ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ४४


[ऋषि - प्रस्कण्व काण्व। देवता - अग्नि, १-२ अग्नि,अश्‍विनीकुमार, उषा। छन्द बाहर्त प्रगाथ(विषमा बृहती, समासतो बृहती)।]

५१८.अग्ने विवस्वदुषसश्चित्रं राधो अमर्त्य ।
आ दाशुषे जातवेदो वहा त्वमद्या देवाँ उषर्बुधः ॥१॥
हे अमर अग्निदेव! उषा काल मे विलक्षण शक्तियां प्रवाहित होती हैं, यह दैवी सम्पदा नित्यदान करने वाले व्यक्ति को दें। हे सर्वज्ञ ! उषाकाल मे जाग्रत हुए देवताओं को भी यहां लायें॥१॥

५१९.जुष्टो हि दूतो असि हव्यवाहनोऽग्ने रथीरध्वराणाम् ।
सजूरश्विभ्यामुषसा सुवीर्यमस्मे धेहि श्रवो बृहत् ॥२॥
हे अग्निदेव! आप सेवा के योग्य देवों तक हवि पहुंचाने वाले दूत और यज्ञ मे देवो को लाने वाले रथ के समान हैं। आप अश्विनिकुमारो और देवी उषा के साथ हमे श्रेष्ठ, पराक्रमी एवं यशस्वी बनायें॥२॥

५२०.अद्या दूतं वृणीमहे वसुमग्निं पुरुप्रियम् ।
धूमकेतुं भाऋजीकं व्युष्टिषु यज्ञानामध्वरश्रियम् ॥३॥
उषाकाल मे सम्पन्न होने वाले यज्ञ, जो धूम्र की पताका एवं ज्वालाओ से सुशोभित है, ऐसे सर्वप्रिय देवदूत, सबके आश्रय एवं महान अग्निदेव को हम ग्रहण करते हैं और श्री सम्पन्न बनते हैं॥३॥

५२१.श्रेष्ठं यविष्ठमतिथिं स्वाहुतं जुष्टं जनाय दाशुषे ।
देवाँ अच्छा यातवे जातवेदसमग्निमीळे व्युष्टिषु ॥४॥
हम सर्वश्रेष्ठ, अतियुवा, अतिथिरूप, वन्दनीय, हविदाता, यजमान द्वारा पूजनीय, आहवनीय, सर्वज्ञ अग्निदेव की प्रतिदिन स्तुति करते हैं। वे हमे देवत्व की ओर ले चलें॥४॥

५२३.स्तविष्यामि त्वामहं विश्वस्यामृत भोजन ।
अग्ने त्रातारममृतं मियेध्य यजिष्ठं हव्यवाहन ॥५॥
अविनाशी, सबको जीवन(भोजन) देने वाले, हविवाहक, विश्व का त्राण करने वाले, सबके आराध्य, युवा हे अग्निदेव! हम आपकी स्तुति करते हैं॥५॥

५२४.सुशंसो बोधि गृणते यविष्ठ्य मधुजिह्वः स्वाहुतः ।
प्रस्कण्वस्य प्रतिरन्नायुर्जीवसे नमस्या दैव्यं जनम् ॥६॥
मधुर जिह्वावाले, याजको की स्तुति के पात्र, हे तरुण अग्निदेव ! भली प्रकार आहुतियां प्राप्त करते हुए आप याजको की आकांक्षा को जाने। प्रस्कण्व(ज्ञानियों) को दीर्घ जीवन प्रदान करते हुए आप देवगणो को सम्मानित करें॥६॥

५२५.होतारं विश्ववेदसं सं हि त्वा विश इन्धते ।
स आ वह पुरुहूत प्रचेतसोऽग्ने देवाँ इह द्रवत् ॥७॥
होता रूप सर्वभूतो के ज्ञाता,हे अग्निदेव! आपको मनुष्यगण सम्यक रूप से प्रज्वलित करते हैं। बहुतो द्वारा अहूत किये जाने वाले हे अग्निदेव! प्रकृष्ट ज्ञान सम्पन्न देवो को त्रीव गति से यज्ञ मे लायें॥७॥

५२६.सवितारमुषसमश्विना भगमग्निं व्युष्टिषु क्षपः ।
कण्वासस्त्वा सुतसोमास इन्धते हव्यवाहं स्वध्वर ॥८॥
श्रेष्ठ यज्ञों को सम्पन्न कराने वाले हे अग्निदेव! रात्रि के पश्चात उषाकाल मे आप सविता, उषा, दोनो अश्‍विनीकुमारो, भग और अन्य देवों के साथ यहां आयें। सोम को अभिषुत करने वाले ततहा हवियों को पहुंचाने वाले ऋत्विग्गण आपको प्रज्वलित करते है॥८॥

५२७.पतिर्ह्यध्वराणामग्ने दूतो विशामसि ।
उषर्बुध आ वह सोमपीतये देवाँ अद्य स्वर्दृशः ॥९॥
हे अग्निदेव! आप साधको द्वारा सम्पन्न होने वाले यज्ञो के अधिपति और देवों के दूत हैं। उषाकाल मे जाग्रत देव आत्माओं को आज सोमपान के निमित्त यहां यज्ञस्थल पर लायें॥९॥

५२८.अग्ने पूर्वा अनूषसो विभावसो दीदेथ विश्वदर्शतः ।
असि ग्रामेष्वविता पुरोहितोऽसि यज्ञेषु मानुषः ॥१०॥
हे विशिष्ट दीप्तिमान अग्निदेव! विश्वदर्शनीय आप उषाकाल के पूर्व ही प्रदीप्त होते है। आप ग्रामो की रक्षा करने वाले तथा यज्ञों , मानवो के अग्रनी नेता के समान पूजनीय हैं॥१०॥

५२९.नि त्वा यज्ञस्य साधनमग्ने होतारमृत्विजम् ।
मनुष्वद्देव धीमहि प्रचेतसं जीरं दूतममर्त्यम् ॥११॥
हे अग्निदेव! हम मनुष्यो की भांति आपको यज्ञ के साधन रूप, होता रूप, ऋत्विज रूप, प्रकृष्ट ज्ञानी रूप, चिर पुरातन और अविनाशी रूप मे स्थापित करतें है॥११॥

५३०.यद्देवानां मित्रमहः पुरोहितोऽन्तरो यासि दूत्यम् ।
सिन्धोरिव प्रस्वनितास ऊर्मयोऽग्नेर्भ्राजन्ते अर्चयः ॥१२॥
हे मित्रो मे महान अग्निदेव! आप जब यज्ञ के पुरोहित रूप मे देवों के बीच दूत कर्म के निमित्त जाते हैं, तब आपकी ज्वालायें समुद्र की प्रचण्ड लहरो के समान शब्द करती प्रदीप्त होती हैं ॥१२॥

५३१.श्रुधि श्रुत्कर्ण वह्निभिर्देवैरग्ने सयावभिः ।
आ सीदन्तु बर्हिषि मित्रो अर्यमा प्रातर्यावाणो अध्वरम् ॥१३॥
प्रार्थना पर ध्यान देने वाले हे अग्निदेव! आप हमारी स्तुति स्वीकार करें। दिव्य अग्निदेव के साथ समान गति से चलने वाले, मित्र और अर्यमा आदि देवगण भी प्रातःकालीन यज्ञ मे आसीन हों॥१३॥

५३२.शृण्वन्तु स्तोमं मरुतः सुदानवोऽग्निजिह्वा ऋतावृधः ।
पिबतु सोमं वरुणो धृतव्रतोऽश्विभ्यामुषसा सजूः ॥१४॥
उत्तम दानशील, अग्निरूप जिह्वा से यज्ञ को प्रवृद्ध करने वाले मरुद्‍गण इन स्तोत्रो का श्रवण करें। नियमपालक वरुणदेव, अश्‍विनीकुमारो और देवी उषा के साथ सोमरस का पान करें॥१४॥