्गिरस्वन्महिव्रत प्रस्कण्वस्य श्रुधी हवम् ॥३॥
हे श्रेष्ठकर्मा ज्ञान सम्पन्न अग्निदेव! जैसे आपने प्रियमेधा, अत्रि, विरूप और अंगिरा के आवाहनो को सुना था वैसे ही अब प्रस्कण्व के आवाहन को भी सुनें॥३॥

५३५.महिकेरव ऊतये प्रियमेधा अहूषत ।
राजन्तमध्वराणामग्निं शुक्रेण शोचिषा ॥४॥
दिव्य प्रकाश से युक्त अग्निदेव यज्ञ मे तेजस्वी रूप मे प्रदिप्त हुए। महान कर्मवाले प्रियमेधा ऋषियों ने अपनी रक्षा के निमित्त अग्निदेव का आवाहन किया॥४॥

५३६.घृताहवन सन्त्येमा उ षु श्रुधी गिरः ।
याभिः कण्वस्य सूनवो हवन्तेऽवसे त्वा ॥५॥
घृत आहुति भक्षक हे अग्निदेव! कण्व के वंशज, अपनी रक्षा के लिए जो स्तुतियाँ करते है, उन्ही स्तुतियों को आप सम्यक रूप से सुने॥।५॥

५३७.त्वां चित्रश्रवस्तम हवन्ते विक्षु जन्तवः ।
शोचिष्केशं पुरुप्रियाग्ने हव्याय वोळ्हवे ॥६॥
प्रेमपूर्वक हविष्य को ग्रहण करने वाले हे यशस्वी अग्निदेव! आप आश्चर्यजनक वैभव से सम्पन्न हैं। सम्पूर्ण मनुष्य एवं ऋत्विग्गण यज्ञ सम्पादन के निमित्त आपका आवाहन करते हुए हवि समर्पित करते हैं॥६॥

५३८.नि त्वा होतारमृत्विजं दधिरे वसुवित्तमम् ।
श्रुत्कर्णं सप्रथस्तमं विप्रा अग्ने दिविष्टिषु ॥७॥
हे अग्निदेव! होता रूप,ऋत्विजरूप, धन को धारण करने वाले स्तुति सुनने वाले, महान यशस्वी आपको विद्वज्जन स्वर्ग की कामना से यज्ञा मे स्थापित करते हैं॥७॥

५३९.आ त्वा विप्रा अचुच्यवुः सुतसोमा अभि प्रयः ।
बृहद्भा बिभ्रतो हविरग्ने मर्ताय दाशुषे ॥८॥
हे अग्निदेव! हविष्यान्न और सोम को तैयार रखने वाले विद्वान, दानशील याजक के लिये महान तेजस्वी आपको स्थापित करते है॥८॥

५४०.प्रातर्याव्णः सहस्कृत सोमपेयाय सन्त्य ।
इहाद्य दैव्यं जनं बर्हिरा सादया वसो ॥९॥
हे बल उत्पादक अग्निदेव! आप धनो के स्वामी और दानशील हैं। आज प्रातःकाल सोमपान के निमित्त यहाँ यज्ञस्थल पर आने को उद्यत देवो को बुलाकर कुश के आसनो पर बिठायें॥९॥

५४१.अर्वाञ्चं दैव्यं जनमग्ने यक्ष्व सहूतिभिः ।
अयं सोमः सुदानवस्तं पात तिरोअह्न्यम् ॥१०॥
हे अग्निदेव! यज्ञ के सम्क्ष प्रत्यक्ष उपस्थित देवगणो का उत्तम वचनो से अभिवादन कर यजन करें। हे श्रेष्ठ देवो! यह सोम आपके लिए प्रस्तुत है, इसका पान करें॥१०॥

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ४४


[ऋषि - प्रस्कण्व काण्व। देवता - अग्नि, १-२ अग्नि,अश्‍विनीकुमार, उषा। छन्द बाहर्त प्रगाथ(विषमा बृहती, समासतो बृहती)।]

५१८.अग्ने विवस्वदुषसश्चित्रं राधो अमर्त्य ।
आ दाशुषे जातवेदो वहा त्वमद्या देवाँ उषर्बुधः ॥१॥
हे अमर अग्निदेव! उषा काल मे विलक्षण शक्तियां प्रवाहित होती हैं, यह दैवी सम्पदा नित्यदान करने वाले व्यक्ति को दें। हे सर्वज्ञ ! उषाकाल मे जाग्रत हुए देवताओं को भी यहां लायें॥१॥

५१९.जुष्टो हि दूतो असि हव्यवाहनोऽग्ने रथीरध्वराणाम् ।
सजूरश्विभ्यामुषसा सुवीर्यमस्मे धेहि श्रवो बृहत् ॥२॥
हे अग्निदेव! आप सेवा के योग्य देवों तक हवि पहुंचाने वाले दूत और यज्ञ मे देवो को लाने वाले रथ के समान हैं। आप अश्विनिकुमारो और देवी उषा के साथ हमे श्रेष्ठ, पराक्रमी एवं यशस्वी बनायें॥२॥

५२०.अद्या दूतं वृणीमहे वसुमग्निं पुरुप्रियम् ।
धूमकेतुं भाऋजीकं व्युष्टिषु यज्ञानामध्वरश्रियम् ॥३॥
उषाकाल मे सम्पन्न होने वाले यज्ञ, जो धूम्र की पताका एवं ज्वालाओ से सुशोभित है, ऐसे सर्वप्रिय देवदूत, सबके आश्रय एवं महान अग्निदेव को हम ग्रहण करते हैं और श्री सम्पन्न बनते हैं॥३॥

५२१.श्रेष्ठं यविष्ठमतिथिं स्वाहुतं जुष्टं जनाय दाशुषे ।
देवाँ अच्छा यातवे जातवेदसमग्निमीळे व्युष्टिषु ॥४॥
हम सर्वश्रेष्ठ, अतियुवा, अतिथिरूप, वन्दनीय, हविदाता, यजमान द्वारा पूजनीय, आहवनीय, सर्वज्ञ अग्निदेव की प्रतिदिन स्तुति करते हैं। वे हमे देवत्व की ओर ले चलें॥४॥

५२३.स्तविष्यामि त्वामहं विश्वस्यामृत भोजन ।
अग्ने त्रातारममृतं मियेध्य यजिष्ठं हव्यवाहन ॥५॥
अविनाशी, सबको जीवन(भोजन) देने वाले, हविवाहक, विश्व का त्राण करने वाले, सबके आराध्य, युवा हे अग्निदेव! हम आपकी स्तुति करते हैं॥५॥

५२४.सुशंसो बोधि गृणते यविष्ठ्य मधुजिह्वः स्वाहुतः ।
प्रस्कण्वस्य प्रतिरन्नायुर्जीवसे नमस्या दैव्यं जनम् ॥६॥
मधुर जिह्वावाले, याजको की स्तुति के पात्र, हे तरुण अग्निदेव ! भली प्रकार आहुतियां प्राप्त करते हुए आप याजको की आकांक्षा को जाने। प्रस्कण्व(ज्ञानियों) को दीर्घ जीवन प्रदान करते हुए आप देवगणो को सम्मानित करें॥६॥

५२५.होतारं विश्ववेदसं सं हि त्वा विश इन्धते ।
स आ वह पुरुहूत प्रचेतसोऽग्ने देवाँ इह द्रवत् ॥७॥
होता रूप सर्वभूतो के ज्ञाता,हे अग्निदेव! आपको मनुष्यगण सम्यक रूप से प्रज्वलित करते हैं। बहुतो द्वारा अहूत किये जाने वाले हे अग्निदेव! प्रकृष्ट ज्ञान सम्पन्न देवो को त्रीव गति से यज्ञ मे लायें॥७॥

५२६.सवितारमुषसमश्विना भगमग्निं व्युष्टिषु क्षपः ।
कण्वासस्त्वा सुतसोमास इन्धते हव्यवाहं स्वध्वर ॥८॥
श्रेष्ठ यज्ञों को सम्पन्न कराने वाले हे अग्निदेव! रात्रि के पश्चात उषाकाल मे आप सविता, उषा, दोनो अश्‍विनीकुमारो, भग और अन्य देवों के साथ यहां आयें। सोम को अभिषुत करने वाले ततहा हवियों को पहुंचाने वाले ऋत्विग्गण आपको प्रज्वलित करते है॥८॥

५२७.पतिर्ह्यध्वराणामग्ने दूतो विशामसि ।
उषर्बुध आ वह सोमपीतये देवाँ अद्य स्वर्दृशः ॥९॥
हे अग्निदेव! आप साधको द्वारा सम्पन्न होने वाले यज्ञो के अधिपति और देवों के दूत हैं। उषाकाल मे जाग्रत देव आत्माओं को आज सोमपान के निमित्त यहां यज्ञस्थल पर लायें॥९॥

५२८.अग्ने पूर्वा अनूषसो विभावसो दीदेथ विश्वदर्शतः ।
असि ग्रामेष्वविता पुरोहितोऽसि यज्ञेषु मानुषः ॥१०॥
हे विशिष्ट दीप्तिमान अग्निदेव! विश्वदर्शनीय आप उषाकाल के पूर्व ही प्रदीप्त होते है। आप ग्रामो की रक्षा करने वाले तथा यज्ञों , मानवो के अग्रनी नेता के समान पूजनीय हैं॥१०॥

५२९.नि त्वा यज्ञस्य साधनमग्ने होतारमृत्विजम् ।
मनुष्वद्देव धीमहि प्रचेतसं जीरं दूतममर्त्यम् ॥११॥
हे अग्निदेव! हम मनुष्यो की भांति आपको यज्ञ के साधन रूप, होता रूप, ऋत्विज रूप, प्रकृष्ट ज्ञानी रूप, चिर पुरातन और अविनाशी रूप मे स्थापित करतें है॥११॥

५३०.यद्देवानां मित्रमहः पुरोहितोऽन्तरो यासि दूत्यम् ।
सिन्धोरिव प्रस्वनितास ऊर्मयोऽग्नेर्भ्राजन्ते अर्चयः ॥१२॥
हे मित्रो मे महान अग्निदेव! आप जब यज्ञ के पुरोहित रूप मे देवों के बीच दूत कर्म के निमित्त जाते हैं, तब आपकी ज्वालायें समुद्र की प्रचण्ड लहरो के समान शब्द करती प्रदीप्त होती हैं ॥१२॥

५३१.श्रुधि श्रुत्कर्ण वह्निभिर्देवैरग्ने सयावभिः ।
आ सीदन्तु बर्हिषि मित्रो अर्यमा प्रातर्यावाणो अध्वरम् ॥१३॥
प्रार्थना पर ध्यान देने वाले हे अग्निदेव! आप हमारी स्तुति स्वीकार करें। दिव्य अग्निदेव के साथ समान गति से चलने वाले, मित्र और अर्यमा आदि देवगण भी प्रातःकालीन यज्ञ मे आसीन हों॥१३॥

५३२.शृण्वन्तु स्तोमं मरुतः सुदानवोऽग्निजिह्वा ऋतावृधः ।
पिबतु सोमं वरुणो धृतव्रतोऽश्विभ्यामुषसा सजूः ॥१४॥
उत्तम दानशील, अग्निरूप जिह्वा से यज्ञ को प्रवृद्ध करने वाले मरुद्‍गण इन स्तोत्रो का श्रवण करें। नियमपालक वरुणदेव, अश्‍विनीकुमारो और देवी उषा के साथ सोमरस का पान करें॥१४॥